Sunday 28 June 2020

आलेख- भारतीय जीवन मूल्य

भारतीय जीवन मूल्य
💐💐💐

हम भारतीय आदिकाल से ही शाश्वत जीवन मूल्यों की वजह से समस्त विश्व में जाने जाते हैं।जीवन मूल्यों के बीज मनुष्य के जन्म लेने के साथ ही उसमें डलने शुरू हो जाते हैं।संस्कार नामक बेल थामकर आजीवन उन मूल्यों का निर्वाह किया जाता है।भारतीय जीवन मूल्य सच्चे मायनों में मनुष्य को मनुष्यता की ओर अग्रसर करने का कार्य करते हैं।संवेदनशीलता,सहिष्णुता,प्रेम,भाईचारा,आतिथ्य सत्कार,शत्रु से भी मित्रवत व्यवहार,अहिंसा,सर्वधर्म सद्भाव,आदि कुछ ऐसे मूल्य हैं जो संपूर्ण विश्व में भारतीयों की अलग पहचान बनाते हैं।आज हम अपने चारों ओर प्रगति का जो आवरण देख रहे हौं उसकी जड़ो में प्राचीन मूल्य ही है।प्रगति को हम अगर शरीर कहें तो मूल्य को आत्मा कह सकते हैं।ये हमारे जीवन मूल्य ही हैं जिनके निर्वाह के लिए रामचंद्र जी नें सहर्ष चौदह वर्ष का वनवास भोगा, पिता दशरथ नें दिए वचन की पालना की और मूल्यों को कायम रखा।माता सीता नें मूल्यों के निर्वाह के लिए अग्नि परीक्षा तक दी।मुगल काल में स्त्रियों नें सतीत्व को बचाये रखने के लिए प्राणों तक की बलि दी।वीर पुरुषों नें युद्ध स्थल पर केसरिया बाना पहनकर अंतिम साँस तक मूल्यों की रक्षा की।विवेकानंद द्वारा सुझाये जीवन मूल्यों की राह पर चलकर बहुत से स्वतंत्रता सैनानियों नें मृत्य पर्यन्त विदेशी आताताइयों से लोहा लिया।जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए ही शहीदों नें स्वतंत्रता के यज्ञ में प्राणों की आहुति दी,ताकि कोई और ताकत भारत पर अपना हक न जमा पाए,जबरदस्ती अपनी संस्कृति को भारतीयों पर थोप न पाए।हालांकि समय और परिस्थिति के हिसाब से मूल्यों के स्वरूप में भी परिवर्तन आया है।उचित और अनुचित को ध्यान में रखते हुए मूल्यों की पालना की जानी चाहिए।जो सती प्रथा मुगल आक्रमणकारियों से अपने सतीत्व को बचाने के लिए शुरू की गई थी वो आगे चलकर परम्परा में परिवर्तित हो गई।मुगल राज्य समाप्त हो गया लेकिन सती प्रथा चलती रही।स्वतंत्रता से पहले राजा राम मोहन राय नें जंग लगे अप्रासंगिक मूल्यों को नकार कर युग परिवर्तन का बिगुल बजाया।अपनी प्रिय भाभी की इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती ढोल नगाड़ों की आवाज में जयजयकार के उद्घोषणा स्वर नें जब उन्हें सती कर दिया गया तब विचलित राजा राम मोहन राय नें इसे कानूनन अवैध घोषित करने का बीड़ा उठाया।विधवा पुनर्विवाह को भी उस युग में आये जीवन मूल्यों के स्वरूप परिवर्तन से जोड़कर देखा जा सकता है।विवाह की आयु भी उसी दौरान सुनिश्चित की गई,अन्यथा बेमेल विवाह बेरोकटोक चले आ रहे थे।
जीवन मूल्यों नें अपना स्वरूप परिवर्तित किया है यद्दपि बहुत सारे मूल्य ऐसे हैं जो आज भी अक्षुण्ण हैं।जैसे हम भारतीय सृष्टि के कण कण में ईश्वरीय रूप के दर्शन करते हैं इसीलिए यहाँ अनादि काल से ही पेड़ पौधों पत्थरों एंव प्रकृति के विराट स्वरूपों नदी,सूर्य चंद्रमा आदि को पूजने की परंपरा रही है।प्रकृति के साथ समरसता के भाव के कारण 'मैं' का अभिमान नहीं रहा और पर्यावरण भी शुद्ध रहा।नदियां देवी स्वरूपा तो पहाड़ो में पितृ दर्शन करने की परंपरा रही है,भारत भूमि वो भूमि है जिसपर पैर रखने की विवशता के लिए प्रातः सबसे पहले भारतीय धरती माँ को छूकर क्षमा याचना करते हैं।एक ओर जहाँ विश्व भर में मनुष्य आत्मकेंद्रित होकर खुद में सिमटता जा रहा है वहीं दूसरी ओर भारतीय मूक पशुओं पर भी स्नेह लुटा रहे हैं।जड़ और चेतन के प्रति समरसता का भाव आज भी महत्वपूर्ण है।भारत में महानगरीय संस्कृति को छोड़कर गाँवों में आज भी पशुओं के लिए चारे पानी का व्यक्तिगत स्तर पर प्रबन्ध किया जाता है।गाँव जहाँ भारत की आत्मा बसती है आज भी जीवन मूल्यों से समृद्ध हैं।गाँवों कस्बों में आज भी पहली रोटी गाय के लिए निकाली जाती है।गाय को माता की तरह पूजा जाता है।गाय के अलावा गली के कुत्ते,बिल्ली,बैल,तोते,चिड़िया बुलबुल और भी न जाने किस किस के लिए दाना पानी का नियमित तौर पर प्रबंध किए जाने की परंपरा रही है।पशु पक्षियों में भी इंसानों के लिए आत्मीयता के भाव विकसित हो जाते हैं।गाँवो में छोटे बच्चे तक पशु पक्षियों के साथ निडर होकर रहते हैं।सहचर्य की ये भावना भारतीय जीवन मूल्यों की ही देन है।इन दिनों सारा विश्व महामारी के प्रकोप से जूझ रहा है।सुरक्षा के लिहाज से तालाबंदी के कारण पशु पक्षियों को भी पहले जितना दाना पानी नहीं मिल पा रहा।आवागमन बंद होने से कस्बों के आसपास के छोटे मोटे तीर्थ स्थलों पर भी यही समस्या देखने को मिल रही है।तीर्थ स्थलों को अगर पशु पक्षियों की प्राकृतिक शरण स्थली कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।भारत में मौजूद लगभग हर तीर्थ स्थल पर बंदर,गायें, कुत्ते एंव अन्य जीव जंतु निर्भीक होकर वास करते हैं।वहाँ जाने वाला हर व्यक्ति ईश्वर के प्राकृतिक स्वरूप में उन जीवों को देखता है,उन्हें खाने पीने की सामग्री से पोषित करता है।इसके पीछे धर्म कर्म की भावना है या निरीह पशु पक्षियों के प्रति प्रेम जो भी है मनुष्य समाज के हित में है,जीवन मूल्यों के संरक्षण के हित में है।अभी हाल ही में विश्वव्यापी महामारी के दौरान हुई तालाबंदी पर अपना व्यक्तिगत अनुभव साझा कर रही हूँ।अपने पैतृक कस्बे में परिवार के साथ पास ही के एक रमणीय तीर्थ स्थल पर जाना हुआ।चूँकि परिवार में लंबे समय से ये परम्परा रही है कि सप्ताह में कम से कम एक बार जाकर पशु पक्षियों को भोजन दिया जाये।स्थल ज्यादा दूर नहीं है कस्बे से अतः ये परम्परा तालाबंदी में भी जारी रही।वहाँ बड़ी तादाद में बंदरों का वृहत समूह काफी समय से रह रहा है।बन्दर भी स्थानीय लोगों से काफी हिलमिल गए हैं अतः कोई हानि नहीं पहुंचाते।गाड़ी में लगभग तीस दर्जन केले भरकर हम लोग पहुँचे।गाड़ी से बाहर कदम रखते ही बंदरों नें घेरना शुरू कर दिया, वो जैसे आहट पहचान लेते हैं।इतना बड़ी संख्या में बंदर देखकर मुझे डर लगा और मैं पुनः गाड़ी के अंदर जाकर बैठ गई लेकिन मेरा अनुज वहीं रुक गया।उसकी आँखों में या हावभाव में लेशमात्र भी डर नहीं था।बड़े ही प्यार से एक एक कर सभी बंदरो को अपने हाथों से केले दे रहा था।बंदर भी बहुत उत्साहित थे।तभी समूह में से एक बंदर नें भाई की ओर गुस्से में देखा और आक्रमण की मुद्रा में झपटा लेकिन ठीक उसी वक्त बाकी बंदर उसे दूसरी तरफ ले गए मानो समझा रहे हों कि ये क्या कर रहा है,जो हमारे लिए खाना लेकर आया है उसी पर संदेह! कुछ ही देर में सब कुछ पहले जैसा हो गया वो गुस्सैल बंदर चुपचाप आकर पास में बैठ गया।दूर बैठे मैं इस रोचक नज़ारे को आश्चर्य भाव से देख रही थी।पशुओं में भी कितनी समझ और सहृदयता होती है वो नजदीक जाने से ही ज्ञात होती है।
कोरोना काल में ही भारत में घटित हुई एक और घटना नें हर भारतीय को अंदर तक झकझोर कर रख दिया।केरल में स्थानीय लोगों द्वारा महज व्यावसायिक लाभ के लिए एक गर्भवती हथिनी की निर्मम हत्या की गई।इस घटना को भारतीय मूल्यों के अपघटन के रूप में भी देखा जा रहा है।लेकिन जिस तरह चारों ओर आक्रोश के स्वर सुनाई दे रहे थे,हत्यारों को कड़ा दंड देने की मुहिम चलाई जा रही थी उसे देखकर यही लगता है भारतीय जीवन मूल्यों का अपघटन इतना भी सरल नहीं।मानवता बची हुई है और आगे भी जारी रहेगी।
कोरोना काल में ही जहाँ एक ओर सारा विश्व तालाबंदी की समस्या से परेशान होकर अवसाद ग्रस्त होता जा रहा है वहीं दूसरी ओर भारतीय इस दौर में भी परिवार के साथ स्मरणीय समय व्यतीत कर परम्परागत जीवन मूल्यों का निर्वाह कर रहे हैं।एक बार पुनः हमनें पश्चिमी अंधी दौड़ से बाहर निकलकर खुद को जीवन मूल्यों से संवारा है।संयुक्त परिवार के महत्व को समझा है।
वर्तमान की अनेकों समस्याओं का निदान हमारे प्राचीन भारतीय मूल्यों में निहित है।लेकिन हमारे साथ समस्या है कि जब तक उस पर पश्चिम की मोहर नहीं लग जाती हम मानते ही नहीं ! भारत में जन्मी योग पद्धति आज संपूर्ण विश्व में जानी और मानी जा रही है।सूर्योदय से पहले उठना भारतीय मूल्यों में आदिकाल से निहित है।जिस तरह सुबह सुबह हमें यातायात घनीभूत नहीं मिलता और अगर इंटरनेट पर भी कुछ आवश्यक कार्य बिना किसी गतिरोध के करना हो तो सुबह का समय ही उपयुक्त होता है, उसी तरह सुबह सुबह विचारों का आवागमन भी बिना किसी अवरोध के सुचारू रहता है।सकारात्मक तरंगें वातावरण में विद्यमान रहती हैं जिसका लाभ प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में ही लिया जा सकता है।ये परिपाटी प्राचीन ऋषि मुनियों के समय से चली आ रही है।आज सारे विश्व में कोरोना की वजह से शारीरिक स्वच्छता पर बल दिया जा रहा है लेकिन ये भी सदियों से हमारे जीवन मूल्यों का ही एक हिस्सा रहा है।हमारे यहाँ घरों में प्रवेश से पहले बाहर ही हाथ मुँह धोकर आने की परंपरा रही है जो आज तक कायम है।आज टीवी पर कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है।उसपर नेटफ्लिक्स जैसे वैब चैनल नें तो मनोरंजन की सारी अवधारणाएं ही बदल दी।ऐसे में दूरदर्शन पर किसी कार्यक्रम के दर्शन की कल्पना करना भी बेकार लगता है लेकिन फिर भी चौंकाने वाली बात है हाल ही में लॉक डाउन के दौरान दूरदर्शन पर प्रसारित पुराने धारावाहिकों समेत रामायण को बड़ी तादाद में सपरिवार देखा गया।एक सर्वे के मुताबिक लगभग आठ करोड़ लोगों ने इसका प्रसारण देखा।इसमें कोई हैरानी नहीं कि हमारे जीवन मूल्य लोककथाओं एंव कहानियों के माध्यम से आज भी हमारी आत्मा से गहरे जुड़े हुए हैं।प्रगतिशील होने के साथ साथ जीवन मूल्यों को न केवल श्रद्धा भाव से देखा जाना चाहिए अपितु जीवन में उतारा भी जाना चाहिए,तभी जीवन मूल्यों की रक्षा संभव है।

अल्पना नागर

कागज़ कलम और स्याही

कागज़ कलम और स्याही
💐💐💐

देखा है कभी ! !
मामूली सी दिखने वाली
कागज कलम और स्याही की ताकत!
जब लग जाती है स्याही
लोकतंत्र की ऊँगली पर
मायने बदल जाते हैं
सत्ता के..!
कई बार यूँ भी होता है
लोकतंत्र की ऊँगली से छिटक
स्याही जा पहुँचती है
किसी उन्मादी के
प्रभामण्डल तक..
आक्रोश के छींटे बिखरे होते हैं
बगुला भगत से भी सफ़ेद झक्क
किसी खादी वस्त्र पर..
और यकायक बदल जाते हैं
मायने लोकतंत्र के रंगों के...!
इन दिनों
देश काल और परिस्थितिवश
रुग्ण हो चुकी है कलम..
स्याही में पानी का समावेश ज्यादा है !
देखा गया है कि
कागज पर भी
हो जाते हैं अक्षर
पानी पानी..!
फल फूल रही है दिनों दिन
अमर बेल सी
रीढ़ विहीन
छद्म निरपेक्षता,
दबाव इतना कि
झुक गई है कलम की रीढ़
लेकिन टूटी नहीं..!
आज भी इतना तो दम है कि
खौफ खाते हैं इनसे
खूँखार नरभक्षी भी..!
कभी उड़ा देते हैं
कागज और कलम
बम धमाके से तो
कभी ठोक देते हैं
गोलियां मस्तिष्क के बीचों बीच,
कमाल है मगर
फिर भी
चीथड़े हुए
उन्हीं पन्नों की राख से
जन्म लेती हैं
बार बार
'फिनिक्स' की तरह
जाने कितनी
मलाला,गालिजिया और
गौरी लंकेश..!!

