Thursday 31 December 2020

आलेख

 आलेख- विचारों की शक्ति


आपमें से अधिकांश नें आकर्षण के सिद्धांत के बारे में सुना होगा।हम इसे प्रतिदिन अपने दैनिक जीवन में देखते हैं,महसूस करते हैं और वस्तुतः इसे जीते भी हैं।आखिर ये आकर्षण का सिद्धांत है क्या !आज के आलेख में इसी पर थोड़ा विस्तार से ध्यान देते हैं।

आपने अपने आस पास परिचित मित्रों या रिश्तेदारों की जीवन शैली पर ध्यान दिया होगा,कोई मित्र स्वयं में जीवन से भरपूर होता है तो कोई जीवन से पूर्णतः दूर..हमेशा कोई न कोई शिकायत करता हुआ।ऐसा क्यों होता है कि कोई व्यक्ति बहुत अधिक खुशमिजाज होता है तो कोई बहुत अधिक चिड़चिड़ा..इतना कि ऐसे व्यक्ति से बात करते हुए भी डर और झिझक महसूस होने लगती है।हम अधिकांशतः अप्रिय घटनाओं के लिए किस्मत को कोसना शुरू कर देते हैं और बार बार उन्हीं घटनाओं को स्मरण कर एक अजीब सा नकारात्मक माहौल अपने इर्द गिर्द बुन लेते हैं।क्या सचमुच किस्मत जैसी कोई चीज होती है जो कठपुतली की तरह आपको अपनी उंगलियों पर नचाना जानती है!

आकर्षण का सिद्धांत कहता है कि जितनी भी घटनाएं हमारे साथ घटित होती हैं उसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार होते हैं,हम उन्हें अपनी ओर आकर्षित करते हैं।मनुष्य मस्तिष्क इतना अधिक शक्तिशाली है कि ये समान विचारों को अपनी ओर खींचता है वो सभी चीजें जिनकी हमने चाह की होती है एक न एक दिन मूर्त रूप में हमारे सामने उपस्थित होती हैं बशर्ते आपने अपनी ऊर्जा उसी दिशा में लगाई हो।दुनिया जिसे सफलता का नाम देती है दरअसल वो हमारे विचारों और ऊर्जा का ही विस्तार रूप होता है।

अगर हम बार बार अपनी शारिरिक व्याधि या किसी अन्य कष्ट को स्मरण करते हैं तो अपनी ऊर्जा का अधिकांश हिस्सा हम स्वयं अपनी मर्जी से उसी ओर प्रवाहित कर रहे होते हैं,जो धीरे धीरे उसी के समान या उसी से संबंधित अन्य परेशानियों को आकर्षित करती है।ये सब कुछ हमारे दिमाग में घटित होता है जो शनै शनै हमारे दैनिक जीवन में मूर्त रूप में परिणित होता जाता है।

इसके ठीक उलट अगर हम विपरीत परिस्थितियों में भी कुछ अच्छा सोचते हैं।नकारात्मक बुरी चीजों को सिरे से अनदेखा करते हैं तो धीरे धीरे वो चीजें दूर होनी शुरू हो जाती हैं क्योंकि आप उन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर रहे हैं।आपने अच्छा सोचा सकारात्मक रहे तो निश्चित रूप से चुम्बक की तरह अच्छी चीजें आपकी ओर आकर्षित होती जाएंगी।ये बात सुनने में भले ही अजीब लगे किन्तु व्यावहारिक तौर पर आजमाने योग्य है।अगर आप स्वयं ही हीन भावना से ग्रस्त होकर अवसादमय जीवन जीना चुनते हैं तो आप पाएंगे कि आपके आसपास आपकी हंसी उड़ाने वाले लोगों का जमावड़ा हो चुका है जिनसे आप किसी भी हाल में बचना चाहते हैं।यहाँ आपके विचारों नें मस्तिष्क की तरंगों नें ऐसे समान प्रवृत्ति वाले लोगों को आकर्षित किया है।इसके विपरीत अगर आप स्वयं को किसी भी तरह की हीन भावना से मुक्त करते हैं तो पाएंगे कि मजाक उड़ाने वाले तुच्छ मानसिकता के लोग वाष्प की तरह आपकी जिंदगी से या तो गायब हो गए हैं या फिर उन्होंने आपको केंद्र बनाना छोड़ दिया है।

