Thursday, 23 February 2017

व्यंग्य




ब्रह्मास्त्र

बचपन में बालहंस पत्रिका में कवि आहत को खूब पढ़ा था।परिपक्व होने पर यकीन हुआ कि सचमुच कवि आहत जैसे समर्पित कवि इसी दुनिया में मौजूद हैं,जो यत्र तत्र सर्वत्र अपनी कविताएं सुनाने को बेचैन रहते हैं बस अगर श्रोता मिल जाएं तो कविता धन्य समझो।ऐसे ही पिता के परिचित एक कवि मित्र हर रविवार हमारे धैर्य की परीक्षा लेने आते थे।दरवाजे पर उनके स्कूटर की आहट के साथ ही हमारी धड़कनें असामान्य हो जाती।दिखने में बांस जैसे लंबे,दुबले पतले,बिखरे बाल व चेहरे पर सप्रयत्न सामने लाई बालों की एक लट उनके कवि होने पर मुहर लगाती थी।पूरा रविवार उन्हीं की प्रयोगवादी,छायावादी,प्रगतिशील मिश्रित कविताओं को सुनने में निकल जाता था।
मानव स्वभावतः स्वार्थी होता है,कविताओं के मामले में भी यही कह सकते हैं,सुनने वाले कम लेकिन सुनाने वाले ज्यादा मिल जाएंगे।चाय की पांच बार आवृति होने तक वह सज्जन धड़ाधड़ कविताएं सुनाते रहते।पिता के दिमाग में उस समय वहाँ से रफा दफ़ा होने के सैकड़ों बहाने आते मगर शब्द जुबां तक आते आते जाने कहाँ अटक जाते,खैर अपने घर से भागकर जाते भी कहाँ! लेकिन कहा जाता है कि हर समस्या का समाधान देर सवेर हो जाता है।इसी क्रम में रविवार की एक सुबह वही सज्जन आये और औपचारिकतावश पूछ बैठे "और मित्र क्या लिख रहे हो इन दिनों कुछ सुनाओ यार।"
पिताजी को जैसे ब्रह्मास्त्र मिल गया, तुरंत अपने चश्में को सँभालते हुए बोले "बस कुछ खास नहीं यही कोई 350 पृष्ठ का एक लघु नाटक लिखा है,बैठिये सुनाता हूं।"
उन सज्जन को इस उत्तर की कतई उम्मीद न थी,लड़खड़ाई आवाज में बोले "350 पृष्ठ?"
"हाँ तो क्या हुआ पूरा दिन आज फ्री है,इत्मीनान से सुनिये।"पिताजी नें कहा।
वो सज्जन अपनी डायरी और स्कूटर की चाभी टटोलते हुए बोले "भाईसाब मैं कितना भुलक्कड़ हूं, अत्यंत आवश्यक कार्य था,गैस सिलेंडर बिल्कुल ख़त्म है,प्रबंध करना पड़ेगा।"
"अरे कहाँ जा रहे हैं मास्साब रुकिये,मेरे होते हुए आप ये तकलीफ़ कैसे कर सकते हैं,संयोग से कल ही मैंने अतिरिक्त सिलेंडर लिया है।अब तो आपको पूरा नाटक सुनना ही पड़ेगा।
पता नहीं क्यूँ पर उस रविवार के बाद वो सज्जन पुनः दिखाई नहीं दिए।
इसी क्रम में सप्ताहांत में रेल से यात्रा के दौरान एक सज्जन नें पूछा"भाई साहब आप किसी गहन विचार में हैं कहीं आप कवि तो नहीं?"
पिताजी एकदम सन्न इन्हें कैसे ज्ञात हुआ?ये खगोलशास्त्री या मनोविज्ञानी तो नहीं!!
"जी थोड़ा बहुत लिख लेते हैं।"
"बहुत अच्छे,दरअसल हम भी कवि हैं।अब भला एक कवि दूसरे कवि को नहीं पहचानेगा क्या?"
उन सज्जन को जैसे कुबेर का खजाना मिल गया।
सूचना क्रांति व सोशल मीडिया नें सभी के अंदर के कवि को जगा दिया है।फट से डायरी निकाली और बिना एक क्षण की देरी किये कविताएं सुनाना शुरू।10-12 कविताएं सुनने के बाद यहाँ भी पिताजी नें अपना ब्रह्मास्त्र निकाला।पता नहीं क्यूँ लेकिन पूरी यात्रा में वो सज्जन आँखें मूंदे लेटे रहे।

अल्पना नागर



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