अल्पना नागर
#fetterfreewriting

Saturday 27 June 2020

दो ध्रुवीय जिंदगी

दो ध्रुवीय जिंदगी

अतीत की गलियों में गुम
एक परछाई
आजकल ढूंढ़ रही है
अपना अस्तित्व..!
हाथ पैर सही सलामत
मगर धड़ का कुछ पता नहीं..
सीने में धड़क रहा है कुछ
धौंकनी जैसा..
अभी कुछ सालों तक
पारदर्शी था सब
दिखती थी धौंकनी की नीली नसें तक
मगर अब मोटी परत छा चुकी है..
किस चीज की !
उसे पता नहीं..!!
गोया कि सब पहुँचता है उसके कानों तक
मगर बोलने के वक्त
अटक जाता है हलक में कुछ ..!
बस भारी लगता है सब
जैसे पत्थर रख दिया हो
दस किलो का..!
उसकी कलाइयों में घड़ी है
मगर समय क्या हुआ,
उसे पता नहीं..!
किसी नें छींटाकशी की और
भीग गई वो सर से पाँव तक..!
कैंटीन में सुलगती सिगरेट का
आखिरी कश था या
टेढ़ी टिप्पणी का टुकड़ा कोई
वो चुपचाप जूतों तले दबा गई
तब तक जब तक
कचूमर नहीं निकल गया..!
ठीक पाँच बजकर तीस मिनट पर
ऑफिस की घड़ी उसकी
बेसुध चेतना पर छींटे डालती है..
वो निकलती है पर्स उठाकर..
सब कुछ ले लिया है उसने
बस अपना धड़ छोड़ आयी है
टेबल की दराज में..!
रास्ते भर आसमान का
गहरा धुँआ भीतर तक सोखकर
वो रेंगती हुई
आती है वहीं जिसे दुनिया
'घर' कहती है..!
जूतों के तलवे में ऑफिस से ही
चिपका हुआ है
च्यूइंगम जैसा कुछ..
बाहर पायदान पर छोड़ने थे जूते
मगर वो अंदर ले आयी है..!
खिड़कियों पर लगे परदों पर
मकड़ियां कर रही हैं
कानाफूसी..
सोफ़े के कोने अटे पड़े हैं
माजी की धूल से..!
आईने में खड़ा अक्स कौन है,
दिख नहीं पा रहा,
धुँआ धुँआ उड़ रही है
पहचान किसी की..!
कालीन के नीचे अटकी पड़ी है
पिछले हफ्ते वाली
बेहिसाब हँसी की गूँज..!
आज थकी हुई है वो
शायद नींद आ जाये..
बिस्तर पर पड़ी है पेट के बल
आधे रीढ़ की हड्डी शायद
चुरा ले गया कोई..!
रात के गहराने के साथ ही
गहराता जा रहा है
बिस्तर पर पड़ा काला विवर..
वो धँसती चली जा रही है भीतर तक
बिल्कुल उसकी आँखों के
काले घेरे जितनी..!
दो ध्रुवों में बँटी जिंदगी
नीरव अंधियारे में तलाश रही हैं
एक टुकड़ा नींद..!
नींद टंगी हुई है
वोन गॉग की तस्वीर के हुक में..!
तस्वीर जिसकी धूल झाड़ना
भूल जाती है वो रोज..!
वो जानती है
हुक कमजोर है
ज्यादा दिन झेल नहीं पायेगा
इकट्ठी नींद का वजन..!

अल्पना नागर
#bipolar disorder #itisokay



दो ध्रुवीय जिंदगी :भाग -2

जानती हो
तुम कितनी ख़ास हो..!
जिंदगी के बेहद करीब हो
फिर भी न जाने क्यूँ
हर वक्त उदास हो..!
बंद करो
खुद को दोष देना
आईने पर ऊँगली से
टेढ़ा मेढा कुछ भी लिखना..!
धूल तुम्हारे चेहरे पर नहीं
आईने पर है
जरा ध्यान देना..!
तुम्हारे रहते
क्यूँ करें मकड़ियां
कानाफूसी..!
परदों पर जमी गर्द उतारो
या बदल डालो इन्हें..!
घूम आओ बेशक सारा जहां
मगर लौटते वक्त
जूतों के तले चिपकी
कुंठा की गंद छोड़ आओ
बाहर पायदान पर ही..!
कालीन के नीचे जमा
हफ़्तों पहले की हँसी को
झाड़ दो आज
कर दो आज़ाद..!
नींद की गोलियों को
मार दो गोली
और कर लो थोड़ा
अपनों संग
हँसी ठिठोली..!
बिस्तर पर पड़ी
उनींदी सलवटों में
यूँ न जाया करो भविष्य को,
जिंदगी है तुम्हारी अपनी है..
धड़कने दो इसे धड़ल्ले से
उन चार लोगों की टिप्पणी से
खुद को न जलाया करो.!
ध्रूवों में विभाजित है आज
हर दूसरा शख्स..
ये जान लो
विकार तुममें नहीं,
तुम्हे महसूस कराने वालों में है..!

अल्पना नागर
#bipolar disorder #itisokay









Wednesday 24 June 2020

हरी दूब के सपने

हरी दूब के सपने

इन दिनों
जैसे सपने देख रही हूँ
कलकल बहती नदी का..
निरे रेगिस्तान पर औंधे पड़े हुए
तपती दुपहरी ओढ़
बसंत का स्वांग रच रही हूँ !
दूर दूर तक उड़ती हुई
रेत ही रेत
जैसे उड़ रहा हो
मरुधर के काँधे पर 
धरा उत्तरीय..!
ऐसा नहीं है कि
घुप्प वीरानी छाई है..
कहीं कहीं दिख जाते हैं
'सोशल डिस्टेंसिंग' का
पालन करते हुए
खेजड़ी,कीकर और कैर !
इस बीच
समय को गच्चा दे
लगी हुई हूँ निरंतर कि
कुछ करूँ 'क्रिएटिव'
कहीं खोज लाऊं
भीतर दबी
हरी दूब कोई..!
लेकिन दूब के नाम पर
देखती हूँ
अपनी हथेलियों पर उगी
नागफनी !
खैर!रेगिस्तान में ऐसी
कपोल कल्पित कल्पनाओं को
कोई हक नहीं जन्मने का..!
आसमान जैसे भेज रहा है
बारी बारी से
चाँद और सूरज को कि
खींच लाये
तीनों पहर
अलग अलग कोणों से
हम जैसे शिथिल प्राणियों की
नई नई तस्वीरें..!
वो बाकायदा लगे हुए हैं दिन रात
किसी घुमंतू खोजी पत्रकार की तरह !
ये निरा रेगिस्तान है..
चाहे खींच लो
किसी भी एंगल से तस्वीरें..
चाहे लपेट लो
अपने चारों ओर
घना अँधेरा..
निगेटिव अंत तक 'निगेटिव' ही रहेगा !
उसमें भरे रंग वैसे ही उड़ जायेंगे
जैसे कड़ी धूप में पानी..!
चाहे कहो इसे पागलपन
मेरी आँखों में अभी भी
दिख जायेगी
उड़ती हुई नदी..!
किसे पता
ये मौसम बदल जाये
रेगिस्तान समंदर हो जाये
आत्मीयता के बादल फिर से छाए !
नागफनी हरी दूब बन जाये,
सवांद के बीच कोई
अहम का मास्क न आये..!
मिलेंगे दोस्त
जरूर मिलेंगे
बदल जाने दो मौसम भी
तुम्हारी आत्मीयता की तरह..!
चाय की पुरानी थड़ियों पर
इत्मीनान की चुस्कियों के साथ
जरूर मिलेंगे
लेकिन देखना
कहीं कुछ बदला हुआ न मिले
संवाद की पहल में
चाय न खत्म हो जाये..!
सवाल है
कौन करेगा पहला संवाद
कौनसी लिपि कौनसी भाषा में
लिपिबद्ध होगा
बदलता नया रिश्ता..!
कौन मिटायेगा दूरी के रेगिस्तान !
कौन ढूंढकर लायेगा
सूखी रेत से
आत्मीयता की नदी..!!

अल्पना नागर







Sunday 21 June 2020

नदी और नारी

नदी और नारी

क्षणिकाएं

(1)

नदी करती है
श्रृंगार
जब भी पड़ती है
प्रियतम
सूरज की नजर..
जगमगाने लगते हैं
उसकी देह पर जड़े
असंख्य सितारे..!
वो झूमती है
बलखाती है
लगने लगती है
नई नवेली दुल्हन
जब ओढ़ती है
सावन की ओढ़नी..!

(2)

उसकी कमर के मोड़ पर
नृत्य करती हैं दिशाएं..
वो जब बांधकर आती है
पैरों में
ऋतुओं के नुपूर..
आसमान झूमता है,
बरसता है संगीत
और देखते ही देखते
धानी हो उठता है
प्रकृति का आँचल..!

(3)
उसके अंदर भी
छिपी है
एक नदी..
चाहे नजर आती हो
बाहर से
अत्यंत शुष्क और
आधुनिका..!

(4)

वो नदी है
बांधकर रखोगे
तो भी देगी
सुविधाओं की सौगात !
मगर इतना भी
मत लो
सब्र का इम्तेहान
कि फट पड़े
उसके सब्र का बांध..!

(5)
वो जानती है हुनर
धारा के संग बहने का,
मीठी है मगर
मिलना है खारे सागर में
वो भी बिना शिकायत
नियति मानकर..!

(6)
फसलें झूम रही हैं
चख चुकी हैं
माँ के हाथ का दाना पानी..
नसों में दौड़ रहा है
उसके वात्सल्य का लहू,
जिंदा रहने को
बस इतना काफी है...!

(7)

भला उससे बेहतर
कौन जानेगा
गृह त्यागने और
कभी न लौट पाने का दुःख..!

(8)

कल देखा उसे
सूखकर काँटा हो गई
भुरभुरी रेत सी
विक्षिप्त की भाँति
इधर उधर उड़ती
अस्तित्व खोजती
एक नदी..!
अंतस में छुपी नमी
आज भी तलाश रही है
दो बूँद
नेह भरी बारिश ..!

(9)

नदी तलाश रहे थे
नगर..
नगर बस चुके!
अब नदी तलाश रही है
अपना घर..
किनारे पड़ी है
होकर बदरंग
किसे खबर
वो जाये किधर..!

(10)
वो चुपचाप बहती है
तुम ध्यान दो या न दो
मौन होकर भी वो अक्सर
बहुत कुछ कहती है..
तुम्हारे खुश्क व्यवहार पर भी
हरित करती जाती है
हर एक कोना..
जान डालती है
तुम्हारी बेजान दुनिया में..!
नदी है वो
समर्पण का सुख
जानती है..!
कभी गौर से सुनना उसे
हो सके तो
किनारे से नहीं
भीतर उतरकर..!

Alpana Nagar
#short poems

धूप पुकार रही है

धूप पुकार रही है

रात के बियाबान में
अक्सर ढूँढती हूँ वो आसमान
जो छूना चाहती थी कभी
पिता के कांधे पर बैठ,
कहानियों की घुड़सवारी कर
घूम आती थी
सारा संसार
पिता की आँखों से..!
वैसे ही जैसे
शिशिर में
आती है धूप
सूरज के कांधे पर बैठ,
हौले हौले
फिराती है
नरम शरारती उंगलियां
घने मेघों के बीच..!
पेड़ की फुनगियों पर
फुदकती
गिलहरी जैसी
एक टुकड़ा धूप कोई..!
कुछ अलग ही रंगत थी
उस आसमान की..
चटख रंगों से भरा,
टिमटिमाते
चाँद तारों से भरा
हीरों सजा थाल कोई..!
आसमान तो आज भी वही है,
मगर आह !
अब छूने का मन नहीं..!
शिशिर की
मुलायम धूप
बीत चुकी है..!
जेठ की तपती
दुपहरी ओढ़
खड़ी हूँ आज
ठीक उसी जगह पर,
महसूस कर रही हूँ कांधे पर
नन्हीं उंगलियों की छुअन
देख रही हूँ
उसी की आँखों में
शिशिर की धूप पुकार रही है...!

अल्पना नागर
#father's day


Friday 19 June 2020

अश्वमेध

अश्वमेध

यज्ञ संपूर्ण हो गए
युग परिवर्तित हो गए
किन्तु अभी भी
दौड़ रहे हैं
बदहवास
अश्वमेध
सीमाओं को तोड़कर..!
खुलेआम लांघते
समझौता..
कोई नहीं जीत सकता इन्हें,
इनके माथे पर टंगा है
'अजेय' पत्र
ये जिन्दा हैं युगों युगों से
साम्राज्य विस्तार का
चारा खाकर..
इन्हें दरकार नहीं
स्वतंत्र विचरण के लिए
चैत्र पूर्णिमा की !
कहीं ऊपर हैं ये
देश काल और परिस्थिति से..!
ये नई किस्म के
'अपडेटेड' अश्वमेध
न थकते हैं
न रुकते हैं
बस अनवरत विचरते हैं
जन मानस में
किसी आतंक के साए की तरह..!
ये मुक्त हैं
किसी भी तरह की
बलि प्रथा से..!
मगर हाँ,
एक बात तो है..
अश्वमेध किसी भी देश का हो,
आजकल
बलि चढ़ने वाला
जवान
हर जगह कमोबेश
एक ही होता है..!

अल्पना नागर







इन दिनों

इन दिनों

इन दिनों
भीतर मरुधर
बाहर मधुरस
खेल रही हूँ..

मौन पथ पर
भावों की
थिरकन,
अंकुरण की
तड़पन
देख रही हूँ..

वक्त की
राख में
आग और
अंगार,
'फीनिक्स' हुए
ख़्वाब
ढूंढ रही हूँ..

फटेहाल
जेब सी
'मंदी' के
इस दौर में,
सुकून के
चंद खनकते
सिक्के
टटोल रही हूँ..

कोरे पन्नों पर
शब्दों की
चहलकदमी
विचारों की
गहमागहमी
सुन रही हूँ..


घने कोहरे के
बीचोंबीच
नजर भर धूप की
अंगीठी लिए
चंद ख़्वाब
मकई के दानों सा
भुन रही हूँ

हाँ,सहमे से हैं
नए पत्ते,
मगर
पतझड़ी आँधियों में
वसंत की फुनगियों की
आहट सुन रही हूँ..!

अल्पना नागर
#इन दिनों

Thursday 18 June 2020

सूखे गुलाब

सूखे गुलाब

रहने दो जरा
सूखे गुलाब 
वक्त की किताबों में !
झाँकने भी दो
मुट्ठी भर धूप
अतीत के झरोखों से..
किसे खबर !
जीवन की साँझ में
पतझड़ी सायों के बीच
यूँ ही कभी
टहलते घूमते
मिल जाये 
एक टुकड़ा
धूप...
और
फूट पड़े
तुम में
गुलाब की
चंद
कलियां..!

