Sunday 26 February 2017

Castle of imagination

The castle of imagination you created
Inside the castle just we two inhabited
You brought me roses of smile
You fetch me tender feelings
I pricked you thorns from roses
The roses got withered
With salty drops of tears..
I brought to you the mirror of reality
The tender feelings got crushed in thousands pieces..
I committed sin of destroying
The happy castle
Now I live in the world of rock hard reality
With false unscented flowers around
With no traces of feelings
I chose my world..
I chose the empty soul..
My mornings are burdened with
Stone over my heart..
I don't have any right but
May i ask one thing..
Can we both create that castle again..!
Let's create the magic world again
Just me and you there..

Alpana.


Saturday 25 February 2017

कविता-स्त्री और प्रेम

चेतना,
निर्णय,
अधिकार,
एक एक कर सब
समर्पित कर चली हो,
स्त्री तुम प्रेम कर बैठी हो!
सहगामिनी बनने चली थी,
अनुगामिनी रह गई हो,
स्त्री! तुम प्रेम कर बैठी हो!
घर,नौकरी,बिल,मीटिंग्स तक
दायरा विस्तृत कर लिया है
आजादी का 'आभास' कराने वाले
पिंजरे का दायरा..!
समाज की चरमराती खूँटी पर
टांग आयी हो
'इंडिविजुअल एन्टिटी' को!
टिकाये रखा है तुमने
अपने कंधों पर
सामंती चतुर्वर्ण व्यवस्था का भार,
रीढ़ अपनी झुका बैठी हो
स्त्री! तुम प्रेम कर बैठी हो
विभ्रमों और दुविधा के
मकड़जाल में फंसी
कब पहचानोगी कि
महज श्वास लेना भर
जीना नहीं होता!
सर्वत्र प्रेम लुटाने वाली
कब सिखोगी कि
खुद से प्रेम किये बैगर
असंभव है जीवित रह पाना!
स्त्री!क्या सचमुच तुम प्रेम कर बैठी हो!!

अल्पना नागर







Thursday 23 February 2017

Poetry

Season of cold

Misty weather...misty relations..
warm quilts with COLD people inside..
blazing firewood with COLD people around..
smiling faces masked with nefarious designs inside..
season of cold..season of COLD behaviour....

Alpana

व्यंग्य




ब्रह्मास्त्र

बचपन में बालहंस पत्रिका में कवि आहत को खूब पढ़ा था।परिपक्व होने पर यकीन हुआ कि सचमुच कवि आहत जैसे समर्पित कवि इसी दुनिया में मौजूद हैं,जो यत्र तत्र सर्वत्र अपनी कविताएं सुनाने को बेचैन रहते हैं बस अगर श्रोता मिल जाएं तो कविता धन्य समझो।ऐसे ही पिता के परिचित एक कवि मित्र हर रविवार हमारे धैर्य की परीक्षा लेने आते थे।दरवाजे पर उनके स्कूटर की आहट के साथ ही हमारी धड़कनें असामान्य हो जाती।दिखने में बांस जैसे लंबे,दुबले पतले,बिखरे बाल व चेहरे पर सप्रयत्न सामने लाई बालों की एक लट उनके कवि होने पर मुहर लगाती थी।पूरा रविवार उन्हीं की प्रयोगवादी,छायावादी,प्रगतिशील मिश्रित कविताओं को सुनने में निकल जाता था।
मानव स्वभावतः स्वार्थी होता है,कविताओं के मामले में भी यही कह सकते हैं,सुनने वाले कम लेकिन सुनाने वाले ज्यादा मिल जाएंगे।चाय की पांच बार आवृति होने तक वह सज्जन धड़ाधड़ कविताएं सुनाते रहते।पिता के दिमाग में उस समय वहाँ से रफा दफ़ा होने के सैकड़ों बहाने आते मगर शब्द जुबां तक आते आते जाने कहाँ अटक जाते,खैर अपने घर से भागकर जाते भी कहाँ! लेकिन कहा जाता है कि हर समस्या का समाधान देर सवेर हो जाता है।इसी क्रम में रविवार की एक सुबह वही सज्जन आये और औपचारिकतावश पूछ बैठे "और मित्र क्या लिख रहे हो इन दिनों कुछ सुनाओ यार।"
पिताजी को जैसे ब्रह्मास्त्र मिल गया, तुरंत अपने चश्में को सँभालते हुए बोले "बस कुछ खास नहीं यही कोई 350 पृष्ठ का एक लघु नाटक लिखा है,बैठिये सुनाता हूं।"
उन सज्जन को इस उत्तर की कतई उम्मीद न थी,लड़खड़ाई आवाज में बोले "350 पृष्ठ?"
"हाँ तो क्या हुआ पूरा दिन आज फ्री है,इत्मीनान से सुनिये।"पिताजी नें कहा।
वो सज्जन अपनी डायरी और स्कूटर की चाभी टटोलते हुए बोले "भाईसाब मैं कितना भुलक्कड़ हूं, अत्यंत आवश्यक कार्य था,गैस सिलेंडर बिल्कुल ख़त्म है,प्रबंध करना पड़ेगा।"
"अरे कहाँ जा रहे हैं मास्साब रुकिये,मेरे होते हुए आप ये तकलीफ़ कैसे कर सकते हैं,संयोग से कल ही मैंने अतिरिक्त सिलेंडर लिया है।अब तो आपको पूरा नाटक सुनना ही पड़ेगा।
पता नहीं क्यूँ पर उस रविवार के बाद वो सज्जन पुनः दिखाई नहीं दिए।
इसी क्रम में सप्ताहांत में रेल से यात्रा के दौरान एक सज्जन नें पूछा"भाई साहब आप किसी गहन विचार में हैं कहीं आप कवि तो नहीं?"
पिताजी एकदम सन्न इन्हें कैसे ज्ञात हुआ?ये खगोलशास्त्री या मनोविज्ञानी तो नहीं!!
"जी थोड़ा बहुत लिख लेते हैं।"
"बहुत अच्छे,दरअसल हम भी कवि हैं।अब भला एक कवि दूसरे कवि को नहीं पहचानेगा क्या?"
उन सज्जन को जैसे कुबेर का खजाना मिल गया।
सूचना क्रांति व सोशल मीडिया नें सभी के अंदर के कवि को जगा दिया है।फट से डायरी निकाली और बिना एक क्षण की देरी किये कविताएं सुनाना शुरू।10-12 कविताएं सुनने के बाद यहाँ भी पिताजी नें अपना ब्रह्मास्त्र निकाला।पता नहीं क्यूँ लेकिन पूरी यात्रा में वो सज्जन आँखें मूंदे लेटे रहे।

