आज के समय गुरु की आवश्यकता
गुरु की महिमा से हम सभी परिचित हैं।भारत में अनादि काल से गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है।कहा जाता है,' हरि रूठे गुरु ठौर है,गुरु रूठे नहीं ठौर,' यानी हरि के रूठने पर गुरु का आश्रय मिल जाता है,किंतु गुरु के रूठने पर कहीं कोई आश्रय नहीं।
गुरु पूर्णिमा गुरु के प्रति अटूट आस्था,समपर्ण का दिन होता है।आज ही के दिन महाभारत के रचयिता वेदव्यास जी का भी जन्मदिन है अतः उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का दिन सुनिश्चित किया गया है।
गुरु वह है जो शिष्य को चेतना के शिखर तक पहुंचाने में मदद करे,अन्तर्दृष्टि को जागृत करे, अहंकार को पूर्णतः समाप्त कर समपर्ण के भाव को मजबूत करे।गुरु के सामीप्य से हमारे अन्तर्विकार उसी तरह दूर हो जाते हैं जैसे सूर्य की किरण के आते ही रात्रिभर का अंधकार गायब हो जाता है।मनुष्य रूप में जन्म लेने पर श्रीराम नें गुरु वशिष्ठ से शिक्षा ग्रहण की थी और श्रीकृष्ण नें सांदीपनि से।
गुरु ऊर्जा का असीम भंडार होता है अतः उसे अपनी ऊर्जा को निष्कासित करने के लिए योग्य शिष्यों की आवश्यकता होती है।कहा जाता है कि शिष्य गुरु का चुनाव नहीं करते अपितु गुरु अपने शिष्य का चुनाव करता है।गुरु और शिष्य देह से परे आत्मिक तौर पर एक ही होते हैं।जैसे ही समर्पण का भाव शिष्य में आना शुरू होता है,गुरु की कृपा ऊर्जा के रूप में शिष्य की ओर बहनी शुरू हो जाती है।अतः मान,मद,मोह,अहंकार,पद,वैभव,बौद्धिक श्रेष्ठता आदि समस्त विकारों का समर्पण गुरु के चरणों में कर देने के उपरांत ही गुरु कृपा सम्भव है।
अब प्रश्न ये है कि आज के समय में जहाँ अविश्वास,व्यभिचार,अनैतिकता का बोलबाला है,आये दिन समाचार पत्रों में धर्म के नाम पर आम लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ करने वाले छद्मवेषधारी गुरु सलाखों के पीछे दिखाई देते हैं।ऐसे में किस पर विश्वास किया जाए!
अब दूसरा प्रश्न ये कि क्या गुरु का देहधारी होना आवश्यक है अगर नहीं तो किसे गुरु मानकर जीवन का ध्येय पूरा किया जाए।
अगर सौभाग्य से देह रूप में इस जीवन में सुयोग्य गुरु मिल जाये तो जीवन की दिशा बदल जाती है।नकारात्मक ऊर्जा,मनोविकार व अन्य मानवोचित दुर्गुण गुरु कृपा प्राप्त व्यक्ति को छू भी नहीं पाते।
लेकिन ये संभव नहीं कि हरेक का जीवंत गुरु से साक्षात्कार हो।गुरु असल में देह मात्र नहीं है।गुरु एक तत्व है,एक विचार है जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्यापक है।हर व्यक्ति के अंदर एक गुरु विद्यमान होता है।ध्यान के क्षणों में अंदर स्थित गुरु से साक्षात्कार होता है।
हर व्यक्ति की अपनी एक चेतना होती है जो सदैव सक्रिय रहती है किंतु दुर्भाग्य से सांसारिक विकारों के प्रभाव में आकर व्यक्ति अपनी चेतना के कपाट पूर्णतः बंद कर देता है।उचित अनुचित कार्य के उन क्षणों में अंदर की चेतना आवाज देती है किंतु व्यक्ति उस आवाज को अनदेखा करता है।जीवन पर्यंत ये प्रक्रिया चलती रहती है।ये अंदर की आवाज ही गुरु तत्व है जो हरेक को दिखाई या सुनाई नहीं देती,इसे प्रत्यक्ष अनुभव करने या सुनने के लिए आत्मा पर छाई दुर्गुणों की मलिनता को स्वच्छ करना होता है।गुरु तत्व हमारा दर्पण है जिसमें आत्मदर्शन होते हैं किंतु स्वच्छ प्रतिबिंब देखने के लिए विचारों पर छाई धूल को हटाना अत्यंत आवश्यक है।सार रूप में गुरु शिष्य एक ही तत्व हैं।
यह आवश्यक नहीं कि गुरु की प्राप्ति के लिए हिमायल जाकर साधना की जाए या मठ,मंदिरों में गुरु की खोज की जाए।दैनिक जीवन निर्वाह करते हुए भी गुरु तत्व प्राप्त किया जा सकता है,बस चैतन्य होना ही प्रथम और प्रमुख दीक्षा है।अगर नित्य प्रतिदिन ध्यान या चिंतन में कुछ समय व्यतीत किया जाए तो अंदर की चेतना पुनः सक्रिय होना शुरू हो जाती है।चैतन्य व्यक्ति कुछ भी कार्य करने से पहले अंतर्मन की आवाज सुनता है जो उसे उचित अनुचित के मध्य के भेद को दूर कर जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में सहायता करती है ठीक वैसे ही जैसे शिष्य कोई भी कार्य गुरु के परामर्श के बिना नहीं करता है,जीवन के हर मोड़ पर उसे गुरु के सतत मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है उसी तरह चैतन्य व्यक्ति अंदर की चेतना को गुरु तत्व मानकर सफल जीवन निर्वाह करता है।
-अल्पना नागर