अल्पना नागर
#memories


Tuesday 16 June 2020

ब्लैक होल

ब्लैक होल

कई तरह के होते हैं
'ब्लैक होल'..
एक वो जो
अनंत प्रकाश वर्ष दूर
ब्रह्मांड में आसीन हैं
किसी वयोवृद्ध सितारे के
'सुपरनोवा' अवशेषों पर बने
कृष्ण विवर..
जिनकी उपस्थिति मात्र
निगल जाती है
संपूर्ण प्रकाश..!
एक ऐसा गर्त
जो लील जाता है
समय की रफ़्तार तक..!
जिसमें समाहित होकर
प्रकाश भी भूल जाता है
अपना अस्तित्व
और रंग जाता है उसी के रंग में..!
मौजूद हैं
हमारे इर्द गिर्द भी
अनेकों
बहुआयामी
अदृश्य गर्त..
मन की कंदराओं में छुपे
किसी गोपनीय राज से गहरे
कृष्ण विवर..!
रात की स्याही में डूबे
स्याह अपराधों से भी गहरे
काले गड्ढे..
इतने गहरे कि
अँधेरा भी गश खाके गिर जाए..!
चुपचाप दबे पांव
घात लगाए बैठे
किसी मेंढक की तरह
वो तलाश में रहते हैं
कि दबोच सकें
कोई नवोदित विचार,
लील सकें
कोई प्रदीप्त सितारा,
मिटा दें नामोनिशान
किसी घटना का..
घटना जो कभी ले सकती थी
किसी क्रांति का रूप,
लेकिन अब चढ़ चुकी है
इन 'ब्लैक होल' की भेंट..!
बेहद मुश्किल है
इन्हें पहचान पाना,
न दिन के प्रकाश में
न रात के अंधकार में..
प्रकाश ये टिकने नहीं देते,
और अँधेरा...?
अँधेरा इनका सुरक्षा कवच है..!
बेहतर है
बचाया जाए
अस्तित्व को
किसी भी
'गुरुत्व' आकर्षण से !
ताकि
जाने न पाए
गर्त में
फिर कोई
प्रदीप्त सितारा...!

अल्पना नागर
#RIPSUSHANT#

Monday 15 June 2020

माँ

माँ पर कविता

कभी लिख नहीं पाई
माँ पर कविता
नहीं जानती
आखिर किस तरह
समेटूं उसे शब्दों में!
वो जिसने शताब्दियों से
समेट कर रखा खुद को
ताकि विस्तार पा सके
उसकी संतति..
कभी देखा नहीं उसे
दो घड़ी सुस्ताते हुए,
वो मंद क़दमों से
चलती है निरन्तर
अपनी धुरी पर..
घड़ी की तीनों सुइयां बन
बाँध लेती है
समय की चाल को..
माँ जैसे
बांधकर रखती है
पैरों में
ऋतुओं के नुपूर..
छम छम ध्वनि कर
बरसती है
नेह भरी
दुआओं सी..!
वो जो एक युग से
बंद गुफाओं में
हवा,पानी या प्रकाश की
अनुपस्थिति में भी
पनप आती है
किसी हरित शैवाल की भाँति,
माँ वो है जो
पिता से हुई तकरार को
अक्सर बाँध लेती है
अपने जुड़े में,
वो जो देहरी से ही
बुहार देती है
बुरी बलाओं को,
समर्पण की अलगनी पर
सुखा आती है
नम हुए रिश्ते,
माँ वो है जो
गुँथ जाती है कुटुम्ब में
आटे की भाँति एकमेक,
जिम्मेदारियों के तवे पर
सेंकती है सोंधी रोटियां..
जिंदगी की तपती छत पर
स्वाद के आयाम रचती
पापड़,बड़ियां और मुरब्बा है माँ,
बड़े जतन से
सहेज कर रखती है
परम्पराओं और मान्यताओं को
अचार के मर्तबान में,
जाने कितने युगों से
बिछाकर रखा है माँ नें खुद को
उन मर्तबानों में
तेल की परत सा
कि कहीं लग न पाए
समय की फफूंदी कोई...!
माँ हड़प्पा की वही मृण्मूर्ति है
जिसकी कोख से
निकल रहा था नन्हा पौधा..
सभ्यता विलुप्त हो गई
लेकिन कोख से निकली सृष्टि
निरंतर है आज भी..!
माँ वो है जो
समेटे हुए है एकसाथ
धूप की उष्णता और
जल की नमी को खुद में,
लेकिन फिर भी संतुलित है..!
माँ वो लिपि है
जिसे समझने के लिए
जरूरत नहीं अक्षर ज्ञान की,
मैं उसकी समीक्षा करूँ भी तो क्या
जिसने रच डाला
संपूर्ण ब्रह्मांड..
जो व्यापक है
तुझमें मुझमें
हर कण में...!
एक कालजयी रचनाकार है माँ..!

अल्पना नागर

#mother

Sunday 14 June 2020

वमन

वमन

चिपचिपे मौसम का दौर है
हर एक के बादल नम हैं
अँधेरा घना है,
बढे हुए तापमान का
न दिखता कोई छोर है
घटाएं बोझिल हैं,
घनघोर हैं
बस बरसती नहीं...
कहीं किसी कोने में
चुपके से गर
बरस भी जाये
तो दिखती नहीं
आँखें हैं सभी के पास
बस नजर भर समय नहीं..!
इससे पहले कि
कोई बोझिल हुआ बादल
फट पड़े यकायक
और बहा ले जाए
समूचे दौर को,
बरसने दो खुद को
हौले हौले
मत डरो भीग जाने से !
इससे पहले कि
धड़कनों की टेढ़ी मेढ़ी लाइनें
बदल जाएँ
आईसीयू की
सीधी लाइन में..
बदल डालो
अपनी हथेलियों में
छिपी कर्म की लकीरों को..!
उड़ेल डालो खुद को
जिंदगी के पन्नों पर,
किसी अपने के काँधे पर
खाली कर दो खुद को,
इससे पहले कि
अंदर का खालीपन
खोखला कर दे वजूद को,
बदल जाये
विषाक्त संताप में,
मेरे मित्र
वमन कर दो
वमन कर दो..!

अल्पना नागर



आलेख

वैश्विक समाज और सांस्कृतिक परिवर्तन

किसी भी देश की संस्कृति उसमें निहित परम्पराओं के माध्यम से परिलक्षित होती है।परम्पराएं वो जो लंबे समय से चली आ रही हैं।किसी देश की धरा में उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं इस बात का पता वहाँ के सांस्कृतिक मूल्यों से चलता है।अभी बात चल रही है वैश्विक समाज और उसमें आये सांस्कृतिक परिवर्तनों की।इसके लिए सबसे पहले इस बात को समझना होगा कि क्या संपूर्ण विश्व में बुनियादी बदलाव आ रहे हैं?ऊपरी तौर पर ये तो बिल्कुल स्पष्ट है कि हमारे भौतिक पर्यावरण से लेकर जलवायु तक बेहिसाब परिवर्तन आये हैं,पर क्या सांस्कृतिक जीवन भी बदल रहा है!वैश्विक समाज के मूल्यों में परिवर्तन आ रहा है या नहीं?जवाब है,हाँ।हम तेजी से विश्व की संस्कृतियों को ग्रहण करते जा रहे हैं।विश्व के अन्य देशों में भी सांस्कृतिक बदलाव हुए हैं।हमारी शिक्षा पद्धति से लेकर गीत संगीत,नृत्य शैली,भाषा,जीवन मूल्य आदि सभी संस्कृति की आत्मा कही जाने वाली मूलभूत विशेषताओं में विश्व की सांस्कृतिक गंध घुलती मिलती नजर आ रही है।इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि हमनें आधुनिक जीवन शैली और आचरण पश्चिम से ग्रहण किया है।हमारे जीवन में विद्यमान वर्तमान सुख सुविधाओं के लिए हम पश्चिम के आभारी हैं।निस्संदेह इक्कीसवीं सदी चकाचौंध से भरी गहनतम अँधेरी रात है,वो रात जिसे हम तेज रोशनी के कारण देख नहीं पा रहे।हमें सुख सुविधाएं मिली।हमारी जीवन शैली में गुणात्मक परिवर्तन हुए लेकिन हम सुविधाओं के गुलाम होते चले गए।कई बार लगता है हम सुविधाएं नहीं भोग रहे बल्कि सुविधाएं हमें भोग रही है!ये बात विचारणीय है,आज हमारे पास इतनी अधिक सुविधाएं एकत्रित हो गई हैं कि उन्हें भोगने के लिए न तो वो आनंद ही शेष रहा है और न ही समय।अभी कुछ ही दशक पहले की बात है जब आर्थिक रूप से हर नागरिक उतना अधिक समृद्ध नहीं था जितना आज है लेकिन हमारी आंतरिक ख़ुशी का स्तर समृद्ध था।आज स्थिति बदल गई है।ये वैश्विक सांस्कृतिक परिवर्तन का ही परिणाम है।आज हम भूल गए हैं कि बीसवीं सदी में कोई विवेकानंद नामक युवा विचारक थे जिन्होंने न केवल भारत अपितु संपूर्ण विश्व में हमारे प्राचीन मूल्यों व सांस्कृतिक विरासत की ध्वजा फहराई थी।वो मूल्य जिनके लिए आज भी विश्व भारत को सम्मान भरी दृष्टि से देखता है।ये विडंबना ही है कि आज संपूर्ण विश्व में हमारे प्राचीन मूल्यों को पूरे हृदय के साथ अपनाया जा रहा है,हमारी सांस्कृतिक धरोहर वेद,पुराणों एंव अन्य ग्रंथो का वृहत स्तर पर अध्ययन किया जा रहा है और हम पश्चिम की ओर भाग रहे हैं।खुलेआम मूल्यों का अवमूल्यन कर रहे हैं।मसलन वर्तमान में लिव इन रिलेशनशिप का चलन चल रहा है,जो न केवल हमारे विवाह संस्कार को चुनौती है अपितु रिश्तों में आयी दरार का भी मुख्य कारक बनता जा रहा है।इससे विवाहेत्तर संबंधों को भी खुली छूट मिली है।निश्चित रूप से ये हमारे जीवन मूल्य नहीं हैं वरन उनपर कुठाराघात है।इसके अलावा समलैंगिक विवाह भी परिवर्तित वैश्विक संस्कृति का ही परिणाम है।संयुक्त परिवारों का बिखराव और वृद्धों का तिरस्कार इसी सांस्कृतिक परिवर्तन से संबद्ध है।महानगरीय फ़्लैट संस्कृति नें भावनाएं भी 'फ़्लैट' कर दी हैं।समाज व्यक्ति केंद्रित होता जा रहा है।सामाजिकता वन्य जीवों की तरह दुर्लभ होती जा रही है।वर्तमान में विश्वव्यापी महामारी नें इस नए 'ट्रेंड' पर अपनी मुहर भी लगा दी।अब व्यक्ति और भी अधिक आत्मकेंद्रित होता जा रहा है।संपूर्ण विश्व डिजिटल होता जा रहा है।इंटरनेट सेवा नें लोगों के आचार विचारों में व्यापक परिवर्तन किया है।अब विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना से आप तुरंत रूबरू हो सकते हैं,विश्व और आप में महज उँगली भर का फासला रह गया है।सांस्कृतिक परिवर्तन में इंटरनेट सेवा नें काफी इजाफा किया है।कुछ दशक पूर्व तक मनोरंजन के साधन बेहद साधारण किन्तु अपने आप में विशेष थे।समाज में नौटंकी,सर्कस, रंगमंच,नुक्कड़ नाटक,ख्याल आदि के माध्यम से मनोरंजन होता था,लोग एक दूसरे से जुड़ते थे,प्रत्यक्ष रूप से आमने सामने मिलते थे।बच्चों में भी चौपड़ पासा,गिल्ली डंडा,छुपन छुपाई जैसे खेल प्रचलित थे जिनसे न केवल शरीर स्वस्थ रहता था अपितु मानसिक स्वास्थ्य भी दुरुस्त रहता था।टीवी पर भी इक्के दुक्के कार्टून या बालसुलभ कार्यक्रम होते थे जिन्हें देखने के लिए बच्चों में एक अलग ही उत्साह होता था लेकिन चूंकि अब सांस्कृतिक परिवर्तनों की बाढ़ आ गई है,इंटरनेट भी बेहिसाब मनोरंजन के कार्यक्रमों से भर गया है।टीवी चैनलों पर एक से एक दुनिया भर के बाल मनोरंजन के कार्यक्रम मौजूद हैं लेकिन बच्चों का वो उत्साह कहाँ गया! वो आंतरिक प्रसन्नता कहाँ गई !आज का मनोरंजन मन का रंजन नहीं कर पाता उसमें एक कृत्रिमता आ गई है।सब कुछ इतना आसानी से उपलब्ध है कि कोई उत्साह,कोई प्रतीक्षा बची ही नहीं!अजीब बात है,हम सुविधाओं में जितना आगे आये,संतुष्टि में उतना ही पीछे होते गए! आज के बेहद व्यस्त माता पिता भी अपना समय बचाने के लिए बच्चे के हाथ में मोबाइल पकड़ा देते हैं।बच्चा भी एक मशीन की तरह उठते बैठते हर हाल में मोबाइल या इंटरनेट पर कोई खेल चाहता है।
वैश्विक आर्थिक व सांस्कृतिक परिवर्तनों के कारण मानव जाति नें विकास अवश्य किया है लेकिन उसके लिए बहुत बड़ी कीमत भी चुकाई है।पश्चिम का अंधानुकरण करके अकूत सम्पदा एकत्रित कर ली किन्तु फिर भी एक अरसे से आत्मा पर चिपकी हुई दरिद्रता से मुक्त नहीं हो पाए।हमनें देखा कि पश्चिमी लोग मुक्त जीवन जीते हैं,उनकी जीवन शैली आरामदायक और वैभव से परिपूर्ण है लेकिन ये नहीं देखा कि इसके पीछे कितने वर्षों की मेहनत और संघर्ष छुपा है।आज हम देखते हैं कि स्टीव जॉब्स या मार्क जुकरबर्ग बाकी दुनिया से भिन्न क्यों हैं!उन्होंने वर्तमान युग की सारी परिभाषाएं ही बदल डाली।एक अकेला इंसान किस तरह पूरी सदी को अपनी परिधि में ले आता है! ऐसा कैसे संभव है! हम ये सब सोचते रह जाते हैं और वो कुछ नया कर गुजरते हैं।हम सफलता के पीछे भागते हैं,बिना ये परवाह किये कि जो कार्य हम करने जा रहे हैं वो कितना सार्थक है।सफल लोगों नें सफलता को अपना लक्ष्य नहीं बनाया,सच कहें तो उन्होंने परवाह ही नहीं की,उन्होंने संपत्ति बनाने का भी लक्ष्य दिमाग में नहीं रखा, और न ही संसार को बदल देना उनका मिशन रहा,जैसा कि हम सफलता की परिभाषाएं गढ़ते आये हैं उन्होंने कुछ भी वैसा नहीं किया।समाज के बने बनाये फ्रेम से बाहर आकर अपने मन की सुनी,उसके पीछे पीछे चलते गए वो भी पूरे आनंद के साथ,उन्होंने कुछ करने की ठानी,भीड़ से हटकर अपना सार्थक अस्तित्व खड़ा करने का प्रयास भर किया और सफलता खुद ही उनके पास चली आई।सांस्कृतिक परिवर्तन एक दिन का कार्य नहीं है।वर्षों की साधना है।अगर ये सकारात्मक सोच को लेकर की जाये तो दुनिया वैसी ही नजर आएगी,ख़ूबसूरती से बदली हुई।
आज हम जिस राह पर खड़े हैं ,दुर्भाग्य से वहाँ से कोई राह नहीं निकलती।मानव अपने संघर्ष के आखिरी चरण में है।वो जिस तरह अपना जीवन व्यतीत कर रहा है उसे देखकर यही लगता है कि मानव स्वयं अपना अस्तित्व मिटा देना चाहता है।किसी महान विचारक नें कहा भी है कि"अब तक दो विश्वयुद्ध हो चुके हैं लेकिन अगर तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो आगामी युद्ध पत्थरों से लड़े जाएंगे।"समझदार को इशारा काफी है।तीसरा विश्वयुद्ध अगर हुआ तो इतना विनाशकारी होगा कि मानवता बचेगी ही नहीं।एक बार पुनः आदिम युग की उत्पत्ति होगी।अब यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह अपना अस्तित्व बचाये रखना चाहता भी है या नहीं! यदि जवाब हाँ है तो जीवन शैली और व्यवस्था में वृहत स्तर पर परिवर्तन करने होंगे।हमें बुद्धिमता से साधन चयन करने होंगे,वो चयन ही मानव के अस्तित्व के दिन निर्धारित करेगा।अब तय यह करना है कि विकास किस हद तक आवश्यक है।विज्ञान की अंधाधुंध प्रगति आवश्यक है या उसका सार्थक उपयोग! सांस्कृतिक परिवर्तन निर्धारित करेंगे कि एक अकेले राष्ट्र का उत्थान आवश्यक है या समूची मानव प्रजाति! लाभ जरुरी है या सामूहिक हित।वर्तमान में सारा विश्व एक अजीब से झंझावात से गुजर रहा है।महामारी के रूप में हमारी आधुनिक जीवन शैली हमें ही डस रही है।कयास लगाये जा रहे हैं कि इस विश्वव्यापी विनाश के पीछे किसी राष्ट्र की सोची समझी साजिश है,महामारी एक तरह का जैविक हथियार बना कर फैलाई गई है।ये अभी शोध का विषय है।आरोप प्रत्यारोप साबित होने तक कोई भी अनुमान व्यर्थ हैं।लेकिन इस विषय में सोचकर ही रूह कांप जाती है कहीं सचमुच इस तरह के युद्ध होने लगे तो क्या शेष बचेगा!हर राष्ट्र नें अपनी सुरक्षा के लिए इस तरह के जैविक और रासायनिक हथियार ईजाद किये हुए हैं।खैर,सारी दुनिया के विचारक और प्रबुद्ध वर्ग इसी प्रयास में लगे हुए हैं कि ऐसी नौबत न आये।इसीलिए सांस्कृतिक परिवर्तनों को सकारात्मक दिशा देने के प्रयास किये जा रहे हैं।
हमें डर और हिचक के साए से दूर रहकर नए प्रतिमान रचने होंगे।सार्थकता को अपना संगी बनाना होगा।हमें पश्चिम का अंध भक्त बनने से बचना होगा।वहाँ से बहुत सी अच्छी बातें सीखी जा सकती हैं।किसी भी कार्य के प्रति प्राणांतक लगन व एकाग्रता के साथ जुट जाना हमें पश्चिम से सीखना होगा।हमें व्यर्थ के जड़ तत्वों से स्वयं को मुक्त करना होगा,प्राचीन भारत के दर्शन और जीवन मूल्यों को एक बार पुनः रोशनी में लाना होगा उन्हें समुचित स्थान देना होगा।आधुनिक होना बुरा नहीं है,लेकिन आधुनिकता मूल्यवान और सार्थक होनी चाहिए।सभ्यता के जिस चरण में हम रह रहे हैं उसे एक अरसे पहले गाँधीजी नें मशीनी सभ्यता का नाम दिया था।पुरातन ग्रंथो में जिस युग की 'कलयुग' नाम से कल्पना की गई थी वो अपने अद्यतन रूप में हमारे सामने है।मानव सभ्यता द्वारा किये जा रहे उपभोग और विकास की लंबी यात्रा अब उस चरण में पहुँच चुकी है जहाँ से उसका संघर्ष किसी व्यक्ति,विचार या समाज से नहीं रह गया है अपितु अब उसकी सीढ़ी टक्कर स्वयं प्रकृति से है।ये दुःखद है कि अब तक मानव सभ्यता की विकास यात्रा को मनुष्य और प्रकृति के बीच संघर्ष से देखा गया है जिसमें मनुष्य नें प्रकृति पर विजय पाकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की।आदिम युग की मानव सभ्यता इतिहास बन चुकी है,प्रकृति से उसका संघर्ष उसके स्व अस्तित्व की रक्षा के लिए अनिवार्य था लेकिन आज जब आदिम युग के पन्ने पलट चुके हैं इंसान कई युग आगे निकल आया है तब भी उसके स्वयं के आत्मघाती क़दमों के कारण उसके अस्तित्व की रक्षा की अनिवार्यता महसूस की जा रही है।मनुष्य का प्रकृति से कोई संघर्ष नहीं हो सकता।मनुष्य और प्रकृति के बीच संघर्ष हो भी नहीं सकता।इंसान कभी प्रकृति से जीता नहीं,ये प्रकृति को देखने का गलत नजरिया है।इस बात को हम सीधे तौर पर इस तरह देख सकते हैं कि इंसानी सभ्यता का उद्भव प्रकृति की कंदराओं में हुआ लेकिन धीरे धीरे इंसानी बुद्धि हावी होने लगी।उसे विकास की जरुरत महसूस हुई और उसने स्वयं को प्रकृति से विलग कर लिया।एक समय ऐसा आया कि दोनों एक दूसरे से अजनबी ही गए।इंसान की उपलब्धियों में नए नए अविष्कार सुख सुविधाएं उपभोग की वस्तुएं जुड़ती चली गई वह प्रकृति से अंततः कटता चला गया।इस अलगाव नें इंसान की मूलभूत आत्मा को नष्ट कर दिया।प्रकृति से अलगाव पर इंसान को आखिर क्या मिला! देखा जाये तो कुछ नहीं,वह शनै शनै एकाकी आत्म केंद्रित और कुंठा ग्रस्त होता चला गया।अब समय आ गया है कि इंसान एक बार पुनः अपनी इस यात्रा पर चिंतन करे।यह न केवल इंसानी सभ्यता के लिए अपितु स्व अस्तित्व की रक्षा के लिए भी अपरिहार्य है।जरुरी नहीं कि इंसान इसके लिए अपनी अब तक की सभ्यता यात्रा को स्थगित करे या विनिष्ट करे।वह अपनी अब तक की उपलब्धियों के साथ भी आगे बढ़ सकता है लेकिन उसे तारतम्य बिठाना होगा प्रकृति और स्वयं के बीच ताकि टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो।मनुष्य अपने द्वारा बनाये जिन सांस्कृतिक परिवर्तनों के साथ खड़ा है उससे आगे का रास्ता बंद हो चुका है,उसे अंतिम सत्य की ओर लौटना होगा तभी सही मायने में विकास यात्रा संपूर्ण मानी जायेगी।