हमारे विचार ही हमें बनाते हैं,हमारे व्यक्तित्व को मूर्त रूप देते हैं..विचारों की एक श्रृंखला बनती जाती है और वातावरण उसी के अनुकूल होता जाता है।हमें वही मिलता है जो हम मस्तिष्क में उपजाते है।

कल्पना कीजिये आप अच्छा लिखना चाहते हैं एक सुविख्यात लेखक बनने का आपका स्वप्न है।आप इसे हर दिन अपने मस्तिष्क में रखिये..दोहराइये..नकारात्मक हर बाहरी टिप्पणी को अनदेखा कर अपनी कमियों को सुधारते जाइये।आप देखेंगे कि आपके आसपास अच्छी पुस्तकों व ज्ञानवर्धक विचारों का ढेर लगा है,अच्छे लोग आपसे जुड़ रहे हैं और तमाम तरह के बाहरी अवरोधों के बावजूद आप अपनी ऊर्जा को उसी दिशा में प्रवाहित होते देखेंगे।आप महसूस करेंगे कि आपके लेखन में बहुत ही सकारात्मक परिवर्तन आये हैं।यहाँ आपने कोई जादू मंतर नहीं किया अपितु अपनी चाह को मस्तिष्क में रख हर दिन उसे पोषित किया,उसे वास्तविक रूप दिया..अपनी समस्त ऊर्जा उस दिशा में झोंक दी।इसके अतिरिक्त आपने कुछ नहीं किया।यही बात जीवन के अन्य पहलुओं पर भी लागू होती है।चाहे वो आपसी संबंध हो या किसी असाध्य बीमारी की तकलीफ़।आपने जो चाहा वो आपके सामने हाजिर हुआ।

अलादीन के चिराग से तो आप सभी वाकिफ़ होंगे।अलादीन एक चिराग को रगड़ता है और जिन्न उसके सामने उपस्थित होता है उसकी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए।कोई जादू नहीं होता।जादू को असल रूप देने के लिए भी इच्छा जाहिर करनी होती है।चिराग को रगड़ना होता है।यहाँ चिराग सभी के पास है और वो है मस्तिष्क उसे जितना इस्तेमाल में लेंगे जितना रगड़ेंगे उतना ही इच्छाओं को पाने के योग्य होंगे।

हिंदू मिथक में भी कल्पवृक्ष का जिक्र आता है जिसके नीचे बैठकर सोचने मात्र से इच्छाएं पूरी हो जाती हैं।ये कल्पवृक्ष भी दरअसल हमारा मस्तिष्क ही है हम जो भी कल्पना में लाते हैं वो हमारे विशुद्ध प्रयासों की वजह से हक़ीकत में बदल जाता है।दुनिया में जितनी भी अद्भुत चीजें हम देखते हैं जितने भी आविष्कार हम देखते हैं वो सभी पहले मस्तिष्क में घटित हुए उसके बाद ठोस रूप में दुनिया के सामने आए।

मनुष्य भी सिर्फ ऊर्जा का पुंज मात्र है जिसने हाड़ मांस का ठोस आकार ग्रहण कर लिया है,ऊर्जा जो न बनती है और न ही विनिष्ट होती है बस प्रवाहमान रहती है।


नववर्ष सभी के लिए मंगलकारी हो।

-अल्पना नागर

Wednesday 30 December 2020

कौन सा घर


कौन सा घर


आमतौर पर घर जिसे हम सपनों का आशियाना भी कहते हैं,इंसान की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक माना जाता है।कहा भी जाता है रोटी,कपड़ा और मकान इन तीन शब्दों को जोड़े रखने का नाम जिंदगी है।ईंट पत्थरों से जुड़कर रहने लायक आवास बनाने में समूचा जीवन लग जाता है और उसे 'घर' बनाने में विशुद्ध अपनापन और कुटुंब की निस्वार्थ भावना का होना जरूरी हो जाता है अन्यथा 'घर' टूटकर सिर्फ मकान रह जाता है।

लेकिन क्या कभी सोचा है जिस घर को हम इतने प्यार और अपनेपन के साथ हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनाते हैं वो सचमुच हमारा है भी या नहीं..! दरअसल मकानमालिक होते हुए भी हम आजीवन एक मामूली किरायेदार हैं जिसे एक न एक दिन मकान खाली करना है।बात भले ही दार्शनिक लगे किन्तु कटु सत्य है जिसे हम जानते हुए भी स्वीकार नहीं कर पाते और जीवन भर तरह तरह की उलझनों में फंसते चले जाते हैं।