अल्पना नागर



Wednesday 22 February 2017

एक शाम

एक शाम

चलो
मिलते हैं किसी रोज़
उसी जगह
जहाँ मिलते हैं
जमीं और आसमां..
क्षितिज पर
कत्थई क्षणों को
देर तक
निहारते हुऐ
बनायेंगे कुछ घरौंदे
मिट्टी जैसे अरमानों से,
टूट भी जायें अगर
तो ग़म नहीं होगा !
भर लेंगे
बेपनाह समंदर
मुहब्बत का
एक छोटी सी चाय की
प्याली में..
गिनेंगे हर आती जाती
लहर और
धड़कनों को...
चुन कर रख लेंगे
किनारे पड़े शंख
सीप और फेनिल लम्हे..
तुम देखना
मेरी आँखों में
डूबता हुआ सूरज
मैं इंतज़ार करूँगी
चाँदनी उतरने का
ज्वार भाटे सी
घटती बढ़ती सांसों में..
निकल आयेंगे
दूर तलक
लहरों के पीछे पीछे
छोड़ आयेंगे
यादों के निशान
भुरभुरी समय रेत पर..
हो सके तो
उस रोज़
घड़ी की जगह
फुरसत बाँध के आना
कलाई पर...

अल्पना नागर

कविता-शब्द

सोचती हूँ
शब्द नें अब तक
हमें क्या दिया?
आकार दिया
निराकार भावों को!
एक तटस्थ पुल की भाँति
स्वयं चरमरा कर भी
जोड़े रखा
विपरीत ध्रुवों को,
एक युग यात्री बन
बदल डाली दुनिया
किन्तु हमनें क्या किया
शब्दों के साथ?
कभी छोड़ दिया
अकेले वाक् युद्ध में
लहूलुहान होने..
तो कभी सजा दिया उन्हें
भावविहीन भाषा की दुकान में
प्रतिस्पर्धा का
चमकीला आवरण पहना कर!
हम समझते रहे
हमनें शब्द गढ़ दिए!
किन्तु हकीकत में
शब्द हमें गढ़ रहे हैं
एक सुघड़ शिल्पी की भाँति
बड़ी ही सूक्ष्मता से
एक एक कर हमारे
जीवन के पृष्ठ गढ़ रहे हैं,
शब्द ब्रह्म हैं
शब्दों को सुनो..

अल्पना

Mutual beloved

She was lying next to me
I touched
no response,
i kissed
no response,
i embraced
Now i felt
she was not there
Yet she was lying
Next to me!!
One day i found her
Walking at mid night
i beckoned
But again
no response!
She faded away
in the darkness..
So embarrassing 'twas..
after a couple of days
i got her luckily
Hiding deep in my heart!
Oh i found her
right on the glossy lips of yours
smiling..smirking..
Again i caught her
shining on the
vast forehead of
Money ,fame and love..
hey !what are you thinking ?
she is our mutual beloved loneliness !!

Alpana ✏

हायकू

हायकू
(1)
कभी रुके न
समय मुसाफ़िर
चलते जाना
(2)
सूखे गुलाब
जीवन की साँझ में
हरा बसंत
(3)
सम्बन्ध घास
अहंकार की आग
अंततः खाक
(4)
रूठना तेरा
वसंत समय का
शिशिर होना
(5)
वो इन दिनों
लबालब भरे हैं
खालीपन से
(6)
कोरा कागज़
पढ़ लो जरा तुम
भाव के मोती
(7)
तुम्हारा जाना
घड़ी की टिक टिक
ठहरा वक्त
(8)
शीत ऋतु में
मुट्ठी भर धूप सी
उजली यादें

अल्पना नागर