अल्पना नागर

Thursday 11 June 2020

वो जीवन्मृत

वो जीवन्मृत

पिता की गोद से छिटककर
वो निकल पड़ी थी
बहुत दूर
अपने सपनों के दूधिया पंख फैलाकर
सब कुछ कितना नया
कितना अलौकिक!
वो आज आजाद थी,
बेरोकटोक,
बेखयाली में आगे बढ़ती हुई..
उसकी कमर के मोड़
नृत्य की मुद्रा में
बेताब थे अपना हुनर दिखाने को,
उसकी अपनी गति थी
लय था,
उत्साह था,
भानू औ शशि की अनगिनत किरणें
गीत गाती थी
उसकी प्रशंसा के,
और देखते ही देखते
चमक उठती थी उसकी
दूधिया देह
जैसे जड़ दिए हों किसी नें
बेशकीमती जवाहरात
यत्र तत्र सर्वत्र,
नई आज़ादी के जश्न में वो
कर चुकी थी विस्मृत
अपने प्रिय पिता की चेतावनी को भी!
वो बढ़ती गई
अपनी धुन में,
अब वो पूर्णतः आजाद थी
अपने पिता की गोद से...
अपने सपनों के राजकुमार की
तलाश में थिरक रहे थे उसके कदम,
अंततः राजकुमार मिला!
अब इंद्रधनुषी सपनों में
भीगने लगे थे उसके
दूधिया डैने,
राजकुमार नें बाँध लिया था
उसकी अल्हड़ता को
अपने मोहपाश में,
राजकुमार नें कहा-
"देखो,तुम्हारे बंधकर रहने में ही
भलाई है सब की,
इसी में विकास है सबका
प्रिये!त्याग करना होगा तुम्हे..!"
मजबूर थी वो,
याद आती रही उसे
अपने पिता की सुरक्षित गोद,
आजाद होने की जद्दोजहद में
उसके शरीर का एक हिस्सा
बह चला था
एक नई दुनिया की तलाश में
नई दुनिया
दूर से चमकती हुई
उसे खींच रही थी अपनी ओर,
उसके चेहरे का तेज़
लौटने लगा था,
प्रवाहित होने लगा था उसमें
एक बार पुनः नया जीवन,
वो बेख़बर
हिस्सा होने जा रही थी
उस नई दुनिया का,
वो देख नहीं पाई
उसका स्वार्थी चेहरा,
नई दुनिया नें उसको
बना दिया अपनी
प्रयोगस्थली,
अब वो हो चुकी थी
बदरंग
ठीक उसी तरह
जैसे तेज़ाब से विकृत हुआ
किसी सुन्दर स्त्री का चेहरा!
वो नहीं समझ पा रही थी कि
कैसे उगल रही हैं आज
उसकी अपनी सांसें
जहर !
वही सांसें जो कभी आधार होती थी
प्राणिमात्र के जीवन का,
वो बहा रही है
अपनी दुर्दशा पर
आँसू
और हमें लगता है
बाढ़ आ गई !
जी,हां! वो कोई और नहीं
एक नदी है,
जीवन्मृत
जीवित मृतप्रायः नदी!
दूर खड़ा हिमपिता
प्रत्यक्षदर्शी है,
विचलित है हिमालय
अपनी आत्मजा की
दुर्दशा पर
और हमें लगता है
ग्लेशियर पिघल रहे हैं..!

अल्पना नागर




भूलने का सुख

आलेख
भूलने का सुख

भूल जाने का एक अलग ही सुख है।सुनकर थोड़ा अजीब लग रहा होगा..भला भूलने में क्या सुख! जी हाँ, सही सुना इसके फायदे ही फायदे हैं नुकसान कुछ नहीं।आज के हाईटेक ज़माने में सब कुछ इतना ज्यादा तेजी से घटित हो रहा है कि दिमाग चकरघन्नी हो जाये! हम अपने दिन की शुरुआत एक खाली अलमारी की तरह करते हैं,इक्की दुक्की चीजें रखी होती हैं वो भी व्यवस्थित तरीके से,लेकिन शाम होते होते इतना ज्यादा भर जाती है कि अलमारी खोलने का साहस ही नहीं होता! कारण उसमें ठूँस ठूँस कर भरे गए जबरदस्ती के विचार,किसी का भाले की तरह फेंका गया कटाक्ष, किसी का बेवजह अनदेखा करना तो किसी से यूँ ही हुई व्यर्थ की बहस! कई बार अलमारी इतनी बुरी तरह भर जाती है कि खोलने के साथ ही सारा कुछ दिन भर का इक्कट्ठा किया हुआ सामान यकायक आपके ऊपर! आपका अस्तित्व ऊपर से नीचे तक उन्हीं के नीचे दबा हुआ ! हमारा दिमाग भी कुछ ऐसा ही है अलमारी जैसा,हम चाहते हैं कि नया कुछ आ सके इसके लिए पुराने इक्कट्ठे किये कबाड़ को फेंकना होगा,मन पर पत्थर रखकर ही सही लेकिन करना होगा अन्यथा यही होगा,एक दिन सारा कबाड़ हमारे ही ऊपर!
हम लोग इतनी आसानी से कहाँ भूल पाते हैं चीजें! अगर गलती से किसी नें हमारी सल्तनत में हमारे खिलाफ गुस्ताखी कर दी तो हम क्रोधाग्नि में जलते रहते हैं न जाने कितने दिनों तक उस इंसान को नीचा दिखाने का अवसर तलाशते रहते हैं।सोशल मीडिया इसमें बहुत अच्छे से अपनी भूमिका निभा रहा है।लोग वक्त बेवक्त 'चेहरों की किताब' वाली अपनी 'भित्ति' को तरह तरह के आयुधों से सजाते रहते हैं,लगे रहते हैं भित्ति को मनमाफिक चित्रों से रंगने में..एक अलग ही किस्म का आनंद आता है जब भित्ति चित्रों के जरिये सामने वाले तक आपका तीर एकदम निशाने पर लग जाये! चाँदमारी युग है भई ! सभी लगे हुए हैं निशानेबाजी में..समय की कसौटी पर अपनी दक्षता को साधने में।इसी तरह एक और प्लेटफॉर्म है. ..उसमें काफी समय से 'स्टेटस' नाम का नया अध्याय जुड़ा हुआ है।यथा नाम तथा गुण ! वहाँ तो और भी जबरदस्त तरीके से शीत युद्ध के नए नए आयाम निकालकर आ रहे हैं।डिजिटल बाजार में बने बनाये एक से एक पोस्टर मिल जायेंगे चिपकाने को..रोज लगाइए...रोज सुकून पाइए ! पड़ोसन को नई साड़ी दिखाकर चिढाना हो या आपकी ताज़ातरीन खरीददारी का प्रदर्शन करना हो,या कहीं घूमकर आए हो..'स्टेटस' है न !चिपका दो,फिर सुलगते रहें लोग चाहे ! उद्देश्य सफल !
हम लोगों के साथ एक और समस्या है,भूलने का सुख अर्जित करें तो कैसे करें?भला भूल जाने के लिए भी कोई दान दक्षिणा करता है !फिर नाम अजर अमर कैसे होगा,चिंतनीय विषय है।छुटपन में देखा करती थी,शादी ब्याह में या किसी अवसर में भेंट मिली थाली कटोरियों पर भी देने वाले का नाम खुदा रहता था,कई बार मम्मी को पूछ पूछ कर कान पका डालती थी,ये नाम क्यूँ खुदे हैं..अब भला मम्मी क्या जवाब दे ! फिर थोड़ा बड़ी हुई तो पार्क आदि में बैठने की कुर्सियों पर भी नाम अंकित दिख जाता था..फलां सिंह नें इतने रूपये देकर सेवार्थ ये निर्माण कार्य कराया है..कभी मंदिर आदि में भी कहीं न कहीं ऐसा ही नजारा दिख जाता था।कुछ कुछ समझ आने लगा था।अजर अमर की परिभाषा तो ज्ञात नहीं थी उस वक्त लेकिन हाँ.. नाम खुदवाने से जो असीम तृप्ति वाला सुख मिलता है वो समझ आ गया था।पापा के एक परिचित थे,हमारा उनके घर काफी आना जाना था।छुटपन की कई स्मृतियां
जिंदगीभर आपके साथ रहती हैं,उन्हीं स्मृतियों में से एक ये भी था..अंकल सामजिक रूप से काफी सक्रिय थे।हम लोग आज भी उन्हें 'सरपंच अंकल' के नाम से याद रखते हैं जिसकी उन्हें अभी तक जानकारी नहीं..! हाँ तो सरपंच अंकल को दान धर्म का बहुत शौक था।आये दिन उनकी तस्वीर लोकल अखबारों में छाई रहती थी।कभी पक्षियों के लिए परिंडे लगवाते हुए तो कभी स्कूलों में स्वेटर वितरित करते हुए।उन्होंने अख़बार की हर कटिंग को फ्रेम कराया हुआ था,घर में प्रवेश करते ही ड्राइंग रूम पूरा उन फ्रेम कराई तस्वीरों से सुसज्जित रहता था। वो अपने घर आने वाले हर परिचित को उस विषय में विस्तार से अवगत कराते।उनके चेहरे पर अंकित वो असीम सुख के भाव आज भी स्मृतियों में अंकित हैं।वैसे इसमें कोई बुराई नहीं इस बहाने कमसकम आपसे नेक कार्य तो हो रहा है।मगर एक बात तो निश्चित है..भूलना आसान कार्य नहीं..विशेष रूप से दान का कार्य।
कई बार लगता है प्रकृति कितनी भोली है..इतना कुछ हमें मुफ्त में दे देती है वो भी अजर अमर होने के सुख की परवाह किये बैगर ! पेड़ पौधे फल सब्जियां देते हैं हम जैसों को..नदी दिन रात बहती है हमारे लिए..सूरज हमारे लिए धधकता है..धरती माँ हमारे लिए घूमती है..दिन रात हमारे आगे पीछे चकरघिन्नी रहती है..पशु भी हमें दूध देते हैं..क्यों भला! बिना फोटो खिंचाए बिना क्रेडिट लिए..आखिर क्यों भई ! इनमें भी चेतना जागृत होनी चाहिए..समय के साथ बदलाव आना चाहिए।हाईटेक तो इनका होना भी बनता है।
किसी को निस्वार्थ भाव से कुछ देने का सुख क्या होता है उसके लिए नाम का अजर अमर होने का सुख तो भुलाना होगा।ऐसा नहीं है दुनिया में सदा मन को व्यथित करने वाले कार्य ही होते हैं।इन दिनों 'साड़ी चैलेंज' ट्रेंड के अलावा एक और ट्रेंड चल रहा है जिसे सुनकर सचमुच अच्छा लगेगा।सोशल मीडिया में भी काफी वायरल है इन दिनों।क्या आपने कभी सुना है 'सस्पेंडेड कॉफी या सस्पेंडेड मील' के बारे में? पश्चिमी देशों में ऐसा हो रहा है।जिसमें ग्राहक अगर पाँच कॉफी और दो संस्पेंडेड कॉफी ऑर्डर करता है तो वो सिर्फ तीन कॉफी लेता है और बाकी दो कॉफी काउंटर पर ही छोड़ देता है,जबकि पैसे वो पांच कॉफी के चुकाता है।इसी तरह अगर कोई दो खाने के पैकेट के साथ दो सस्पेंडेड खाने के पैकेट ऑर्डर करता है तो सिर्फ दो खाने के पैकेट लेता है बाकी दो पैकेट वहीं छोड़ देता है।कोई जरूरतमंद दुकान या रेस्टोरेंट में आकर जब पूछता है कि क्या कोई सस्पेंडेड खाना या कॉफी है तो उसे वो सब दे दिया जाता है।कितना सुन्दर और व्यवस्थित तरीका है किसी की मदद करने का! इससे देने वाले को भी सुकून मिलता है और लेने वाले जरूरतमंद को भी बिना अपने आत्मसम्मान से समझौता किये उदर क्षुधा शांति का सुथरा तरीका मिल जाता है।खैर ये तो हुई दुनिया की बात..हम लौटते हैं पुनः अपनी चर्चा पर..सब कुछ ठीक है बस अफ़सोस इसी बात का है कि किसी नें देखा ही नहीं..फ़ोटो तो ली ही नहीं..अखबारों में छपा ही नहीं..कहीं भोजन पर नाम तो खुदाया ही नहीं..अब नाम कैसे अजर अमर होगा! बड़ी दुविधा है! इस व्यथा का निराकरण है किसी के पास ?
Alpana nagar