इस समूचे ब्रह्मांड में अनेकानेक ग्रहों उपग्रहों और आकाशगंगा के बीच हमारी पृथ्वी पेंसिल की नोक से भी मामूली आकार की है।ये विडंबना है कि उसी पृथ्वी पर हम आजीवन घर तलाशते हैं,रिश्ते नातों को धता बता मामूली जमीन के टुकड़ों की ख़ातिर कानूनी लड़ाई लड़ते हैं।

ये पृथ्वी का अटूट धैर्य ही है जिसने मनुष्य द्वारा अंतरतम केंद्र तक खोद दिए जाने के बावजूद इंसानी सभ्यता को अक्षुण्ण बनाये रखा,शायद इसीलिए इसे धारिणी की उपमा दी गई है।

लियो टॉल्सटॉय की विश्व प्रसिद्ध कहानी 'हाउ मच लैंड डज़ ऐ मैन रिक्वायर' में इसी तरह का संदेश दिया गया है।इंसान को अंत में सिर्फ छह गज जमीन के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए वो भी उसकी कब्र के लिए।यहाँ इस कहानी का जिक्र करके सांसारिक नश्वरता को इंगित करना भर नहीं है अपितु ये बताना है कि जितना भी अनमोल समय है उसे हर क्षण जी भर के जिया जाए,भविष्य की व्यर्थ चिंता में पड़कर जमीन ज़ायदाद के पीछे दौड़कर हम जीवित होते हुए भी साक्षात मृत्यु का वरण करते हैं।

सच बात यही है कि हमारा अपना कोई घर नहीं होता और न ही कोई पता स्थाई होता है जो कुछ भी वर्तमान में है वही जीवन है वही घर है।

स्त्रियों के मन मे अनेक बार ये प्रश्न जरूर आता है आखिर वो कौनसा घर है जिसे वो अपना माने..पीहर पक्ष जहाँ उसने अपने जीवन की शुरुआत की..या फिर ससुराल पक्ष जहाँ उसे एक बार पुनः नई शुरुआत करनी है,नए सिरे से चीजों को समझना है अंगीकार करना है।स्त्री चाहे कितनी भी कोशिश करे वो आजीवन दोनों घरों के बीच फंसी रहती है वो भी खुशी खुशी स्वेच्छा से।कई बार यूँ भी होता है उसे दोनों तरफ से दुत्कार के सिवा कुछ नहीं मिलता।पीहर पक्ष विवाह के बाद अपने कर्तव्य से इतिश्री कर जिम्मेदारियों से स्वयं को विमुक्त कर लेता है दूसरी तरफ ससुराल पक्ष भी उसे पराया समझ रूखा व्यवहार करता है ऐसे में एक स्त्री घर की देहरी जैसी हो जाती है जिससे गुजरते तो सभी हैं लेकिन उसे घर का हिस्सा नहीं मानते।वर्तमान में काफी हद तक परिस्थितियों में बदलाव आया है।अब स्त्रियों को 'अपना घर' संबंधित प्रश्न पर इतनी अधिक मानसिक यातना नहीं झेलनी होती।फिर भी दोनों ही परिस्थितियों में स्त्री सहृदय रहती है ,दोनों घरों को अपना मानती है और खुले हृदय से प्रेम और अपनापन लुटाती है।उसके होने से दोनों घरों में चहक और रौनक बनी रहती है।

मनुष्य भी अगर समूची पृथ्वी को अपना घर मानकर जीवनयापन करे तो शायद मसले इतने अधिक न हों।एक छोटे से घर में हमनें इतनी अधिक दीवारें और सीमाएं बना दी हैं इतने अधिक बँटवारे और कौम खड़ी कर दी हैं कि घर एक उलझे हुए जंजाल के अतिरिक्त कुछ नजर नहीं आता।उलझनों नें वास्तविक उद्देश्य को पूर्णतः विस्मृत करा दिया है।

अगर अभी भी आप यही सोचकर व्यथित हो रहे हैं कि समूचे जीवन में एक छोटा सा मकान तक खड़ा नहीं कर पाया तो एक बार पुनः विचार करें।


अल्पना नागर