शाकाहार-घास फूस या प्रकृति प्रदत्त उपहार!


आलेख
शाकाहार-घास फूस या प्रकृति प्रदत्त उपहार!

दुनिया जिसमें हम रह रहे हैं,आधी से ज्यादा मांसाहार का सेवन कर रही है।चूँकि इंसान इस पृथ्वी ग्रह पर सबसे अधिक बलशाली एंव बुद्धिमान प्राणी है,अतः उसे भोजन का श्रेष्ठ रूप चयन करने का पूर्ण अधिकार है।शुक्र है डायनासोर का अस्तित्व हमारे अस्तित्व में आने से पहले ही नष्ट हो गया अन्यथा या तो हम उन्हें खा गये होते या फिर वो हमें ! हमारे पास भोजन के अन्य विकल्प होने के बावजूद भी हम मांसाहार का चयन करते हैं।इसके पीछे उनके अपने तर्क हैं जैसे शाकाहार घास फूस से अधिक कुछ नहीं,शरीर में ताकत चाहिए तो मांसाहार आवश्यक रूप से अपनाना होगा,त्वचा स्निग्ध रहती है,इसके अलावा एक और तर्क उन समस्त शाकाहारियों के लिए कि कोई भी इंसान पूरी तरह शाकाहारी नहीं हो सकता यदि आप साँस भी लेते हो तो साँस के साथ न जाने कितने जीवाणु कीटाणु अंदर जाते हैं!पशुओं का दूध पीकर हम उनके बच्चों का अधिकार छीन रहे होते हैं आदि आदि।वैसे तर्क वितर्क के लिए सभी स्वतंत्र हैं।अगर मांसाहार पूर्णतः बेदाग है तो क्यों न मानव का मांस शुरू किया जाये वो मानव के लिए और भी अधिक स्वास्थ्यकारी और लाभदायक होगा!लेकिन नहीं..सुनकर ही हृदय की धड़कनें असंयमित होने लगी..मानव का माँस?क्या बकवास है ये !जनाब ये तो संवेदनहीनता का मसला है।चूँकि बेजुबान बोल नहीं सकते अतः ये मसला संवेदनहीनता की सीमा को छू ही नहीं सकता।उन्हें कोई आपत्ति नहीं तो किसी और को क्यों आपत्ति! ये निहायती व्यक्तिगत मसला है,दूर ही रहें तो बेहतर।जनाब क्यों गर्म हुए जा रहे हैं चर्चा ही तो है ठीक लगे तो अहोभाग्य हमारे वरना कोई बात नहीं,आप किसी भी कोण से कमतर साबित नहीं होंगे!
तो बात चल रही थी मांसाहार और संवेदनहीनता की।पुनः लौटते हैं आलेख की ओर।मेरी एक घनिष्ट मित्र है,मांसाहारी है।उसका कहना है कि मुझे मांसाहार बहुत पसंद है क्योंकि वो बहुत चटपटा और स्वादिष्ट होता है,शाकाहार में वो बात कहाँ!लेकिन मैं उसे कटते या बनते हुए नहीं देख सकती।मैंने कहा धन्य हो,बधाई! तुममे अभी संवेदनशीलता बची हुई है,डायनासोर की तरह पूर्णतः विलुप्त नहीं हुई ! वैसे आज घर जाकर कोशिश करना अपने घर की सोफा कुर्सियां या टेबल को तोड़कर खूब मिर्च मसालों के साथ छोंक लगाकर खाना तुम्हें वही स्वाद मिलेगा!
कभी सोचा है सृष्टि में मौजूद हर प्राणी की अपनी जुबान है,अपना परिवेश है,अपना संसार है।निरीह बेजुबान जब मानव उदर भक्षण के लिए तैयार किये जाते है तब क्या क्या गुजरती होगी उनपर,वो अपने प्राण बचाने के लिए कितना प्रयास करते होंगे कितना तड़पते होंगे! उनसे उत्सर्जित होने वाली हर आह,पीड़ा अंतिम समय की कसमसाहट किस कदर उनके रक्त में घुलकर अंततः इंसान के उदर में और फिर उदर से दिमाग में प्रवेश करती होगी।कोई संदेह नहीं आज दुनिया क्यों बर्बर मशीन में परिवर्तित होती जा रही है!
कमाल की बात है मानव की शारीरिक संरचना,दाँतों की बनावट एंव पाचन तंत्र तक शाकाहार की वकालत करती है लेकिन हम तमाम दलीलों को दरकिनार कर खुद अपने वकील बन रहे हैं अभी सारी दुनिया में जड़ें जमा चुके कोविड उन्नीस के भयावह प्रतिरूप को देखकर इसके उद्गम एंव स्त्रोत को लेकर बहस छिड़ी हुई है,तमाम तरह के कयास लगाये जा रहे हैं।उन कयासों में से एक मानव का मांसाहार के प्रति अतिशय लगाव भी सम्मिलित है।कहा जा रहा है कि पड़ोसी देश चीन में चमगादड़ का सूप पीने से इसकी उत्पत्ति हुई।खैर ये सिर्फ एक अनुमान है।हक़ीकत तो इससे भी भयावह हो सकती है!अभी कुछ दिन पहले सोशल मीडिया की कृपा से चीन के इस मांसाहार प्रेम का एक और रूप उजागर हुआ।ज्ञात हुआ कि वहाँ जीवित जानवरों को खाकर  इंसान नें जानवर को भी पीछे छोड़ दिया।जीवित ऑक्टोपस से लेकर चूहे,बिल्ली,कुत्ते और भी न जाने कौन कौन सी प्रजातियां,इंसान नें कुछ भी नहीं छोड़ा।हद तो तब हुई जब सोशल मीडिया पर ही एक बहुत ही विचलित कर देने वाली वायरल फोटो देखी जिसमें एक थाली में नवजात शिशु को ही पका कर परोस दिया गया था! मुझे याद है ये दृश्य देखने के बाद बहुत दिन तक मुझे अजीब से दुःस्वप्न आने लगे थे,बहुत समय तक अत्यधिक विचलित रही थी। मैं नहीं जानती वो फोटो असल थी या नकली लेकिन क्रूरता की पराकाष्ठा थी।थाईलैंड आदि देशों में सड़कों पर ठेले पर आपको जीवित जानवर तड़पते हुए लटके दिखाई दे सकते हैं।जैसे ही कोई ग्राहक आता है तुरंत उस जीव को उतारकर गरमागरम तेल में तल दिया जाता है।लीजिये तैयार है स्वादिष्ट भोजन ! ये भयावह दृश्य वहाँ बेहद आम है।
कोरोना काल में चूँकि हम सभी विकट स्थिति में उलझ गए हैं अतः पड़ोसी देश की इन हरकतों पर भृकुटियां तन जाना स्वाभाविक है।हम लोग जमकर उनकी असंवेदनशीलता को कोस रहे हैं लेकिन क्या कभी महसूस किया कि कोई भी जीव जीवित खाया जाए या मारकर कुछ समय पश्चात खाया जाए,इसमें ज्यादा फर्क नहीं है।जीव आखिर जीव है।उसे इंसानी जीभ के स्वाद की खातिर अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है वो चाहे हमारे यहाँ रोज खाया जाने वाला चिकन हो या पड़ोसी देश में खाया जा रहा कोई जीवित ऑक्टोपस !
अभी कुछ दिन पहले की बात है।एक परिचित से फोन पर संवाद के दौरान उनकी व्यथा ज्ञात हुई।कोरोना काल में तालाबंदी के कारण मांसाहार लेने में उन्हें अच्छी खासी मशक्कत करनी पड़ी।कहीं दूर दराज से जुगाड़ करके 'हाइजीनिक' चिकन का किसी तरह प्रबन्ध किया।इसी तरह मछली खरीदने में भी लाइन में लगकर 'सोशल डिस्टेंसिंग' का पालन करते हुए आख़िरकार वो मछली खरीद पाने में सफल हुए।पर ये क्या ! मछलियों नें पेट में जाकर विद्रोह कर दिया जैसे कि आपत्ति जता रही हों,भई इस आपदा में तो हमें बख्श देते! मछलियां और चिकन महंगा पड़ गया।कई दिन तक एडमिट रहना पड़ा अस्पताल में।प्राण जाए पर मांसाहार न जाये !
कल्पना कीजिये..अजी कर लीजिए इसपर कोई टैक्स नहीं है ..थोड़ी देर के लिए आँख बंद कर विचार कीजिये।हम इंसान अपनी श्रेष्ठता का मुकुट पहनकर सभ्यता के जंगलों में विचरण कर रहे हैं..अपनी ही धुन में बेपरवाह कि तभी हमारी आँखों के सामने कोई पहाड़ आ खड़ा होता है,हम नजर उठाकर देखने का प्रयास करते हैं तो पता लगता है वो पहाड़ कोई विशाल जंतु है जिसके बारे में हमें पहले कोई जानकारी नहीं थी और पलक झपकते ही देखते ही देखते उन जंतुओं का विशाल समूह आ खड़ा होता है।चारों ओर वो भयानक जंतु और हम किसी चींटी की तरह आंतकित हो जान बचाने को इधर से उधर भागने का प्रयास कर रहे हैं।अगला दृश्य है, वो जंतु अपने मनोरंजन के लिए या फिर अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए हम जैसे 'निरीह' बेबस इंसानों को उठा उठा कर खाना शुरू कर देते हैं।एक एक कर हम सभी उनके बनाये 'स्टोरेज' में आगामी प्रयोग के लिए कैद कर दिए जाते हैं।या फिर..कल्पना कीजिये..किसी मूवी के दृश्य की तरह सचमुच किसी अन्य ग्रह से बेहद भयावह प्राणी आकर अपनी हुकूमत हम पर चलाना शुरू कर दें,हमें अपनी क्षुधा शांति के लिए भोजन की तरह प्रयुक्त करें और हम किसी लाचार की तरह कुछ कर न पाने की स्थिति में आ जाएं! सोचकर हँसी आ रही होगी न ! भला ऐसा भी हो सकता है क्या? हम सर्वश्रेष्ठ हैं और हमेशा रहेंगे! ये काम तो केवल हम ही कर सकते हैं! जनाब कुछ भी हो सकता है,दुनिया गोल है और हम इसी गोल दुनिया का इतिहास भी हैं और भूगोल भी! हम कितने श्रेष्ठ हैं इसका पता तो चल ही चुका होगा।हमारे इस मिथ्या वहम को तोड़ने के लिए एक छोटा सा वायरस ही काफी है! अब सवाल ये है क्या हमारे साथ हमारे ग्रह पर निवास कर रहे हमारे जैविक पारिस्थितिकी तंत्र को सुचारू रूप से चलाने में योगदान देने वाले अन्य जीवों को जीने का अधिकार नहीं है?क्या उनकी अपनी कोई दुनिया नहीं है या फिर वो पैदा ही सिर्फ इसलिए होते हैं कि हमारी उदर की क्षुधा को शांत कर सकें।कहने वाले तो ये तक कहते हैं कि अगर हमने इन जीवों का भक्षण नहीं किया तो ये जीव पूरी पृथ्वी पर इतने ज्यादा हो जायेंगे कि मानव सभ्यता ही विलुप्त हो जायेगी।उन जीवों का भक्षण करके वो इस सभ्यता को बचाने का अभूतपूर्व कार्य कर रहे हैं!आह,सभ्यता की इतनी परवाह ! कुछ काम प्रकृति के लिए भी छोड़ दें।संतुलन बिठाने का काम उससे बेहतर कौन कर सकता है! हमनें तो अब तक असंतुलन में ही योगदान दिया है।इसमें कोई दो राय नहीं।
दिवंगत फिल्म अभिनेता इरफ़ान खान पठान परिवार में पैदा होने के बावजूद बचपन से ही शाकाहारी थे।एक इंटरव्यू के दौरान इरफ़ान खान नें खुलासा किया कि किस तरह उनका शाकाहारी होना कट्टरपंथियों की दृष्टि में अधार्मिक कार्य बन गया था,उन्हें अपने मुस्लिम समुदाय से आलोचनाएं झेलनी पड़ी।कई बार ये बात समझ से बाहर हो जाती है क्या तथाकथित धर्म गुरुओं का इंसान के खानपान के चुनाव पर भी अंतरिम अधिकार होना चाहिए? हैरानगी होती है।
अभी पिछले वर्ष पूर्वोत्तर भारत की यात्रा के दौरान असम के कामाख्या देवी मंदिर में जाने का अवसर मिला।मंदिर का विशाल परिसर वहाँ घूम रहे कबूतरों के कारण और भी अधिक आकर्षक दिखाई दे रहा था।बाद में ज्ञात हुआ कि यहाँ कबूतरों की भी बलि दी जाती है।मादा जानवरों को छोड़कर अन्य जानवरों को बलि के लिए प्रयुक्त किया जाता है।रक्त में भीगे कपड़े को माता का प्रसाद मानकर भक्तों को दिया जाता है।संपूर्ण यात्रा में मेरे मन मष्तिष्क में यही बात घूमती रही कि क्या ये सब अति आवश्यक है! अगर बलि देने इतना ही आवश्यक है तो क्या धर्म के लिए सांकेतिक बलि का विकल्प नहीं रखा जा सकता! खैर इस विषय में ज्यादा कुछ कहना उचित नहीं होगा।
जहाँ एक तरफ क्रूरता की सारी हदें पार हो रही हैं वहीं दूसरी ओर भारत जैसे देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो मांसाहार के बारे में सोचना भी आचरण के विरुद्ध और अमानवीय कृत्य समझता है।वस्तुतः संपूर्ण विश्व में भी बहुत से लोग पूर्णतः शाकाहारी हो चुके हैं।कारण जो भी हो,चाहे वो स्वास्थ्य से सम्बंधित हो,वजन नियंत्रित करने का प्रयास भर हो,धर्म की पालना हो,अंतरात्मा की पुकार हो या पर्यावरण और प्रकृति के प्रति चेतना हो..जो भी हो ये संपूर्ण चराचर जगत एंव मानवता के हित में है।

Alpana nagar

निरुत्तर

निरुत्तर

एक अरसे से
सुन रही हूँ
भीतर का शोर,
इतना कि
हो चुकी हूँ
पूर्णतः बहरी!
बाहर लहरा रहा है
जन सैलाब,
चाहती हूँ
उसमें उतरना
लेकिन किनारे रहकर!
इस दौरान
न जाने कितनी बार
करवटें ले चुकी है पृथ्वी,
कितनी बार
अंगड़ाइयां ले चुकी हैं
ऋतुएँ...
एक मैं हूँ
जो ठहरी हुई हूँ
चाक पर अधपके
मिट्टी के घड़े सी!
कोई मुझे पूछता है
समय क्या हुआ ?
मैं नहीं जानती!
मेरे समय की घड़ी में
तीनों सुइयां
दिखाई दे रही हैं
लगातार चलती हुई,
हौले..मध्यम..तीव्र
अपनी धुन में
खिसकती हुई सुइयां!
एक अरसे से साथ हैं
मगर फिर भी
एक दूसरे से
अंजान!
मेरे समय की घड़ी में
समय आगे निकल चुका है
बहुत आगे..
पीछे रह गई हूँ मैं
बीते समय की सुइयां
मरम्मत करती हुई!
कोई मुझसे पूछे
समय क्या हुआ!
मेरे पास उत्तर नहीं होता...

Alpana nagar

Wednesday 10 June 2020

अकेलापन- अनुनाद या विषाद !

आलेख
अकेलापन -अनुनाद या विषाद !

दुनिया अपनी ही मौज में चल रही होती है,बेबाक..खिलंदड़..लगातार.. कभी चमचमाते मॉल्स में,कभी डिस्क में,कभी थियेटर,कभी कॉफी शॉप,रेस्टोरेंट्स,कभी शादी ब्याह का भांगड़ा,कभी कोई पार्टी,कभी कोई उत्सव..कभी किट्टी.. कभी ऊटी..कभी इस शहर कभी उस गली हर जगह भीड़ ही भीड़,बेपरवाह..खुद में सिमटी हुई बेतरतीब कि तभी एक घोषणा होती है..मौज मस्ती की समय सीमा समाप्त,कृपया कुछ दिन शांति से घर बैठे! ये क्या! ये कैसे हो गया?भई, हमें तो आदत ही नहीं यूँ अकेले अकेले घर बैठने की! हमें तो तफरीह करनी है हर दिन दोस्तों के साथ,परिचितों के साथ,नाते रिश्तेदारों के साथ,कुछ भी करेंगे पर घर नहीं बैठेंगे।वर्तमान स्थिति यही बन रही है।अकेलेपन को हम जिस हिकारत से देखते हैं उसे देखकर तो यही लगता है कि दुनिया में इससे बुरी कोई चीज नहीं!अकेला इंसान जहाँ कहीं भी दिख जाता है लोग अपना कंधा लेकर पहुँच जाते हैं,तरह तरह की बातें बनाई जाती हैं कि "हाय फलां औरत अकेली हो गई है..फलां की अभी तक शादी नहीं हुई,कैसे उम्र कटेगी, कैसे जियेगी अकेली,परिवार वाले कमाई खा रहे हैं बेटी की,फलां औरत सिंगल मदर है,तलाकशुदा है पता नहीं क्या मजा आता है अकेले रहने में,अभिमानी है पक्का..देखा,अजीब इंसान है न कहीं आता है न जाता है अकेले अकेले रहता है!"लीजिये आपको कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं आपका चरित्र प्रमाणपत्र बन चुका है।समाज इसी चीज का नाम है।अकेलेपन को नकारात्मकता के साथ जोड़कर देखा जाता है।जबकि सच्चाई इसके विपरीत है।अगर हम गौर करें तो दुनिया के तमाम रचनात्मक काम अकेलेपन की स्थिति में ही संभव हो पाए हैं।यहाँ तक कि ईश्वर से जुड़ने के लिए भी हमें एकांत ही चाहिए होता है।अध्यात्म की उच्चतर अवस्था तक पहुंचने के लिए आपको मन रूपी मंदिर में कुछ क्षण अकेले बिताने होंगे।भले ही आप भीड़ से भरे विशाल मंदिर के प्रांगण में खड़े हो लेकिन ईश्वर से मिलने के लिए उसे देखने के लिए आपको बाहरी दुनिया की तरफ से आँखे बंद करनी होगी कुछ क्षण एकांत के सुरक्षित रखने होंगे।यही स्थिति स्वयं के साथ है।हमनें स्वयं को बाहरी भीड़, रस्मों रिवाजों में इतना व्यस्त कर लिया कि जिंदगी की दस्तक सुनाई देनी बंद हो गई।अपने आसपास आभासी दुनिया के मित्रों का इतना विशाल समूह खड़ा कर लिया कि गुम ही हो गए,समय कब हमें टाटा बाय बाय करके चला गया और हम देखते रहे,हमने खुद से मिलना जुलना ही बंद कर दिया!
समाज जिसे मानसिक बीमारी या अवसाद की संज्ञा देता है दरअसल वो हमारा आंतरिक अकेलापन नहीं है वो बाह्य स्थिति है जो समय समय पर बाहरी कारणों से उपस्थित होती है।मसलन व्यापार में भारी भरकम नुकसान, आर्थिक स्थिति का एकदम खस्ताहाल हो जाना,किसी प्रिय का दुनिया छोड़कर चले जाना,या किसी प्रिय से लंबे समय से अनबन,कार्यक्षेत्र में बारम्बार विफलता का सामना करना आदि कारण होते हैं जिनकी वजह से मानसिक बीमारी झेलनी पड़ती है,डॉक्टर के चक्कर लगाने पड़ते हैं।लेकिन आंतरिक एकांत बिल्कुल अलग स्थिति है उसे बीमारी कहना सर्वथा अनुचित होगा।एकांत को हम चुनते हैं स्वेच्छा से,ये हमपर थोपा हुआ नहीं होता।आंतरिक एकांत शांत बहती हुई नदी सा है,चुपचाप अपनी धुन में बहता हुआ,मन के सूखे कोनों को हरित करता हुआ,उत्साह की लहरों में भिगोता हुआ।एकांत हमें स्वयं से मिलने का मौका देता है,स्वयं को जानने समझने का मौका देता है।अकेलेपन के लिए ये आवश्यक नहीं कि आप बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग थलग हो जाओ,किसी प्रिय के साथ भी एकांत की नदी में डुबकी लगाई जा सकती है वो आपका हाथ पकड़कर आपके उज्ज्वल स्वरूप से मिलाने में मददगार भी हो सकता है।जरूरत है तो सही चुनाव की,कोलाहल से स्वयं को मुक्त करने की।कई बार भीड़ में होकर भी आप अकेले हो सकते हैं, ये मनःस्थिति है कोई बीमारी नहीं।जो लोग अकेले इंसान पर तरस खाते हैं वो दरअसल उसे पूरी तरह समझ नहीं पाते ये मात्र समझ का फेर है।हो सकता है वो आनंद की उच्चतर स्थिति को जी रहा हो।कभी समंदर के किनारे बैठकर मन में उठती लहरों से संवाद किया है?कभी लहरों में उतरकर रचनात्मकता के सीप या शंख मोती चुने हैं! कभी शाम के धुंधलके में अकेले बैठकर पंछियों का कलरव सुना है,अपने अंदर छुपे अनंत आसमान में संभावनाओं की उन्मुक्त उड़ान भरी है! कभी घंटों चाँद के तले बैठ उसकी दूधिया रौशनी में नहाए हो!कभी यूँ ही..बस यूँ ही खिड़की के नजदीक बैठ बारिश की टिपिक टिपिक धुन में खुद को डुबाया है! अगर नहीं तो आप कभी अकेलेपन से मिले ही नहीं या फिर कभी मिलने का प्रयास ही नहीं किया क्योंकि ज्यादातर समय आप भीड़ के इर्द गिर्द होते हैं सुबह से रात तक लगातार व्यस्त..बेहद व्यस्त।इतना व्यस्त होकर भी हम अंदर ही अंदर कब तन्हाई पाल बैठते हैं हमें पता ही नहीं लगता और कब वो बीमारी के रूप में हमारे सामने आती है,हम यकायक चौंक जाते हैं।जो खुद से मिलते रहते हैं उन्हें तन्हाई जैसा कुछ महसूस हो ही नहीं सकता।इस फर्क को समझना बेहद आसान है।अपने आप में मगन बच्चे की उन्मुक्त हँसी जैसा ही है अकेलापन भी।
एक परिचित मित्र है..बहुत होनहार है..आर्थिक रूप से स्वतंत्र है।विचारों में बेहद आधुनिक,लेकिन एक समस्या है जिस समाज में वो रहती है वो बहुत पिछड़ा है।उसने बहुत ही कम उम्र में ज्यादातर उपलब्धियां हासिल कर ली जिसकी चाह एक सामान्य व्यक्ति को होती है वो सब उसे मिला लेकिन फिर भी वो इतनी स्वतंत्र नहीं कि अकेली कहीं घूमकर आ सके।उसकी दिली तमन्ना है पहाड़ो को छू कर आये,देवदार के पेड़ों को करीब से देखे कुछ पल खुद के साथ बिताए।उसने परिवार से इजाजत चाही,नहीं मिली।एक तो अविवाहित ऊपर से लड़की! हाय राम! आस पड़ोसी रिश्तेदार क्या सोचेंगे ! वो समाज के तयशुदा फ्रेम से बाहर नहीं आ सकती।वैसे उम्मीद भी यही थी।उसे विश्वास नहीं कि विवाह पश्चात भी कोई उसे कहीं लेकर जायेगा क्योंकि वो अपने समाज को जानती है।ये कहानी हर लड़की की है,हर समाज की है।
अकेलेपन का मतलब उदासी नहीं है।लेकिन बहुत बार ऐसा होता है एक औरत विशेषरूप से तलाकशुदा या विधवा जब तक समाज के बने बनाये ढर्रे पर चलती है वो ठीक है..भले ही उस वक्त रिश्तों की भीड़ में भी कृत्रिम मुस्कुराहट के साथ फोटो खिंचाती हो,उसके अंदर पनप रही तन्हाई या उदासी किसी को नजर नहीं आएगी क्योंकि वो समाज के साथ है।लेकिन अगर उसने अपने आप से मिलना शुरू कर दिया या खुश रहने लगी,कभी खुद को आईने में निहारकर लिपस्टिक लगा ली तो लोगों की आँखों में कैक्टस उगने लगते हैं।'पति नहीं है फिर भी पता नहीं किसके लिए सजती संवरती है..अरे वो फलां औरत नें तो हद ही कर दी परिवार नहीं है पति नहीं है फिर भी फर्राटे से चार पहिया गाड़ी घुमाती फिरती है !अकेली औरतों के लिए इस तरह की फ़िकरेबाजी आम है हमारे समाज में।
फ़िलहाल इन सब अवधारणाओं पर विराम लगाने के लिए हमें ईश्वर प्रदत्त कुछ समय मिला है,मज़बूरी में ही सही हम स्वयं को एक जगह सीमित करके अपनी असीमित संभावनाएं तलाश सकते हैं।चूँकि हम स्वयं उस दौर से गुजर हैं अतः बेहतर तरीके से विचार कर सकते हैं,खुद को बेहद करीब से जान सकते हैं।समाज के तयशुदा फ्रेम से बाहर आ सकते हैं,कुछ पल ही सही ,स्वयं के दृष्टिकोण को परिवर्तित करने का प्रयास कर सकते हैं।अपनी ऊर्जा को रचनात्मक कार्यों में लगा सकते हैं।अकेलेपन की आंतरिक और बाह्य स्थितियों पर विचार कर सकते हैं।आपके परिचित मित्र जो अब तब एकांत प्रिय थे लेकिन आपकी दृष्टि में किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित थे उनके प्रति सकारात्मक सोच विकसित कर सकते हैं।ईश्वर को शुक्रिया अदा कर सकते हैं जिसने समय जैसा कीमती तोहफा आपको इनायत किया,एक अभूतपूर्व आइना आपको दिया जिसमें स्वयं को निहारकर शेष जिंदगी के प्रति नजरिया बदला जा सके।शुक्रिया जिंदगी! शुक्रिया एकांत!

Alpana nagar

Monday 8 June 2020

जम्हूरियत में रोटी

जम्हूरियत में रोटी

वो लगे हुए थे
दिन रात
रोटियां उगाने में,
रोटियां बनाने में,
अभी निवाला दूर था,
हाथ से मुँह तक
रोटी भर का
फासला था!
कि तभी
जम्हूरियत के जमूरों का
एक झुंड आ पहुंचा
भाषा की आँच पर
बनी बनाई
रोटियां सेंकने..!
बदले में खड़ा कर गया
प्रतिनिधि बिजूका..
बिजूका,जो आपादमस्तक
भरा गया था
भूसे से,
मस्तक की जगह
रिक्त हंडिया थी,
मुखमंडल पर
पुता था चूना और कालिख़,
आँख नाक कान तक
बनाये गए थे
अपने हिसाब से!
सुना है आजकल
बिजूका की
बड़ी गहरी
दोस्ती है
कौओं से..
कौए आते हैं
कुछ क्षण टहलते हैं
रोटियां चुगते हैं,
कुछ खाते हैं,
कुछ बिगाड़ते हैं
और फिर
उसी के खाली मस्तक पर
विष्टा फैलाते हैं,
पर बिजूका तो बिजूका है जी!
एकदम तटस्थ,
भला उसे क्या आपत्ति !
अब रोटियों के मालिक हैं
चंद कौए..
कौए जो मुँह में
रोटी दबाए
दावा करते हैं
दो जून की रोटी दिलाने का!
वो जो न रोटी उगाते हैं
न रोटी बनाते हैं
बस झपट्टा मारते हैं
वो भी सर्वस्वीकार्य मोहर के साथ..!
बनी बनाई रोटियों से
मन बहलाते हैं,
बिगाड़ते हैं,
टुकड़े टुकड़े कर
इधर से उधर करते हैं !
नीचे खड़े हैं वो लोग
जो रोटी उगाते हैं
रोटी बनाते हैं
मगर अब भी
जिनके हाथ और मुँह के बीच
रोटी भर का फासला है!!
अंतड़ियों की अकुलाहट पर
वो जब चिल्लाते हैं
रोटी रोटी..
उन्हें परोसी जाती है
भाषा से सुसज्जित थाली!
तुमने देखा?
रोटियों के टुकड़े फैले हैं
हर जगह
और गिद्ध पहरा दे रहे हैं..!

Alpana Nagar

Thursday 4 June 2020

तलब


तलब

हवा हुए वो दिन
जब आसमां से बरसती थी
दुआएं
और भीग जाते थे मन !
बरसती तो अब भी हैं
बदलियां,
मगर दिखाई देती हैं
चारों ओर
तनी हुई
रंग बिरंगी छतरियां !
सबके अपने बादल
अपनी अपनी छतरियां...
अतीत की झुर्रियों पर
अधुनातन प्लास्टिक सर्जरी का
आवरण ओढ़ता,
सन्नाटे सी पसरी धूल में
खाँसता,खीजता
उम्रदराज होता मेरा शहर..
कनखियों से देख रहा है
विपरीत ध्रुवों की
अगन जल जुगलबंदी!
किस तरह
हमाम से निकल
सड़कों पर आ धमके
धड़ल्ले से घूम रहे नंगे,
हाथ बांधे
सभ्य शालीन
उन्मादी वो रंग बिरंगे..!
आज फिर
लगी है तलब
मेरे शहर को धुँए की,
कि बरस रहा है पेट्रोल और
सुलग रहे हैं दंगे ! !

अल्पना नागर



Wednesday 3 June 2020

बिल्लो की गुल्लक

कहानी
बिल्लो की गुल्लक

पाँच साल की चुलबुली बिल्लो आज कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रही थी।मानों कोई खजाना हाथ लगने वाला हो।अपनी धुरी माँ के इर्द गिर्द गिलहरी की तरह नाचती,फुदकती बिल्लो एक हफ्ते से पूछे जा रही थी," माँ बताओ न,नवरात्रि कब से शुरू है?"
"का करना है तुझे नवरात्रि का?माता बिठाएगी का तू भी..!"कपड़े धोती माँ नें हँसकर पूछा।
"माता कैसे बिठाते हैं,तुम तो पहले से ही बैठी हुई हो.."।बड़ी बड़ी गोल आँखें मटकाती हुई बिल्लो नें पूछा।
"मोरी, मैया..देवी माँ की बात कर रही हूँ,जे सामने वाली बिल्डिंग के बड़े लोग जिनके यहाँ मैं काम करती हूँ.. नवरातन पे माता रानी को विधि से बिठावत हैं,पूजा पाठ करत हैं,तू जावत हैं न हर साल जीमन वास्ते ?"
"हाँ,तो इसलिए तो पूछ रही हूँ।इस बार कब है नवरात्रि?अच्छे अच्छे तोहफे मिलेंगे,अच्छा अच्छा खाना मिलेगा,पैसे मिलेंगे।"छोटे छोटे हाथ नचाती हुई बिल्लो नें मासूमियत से कहा।
"हम्म,समझ गई..क्यूँ तू रोज मेरे कान पका रही थी पूछ पूछ के..चल जा..दीनू काका से कैलेंडर ले आ भाग के.."।
बिल्लो झट से फुदकती हुई पड़ोस के दीनू काका से कैलेंडर लेकर आई।
"ये लो माँ..अब बताओ..कित्ते दिन रह गए..कब बुलाएँगे वो लोग..जल्दी जल्दी बताओ।"बिल्लो की जैसे ट्रेन छूटे जा रही थी।
"बता रही हूँ बाबा..रुको तो सही..अरे! ये तो कल से ही शुरू है।ले खुश हो जा..हो गई तेरी मुराद पूरी।"माँ नें हँसते हुए कहा।
बिल्लो बहुत खुश थी।नवरात्रि में मिलने वाले पैसे जोड़कर उसने अब तक कुल एक सौ बीस रुपये जमा कर लिए थे।कुछ नवरात्रि पर कंजक भोज में मिले पैसे थे तो कुछ उसने जोड़कर रखे थे बहुत दिनों से।कभी कभार घर आई बुआ या कोई रिश्तेदार जाते जाते उसकी नन्ही हथेलियों पर चंद रूपये रख जाते थे ताकि वो अपनी मनपसंद चीजें खा सके।लेकिन बिल्लो बड़ी समझदार थी,बाजार में मिलने वाली रंगबिरंगी खाने की चीजों पर उसका मन तो ललचाता था लेकिन वो अपनी गुल्लक में जमा पैसों को खर्च नहीं करती थी।
उस रात नन्ही बिल्लो की आँखों से नींद दूर दूर तक गायब थी।उसने बिस्तर पर जाने से पहले अपनी माँ को बोल दिया था कि उसे पांच बजे उठा दे।लेकिन बिस्तर पर नींद कहाँ थी!उसे तो इंतज़ार था अगली सुबह का,वो बार बार उठकर खिड़की से बाहर देखे जा रही थी,कब दिन निकले और कब वो तैयार होकर जाए।
बिल्लो रात भर अपनी छोटी छोटी उंगलियों पर हिसाब करती रही।
"अभी कुल पैसे हैं एक सौ बाइस..अभी भी कम पड़ रहे हैं पूरे अठाइस रुपए।वो बुड्ढे अंकल कित्ते बेकार हैं..एक रूपया भी कम नहीं कर रहे..पर क्यूँ करेंगे..वो सैंडल हैं ही इत्ती प्यारी!चाँदी सी चमकती,सुन्दर सुन्दर सैंडल।पर इस बार मैं वो सैंडल खरीद ही लूंगी।हर साल की तरह कल भी पैसे मिलेंगे।कित्ता मजा आएगा न,मैं बुआ वाली सुनहरी गोटे की फ्रॉक के साथ जब वो चाँदी सी चमकती सैंडल पहनूँगी..अहा!मीनू देखती ही रह जायेगी।बड़ी आई ..मुझे चिढ़ाती रहती है जब देखो तब।इस बार मैं उसे चिढाऊंगी।"बिल्लो का बालसुलभ मन रात भर कल्पनाओं में गोते लगा रहा था।सुबह के तीन बजे बिल्लो नहा धोकर तैयार हो गई।
"माँ उठो न,देखो दिन निकल आया है।पाँच बज गए न?"
"छुटकी, सो जा चुपचाप,अभी सवेरा होने में भोत टेम है.."।उनींदे स्वर में माँ नें कहा।
"मैं, लेट हो गई तो..फिर..?"बिल्लो को चिंता हो रही थी।
"कछु लेट न होई..अभी तो वो लोग भी नहीं उठे होंगे,तू सुबह पहले क्या करेगी वहाँ जाके!"आँखे बंद किये आधी नींद में माँ नें जवाब दिया।
"मैं जा रही हूँ बस..सोती रहो..कोई टेंसन ही नहीं है।"
"अरी मोरी मैया! जे का?तू नहा भी ली!!अभी तो सिर्फ तीन बजे हैं लाली..बाल गीले पड़े हैं तेरे,कंघी भी खुद ही कर ली!!इत्ती बड़ी हो गई मेरी बिल्लो..!"खिड़की से आती हल्की सी रोशनी में बिल्लो को देखकर माँ नें कहा।
"और नहीं तो का..!तोरे जगने का इंतज़ार करती!किसी को परवाह ही ना है मेरी..हुंह.."।बिल्लो नें मुँह बनाते हुए कहा।
"अच्छा ठीक है मेरी मैया,मैं पाँच बजते ही तुझे सामने वाली बिल्डिंग में छोड़ आऊँगी, बस खुश!"माँ नें आश्वस्त करते हुए कहा।
आखिर वो घड़ी आ ही पहुँची।पौं फटते ही बिल्लो सामने वाली सोसाइटी में एक एक कर कंजक भोज करके आयी।इस बार भी उसे भोज के अंत में अच्छे पैसे,मिठाइयां और गिफ्ट मिले।बिल्लो बहुत खुश थी,पूरे घर में चहकती फिर रही थी।आते ही अपनी गुल्लक संभाली,पैसे गिने।अब कुल जमा पैसे थे एक सौ पैंसठ रूपये।
"अरे वाह!सैंडल लेने के बाद भी पंद्रह रूपये बचेंगे..उनका क्या करुँगी..आलू टिक्की खाऊं या छोले भटूरे ! नहीं नहीं..अभी तो इत्ता कुछ खाके आई हूँ..ये मैं जमा करके रखूंगी।"ख़ुशी से चहकते हुए बिल्लो नें झटपट हिसाब लगाया।बिल्लो पढाई में भी कुशाग्र थी।
शाम होते ही बिल्लो फटाफट उसी दुकान पर पहुंची।पर तब तक सैंडल बिक चुकी थी।नन्हीं बिल्लो का चेहरा उतर आया।
"अच्छा अंकल,वैसी ही सैंडल और हैं क्या आपके पास?"बिल्लो नें उम्मीद नहीं छोड़ी।
"नहीं बेटा,सेम वैसी तो नहीं है पर मैं दूसरी दिखा देता हूँ उससे भी सुंदर।"
दुकानदार नें बहुत सी रंग बिरंगी सैंडल बिल्लो के सामने रखी।पर बिल्लो की नजरें चाँदी सी झिलमिल करती अपनी प्रिय सैंडल को ही ढूँढ़ रही थी।
"उससे सुंदर कोई नहीं हो सकती..।"उदास बिल्लो नें मन ही मन सोचा।
भारी क़दमों से बिल्लो उस दुकान से घर की ओर जाने लगी।
रास्ते में एक दूसरी दुकान पर उसकी नजरें ठहरी।वो वहीं रुक गई।बड़ी देर तक दुकान पर सुसज्जित चीजें निहारती रही।
"अंकल, वो ड्राइंग बॉक्स कितने का है?"
"तीस रुपए का है बेटा,लेना है तुम्हें?"
बिल्लो नें अपनी छोटी सी पैसों वाली पोटली संभाली।
"हाँ अंकल दे दो,कुछ कम करो न अंकल..प्लीज।"
"ठीक है गुड़िया,तुम्हारे लिए पच्चीस रूपये।"दुकानदार नें प्यार से बिल्लो के सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
बिल्लो नें ख़ुशी ख़ुशी पैसे थमाये।
"अच्छा अंकल.. और वो बालों का क्लिप कितने का है जिसपे फूल लगे हुए हैं?"
"चालीस रुपये का है बेटा, पर वो तो बड़े लोगों के लिए है जिनके बाल बड़े होते हैं..।"
"कोई नहीं अंकल आप दे दो,मुझे अपनी माँ के लिए चाहिए,और अंकल पैंतीस रूपये लगाना..प्लीज।"बिल्लो नें निवेदन किया।
"अच्छा,और कुछ..?"दुकानदार नें पूछा।
बिल्लो उंगलियों पर हिसाब लगा रही थी।"
"हम्म..वो रंग बिरंगी बिंदी वाला पैकेट भी दे दो।"
"मात्र दस रुपए बेटा..।"दुकानदार नें कहा।
"अच्छा अंकल वो लूडो कितने का है?"
"पचास रुपये का,इसमें पैसे कम नहीं होंगे बेटा।"
"कोई बात नहीं अंकल,आप दे दो..सब चीजें पैक कर दो..ये लीजिये कुल एक सौ बीस रूपये।"बिल्लो नें रूपये सौंपते हुए कहा।
"वाह बिटिया,तुम तो बड़ी होनहार हो..हिसाब भी कर लिया इतनी जल्दी!"दुकानदार के आश्चर्य का ठिकाना न था।
"जी अंकल,हमें गणित बहुत अच्छा लगता है,हमारी टीचर जी बहुत अच्छी तरह समझाती हैं हमें..।"बिल्लो नें चहकते हुए कहा।
सामान खरीदकर बिल्लो घर की ओर लौटी।अपनी पहली सफल खरीददारी पर उसे अलग ही तरह की सुकून भरी ख़ुशी का अनुभव हो रहा था।मोलभाव करना उसने अपनी माँ से कब सीख लिया शायद उसकी माँ को भी नहीं पता होगा।बहुत बारीकी से वो चीजें देखती थी,सीखती थी।उसने अपने दोनों भाई बहनों के लिए ड्राइंग बॉक्स और लूडो खेल ख़रीदा।अपनी माँ के लिए सुन्दर सा बालों का क्लिप और रंग बिरंगी बिंदी का पैकेट लिया।मगर खुद के लिए?खुद के लिए उसने कुछ नहीं लिया।ये किसी भी बच्चे के लिए असंभव लगने वाली बात है लेकिन बिल्लो की बात ही अलग थी।वो दूसरे बच्चों से बिल्कुल अलग थी।बहुत ही कम उम्र में उसने जिंदगी के इतने उतार चढ़ाव देखे।मात्र चार वर्ष की उम्र में अपने शराबी पिता को खो दिया।शराबी पिता का रोज धुत्त होकर घर आना,पैसों के लिए पत्नी से मारपीट करना,बेवजह आये दिन बच्चों के साथ मार पिटाई करना,इन सब घटनाओं को बिल्लो नें बेहद करीब से देखा,उसके नाजुक से बाल अवचेतन पर बहुत गहरा असर पड़ा।वो सहमी हुई रहती थी।मगर हालात के कड़ेपन नें उसे बहुत ही छोटी उम्र में मजबूत बना दिया।अभावों में रहने वाले बच्चे वक्त से पहले ही परिपक्वता का स्वाद चख लेते हैं,बिल्लो भी उन्हीं में से एक थी।उसमें संवेदना थी,पैसों की जिंदगी में क्या अहमियत है वो अच्छी तरह समझ चुकी थी।हाथ में पैसे होने पर परिवार के सभी सदस्यों के लिए उसने कुछ न कुछ लिया,खुशियां खरीदी लेकिन खुद के लिए कुछ नहीं खरीद पाई,शायद वो खुशियां बाँटने में ज्यादा खुश थी।
"अभी भी पैंतालीस रूपये बचे हैं।समझ नहीं आ रहा क्या लूँ खुद के लिए..सब कुछ है मेरे पास..बस वो चाँदी वाली सैंडिल को छोड़कर.!.कोई बात नहीं..फिर कभी सही।इन्हें गुल्लक में डाल दूंगी।सब लोग कित्ते खुश होंगे न..!बिल्लू तो लूडो देखकर उछलने लगेगा,कब से लाने को बोल रहा था।और बिटकी तो नाचने लगेगी जब इत्ता सुंदर ड्राइंग बॉक्स देखेगी!हम्म ..और माँ..! इन रंग बिरंगी गोल बिंदियों में माँ तो बिल्कुल मेरी टीचर जैसी दिखेगी,और वो नारंगी रंग के फूल वाला क्लिप..माँ के लंबे बालों में कित्ता सुंदर दिखेगा ! बस अब जल्दी से घर पहुंच जाऊँ,माँ को चिंता हो रही होगी।"बिल्लो मन ही मन सोचते हुए घर आ रही थी।
घर पहुंचते ही माँ नें उसे गले लगा लिया।वो उसे आस पड़ोस में सब जगह ढूंढ आई थी लेकिन बिल्लो कहीं नजर नहीं आई।समय बीतने के साथ ही माँ की फ़िक्र भी बढ़ती जा रही थी।अपनी बिल्लो को सामने देखकर कसकर गले लगा लिया।
"माँ, मैं बस पास में ही गई थी,इत्ती फ़िक्र काहे करती हो मेरी।अब मैं बड़ी हो गई ना !"
"बिल्लो दुबारा बिना बताये मत जाइयो..जान गले तक आ गई थी,पता है तोहे..जमाना कित्ता ख़राब है तू कछु नहीं जानती।"
"ठीक है माँ,अब गुस्सा मत करो।देखो मैं क्या लेकर आई तुम सब के लिए..बिल्लू,बिटकी सब आ जाओ जल्दी से..।"बिल्लो नें सामान निकालते हुए कहा।
"ओहो देखूं तो! इत्ते पैसे कहाँ से आये बिल्लो! गुल्लक में जोड़े तूने?सब के लिए इत्ता कुछ ले आई तू!और अपने लिए..कछु ना लाइ?"माँ नें सवालों की झड़ी लगा दी।
"कैसा लगा सब..?अच्छा है न?"बिल्लो नें बात टालते हुए कहा।
उसके भाई बहनों के लिए उत्सव जैसा माहौल हो गया।दोनों ख़ुशी से नाचने लगे।
"हम्म..सुन बिल्लो..मेरा एक काम करेगी ?तू रसोई में जा..आलू ले आ।आज तोरे मनपसंद आलू परांठे बनाउंगी।"माँ नें कहा।
"सच माँ ! आज तो ख़ुशी का दिन है।"
बिल्लो रसोई में गई।वहाँ आलू की टोकरी के पास एक डिब्बा भी रखा था।बिल्लो को जिज्ञासा हुई।उसने खोलकर देखा।उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ।
"अरे,ये तो वही सैंडल हैं जो बिक गई थी..।"बिल्लो हक्की बक्की थी।
"माँ..ये डिब्बा किसका है जो रसोई में रखा है?"बिल्लो नें रसोई से ही आवाज लगाते हुए पूछा।
"ले आ उसे बाहर।तोरे वास्ते ही लेकर आयी।पसंद हैं न तुझे?"माँ नें पुछा।
"हाँ माँ बहुत ज्यादा पसंद हैं..पर तोहे कैसे पता ?मैंने तो कभी नहीं बताया।"
"माँ हूँ ना बेटा.. इतनी पढ़ी लिखी तो नहीं पर तोरी नजरें अच्छी तरह पढ़ लेती हूँ।मुझे का खबर नहीं कि इत्ते टेम से तोहे वो सैंडल पसंद है,जब भी बाजार जाती थी कैसे टुकुर टुकुर देखती थी उनको..बस मैंने सोच लिया था इस बार अपनी बिल्लो के लिए वो लेकर रहूंगी।और देख..मेरी मालकिन नें इस बार खुस होके दो सौ रूपये ज्यादा दिए।"माँ नें ख़ुशी से चहकते हुए कहा।
बिल्लो की आँखों से ख़ुशी के आँसू झरने लगे।दूसरों को दी हुई ख़ुशी कई गुना होकर हमारे पास एक न एक दिन अवश्य लौटकर आती है।प्रकृति का भी यही विधान है।
बिल्लो कभी अपनी माँ को तो कभी अपनी प्रिय नई सैंडल को देख रही थी।आज सचमुच बहुत ख़ुशी का दिन था।

अल्पना नागर






Monday 1 June 2020

प्रकृति और समाज

कहानी

अधेड़ उम्र के सदानंद शर्मा जी हमेशा की तरह आज भी मंद क़दमों से छड़ी के सहारे पार्क की दिशा में बढ़ रहे थे।उनके पीछे कुछ नन्हें शैतानों की टोली लगी हुई थी।सदानंद जी मन ही मन बड़बड़ाते हुए बीच बीच में बच्चों को छड़ी दिखाते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे।
ये रोज का दृश्य था।बच्चे भी कहाँ आसानी से मानने वाले थे,उन्हें न छड़ी का भय और न ही सदानंद जी की गुस्सैल आँखों का।वो बस उन्हें चिढ़ाते हुए पूर्ण संतुष्टि पाकर रफ्फूचक्कर हो जाते।इस दौरान सदानंद जी की भी सुबह सुबह अच्छी खासी कसरत हो जाती थी।
सदानंद शर्मा जी एक रिटायर्ड अध्यापक थे।ऊँचा कद, रोबदार मूंछे,और चांदी से दमकते बाल और उनके बीचोंबीच शान से बलखाती,हवा में लहराती सवर्ण व्यवस्था की प्रतिनिधि शिखा !हाथ में सहारे के लिए एक छड़ी,प्रेस किया हुआ सफ़ेद कुर्ता शर्मा जी के व्यक्तित्व को एक अलग ही पहचान देते।उम्र के सड़सठ वसंत देख चुके शर्मा जी नें संपूर्ण जीवन कड़े नियमों का पालन कर गुजारा।वे आज की जीवन शैली और नई पीढ़ी के तौर तरीकों से नाखुश थे।उन्हें लगता था कि सांस्कृतिक धरोहर नई पीढ़ी के हाथों में आकर तहस नहस होती जा रही है।वर्ण व्यवस्था लुप्त होती जा रही है।इस तरह तो समाज गर्त में चला जायेगा,पुरखों की बनाई चतुर्वर्णीय व्यवस्था को आज की युवा पीढ़ी ने गड्डमड्ड कर दिया।
संस्कृति के रक्षक शर्मा जी की एक और विशेषता थी।उनमें एक अजीब सी सनक थी वर्ण व्यवस्था को लेकर,अध्यापक होकर भी शर्मा जी नें ताउम्र छुआछूत की परंपरा को कायम रखा।वो जाति से बाह्मण थे अतः अन्य जातियों से एक दूरी बनाकर रहते थे।सजातीय बंधुओं के साथ उनका मेलजोल अच्छा था,लेकिन शुद्र वर्ण के साथ उनका व्यवहार देखने लायक था।निम्न जाति का कोई व्यक्ति गलती से उनके संपर्क में आ जाता था तो वे सर्वप्रथम स्वयं को गंगाजल के छींटे से शुद्ध करते,घर भर में जल का छिड़काव करते।उनके सूती थैले में गंगाजल की एक शीशी हमेशा साथ रहती थी।मोहल्ले के सभी लोग शर्मा जी की इस विचित्र आदत से परिचित थे इसलिए वो खासतौर पर इस बात का ध्यान रखते थे।किसी भी सामजिक आयोजन में उनके लिए अलग से व्यवस्था की जाती।
आज के समय में इस तरह की बातों पर यकीन करना मुश्किल है लेकिन दूर दराज के गाँवों और कस्बों में आज भी इस तरह के सामाजिक भेद अभेद देखने को मिल जायेंगे।हालांकि शिक्षा की पकड़ मजबूत होने के साथ ही जातिगत बंधन ढीले हुए हैं,लोगों में चेतना जागृत हुई है लेकिन आज भी यदा कदा सदानंद शर्मा जैसे सवर्ण लोग देखने को मिल जायेंगे।सदानंद जी के इस रवैये के पीछे उनका पारिवारिक माहौल रहा है,उनकी माँ बहुत सख्त और जातिगत भेदभाव वाली महिला थी।उन्होंने अपने तीन पुत्रों को सिर्फ इसलिए विद्यालय नहीं भेजा क्योंकि वहाँ अन्य जातियों के लोग भी आते थे,उनके संपर्क में आकर धर्म भ्रष्ट करने का खतरा वो कतई नहीं ले सकती थी।सदानंद जी का भाग्य अच्छा था,पिताजी के समर्थन से किसी तरह शिक्षा पूर्ण की और शिक्षक बन गए।लेकिन माँ के दिए संस्कार उम्रभर उनके संगी बने रहे।वो चाहकर भी स्वयं को उनसे मुक्त नहीं कर पाए।
सदानंद शर्मा जी के परिवार में उनकी पत्नी के अलावा एक पुत्र और एक पुत्री थे।पत्नी धार्मिक विचारों की महिला थी,लेकिन सुलझी हुई,जातिगत बंधनों से दूर विनम्र महिला थी।पुत्री का विवाह कर दिया था,वो एक महानगर में सुखी दाम्पत्य जीवन का निर्वाह कर रही थी।पुत्र नें इंजीनियरिंग की शिक्षा ग्रहण की थी,आगे की पढाई के लिए विदेश जाने का इच्छुक था।शर्मा जी के लाख मना के बावजूद पत्नी के आग्रह पर आखिरकार पुत्र को विदेश जाने का मौका मिला।अब घर में सिर्फ पति पत्नी रह गए।शर्मा जी रिटायर होने के बाद का खाली समय कभी पार्क में जाकर तो कभी भगवान की भक्ति में व्यतीत हो रहा था।कभी कभार किसी मौके पर अपनी पुत्री के यहाँ भी मिलने चले जाते थे। वहाँ के 'सोसायटी' वाले तौर तरीके उन्हें हजम नहीं होते थे।
ऐसे ही एक मौके पर बेटी दामाद की शादी की वर्षगाँठ पर शर्मा जी मिलने गए।पहुंचे तो दरवाजे पर ताला लगा था।बेटी को फोन किया।बेटी और दामाद दोनों पास ही एक मार्किट में जरुरी सामान लेने गए हुए थे।बेटी नें पिता को आश्वस्त किया कि वो बहुत शीघ्र ही लौट आएंगे,थोड़ी देर नीचे गेस्ट रूम में इंतज़ार करें।शर्मा जी दरवाजे केे सामने खड़े होकर किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में सोच ही रहे थे कि तभी पड़ोस में रहने वाली बेटी की हमउम्र महिला वहाँ से गुजरी।उसने बहुत ही विनम्रता के साथ अपना परिचय दिया और अपने घर आने का आग्रह किया।शर्मा जी के दिमाग में जातिगत घंटियां बज तो रही थी लेकिन महिला की विनम्रता से प्रभावित होकर धीमी पड़ गई थी।मिसेज शर्मा नें भी तुरंत हरी झंडी दिखा दी।अंदर आते ही पड़ोसी महिला नें बहुत ही आत्मीयता व गर्मजोशी के साथ उनका स्वागत किया।उन्हें जलपान कराया।पड़ोसी महिला का घर बहुत ही साफ़ सुथरा और करीने से साजसज्जा युक्त था।महिला स्वयं एक ऊँचे ओहदे पर कार्यरत थी।बच्चे भी बहुत शालीनता के साथ शर्मा दंपत्ति के साथ पेश आ रहे थे।एक घंटा कब व्यतीत हुआ कुछ पता नहीं चल पाया।इतने में ही बेटी का फोन आया और इत्तला दी कि वो घर आ चुके हैं,वो भी अब ऊपर आ जाएं।
शर्मा दंपत्ति नें पड़ोसी परिवार का हृदय से शुक्रिया अदा किया और विदा ली।लंबे अरसे बाद बेटी से मिलने की बेताबी भी थी।
"सॉरी पापा,हमें लगा हम फटाफट जाकर आ जायेंगे,सजावट का सामान और केक आदि लेना था,पर रास्ते के ट्रैफिक नें सब गड़बड़ कर दी।"बेटी नें रुआँसे स्वर में कहा।
"आपको नाहक ही परेशानी हुई।मैं भी माफ़ी चाहता हूँ पापा जी।" दामाद नें कहा।
"अरे,कोई बात नहीं बेटा,हमें कोई परेशानी नहीं हुई।वो क्या नाम है तुम्हारी पड़ोसी मित्र का..सुधा..हाँ यही नाम बताया था..बहुत आवाभगत की उसने,बड़ी ही प्यारी है।हमें तो बहुत ख़ुशी हुई बेटा कि तुम शहर में रहकर भी इतने अच्छे माहौल में रह रही हो।जरूर ब्राह्मण ही होगी..क्यूँ!सही कह रहा हूँ न रश्मि?"शर्मा जी नें एक सांस में ही सारी बात कह डाली।
"पापा बैठो न आप आराम से।मुझे भी तो कुछ करने का मौका दीजिये।"
"तुम बस पास आकर बैठो,आराम से बातें करेंगे,बड़े दिनों बाद मिले हैं बेटा..कुछ मत करो।हमने जलपान ले लिया था बहुत अच्छे से।"मिसेज शर्मा नें कहा।
"रश्मि तुमने बताया नहीं,तुम्हारे पड़ोसी जिनसे हम अभी मिलकर आये हैं, वो ब्राह्मण ही हैं न!"शर्मा जी की बेचैनी बढ़ती जा रही थी।
"पापा...मैं सच कहूं तो यहाँ कोई किसी की जाति नहीं पूछता।सभी पढ़े लिखे समझदार और सभ्य लोग हैं।एक ही ऑफिस में काम करते हैं,अच्छे पद पर हैं..क्या इतना काफी नहीं है!"
"बेटा कैसी बात कर रही हो!लगता है शहर का रंग तुमपर भी चढ़ता जा रहा है..तुम हमारी संस्कृति का अपमान कर रही हो।"शर्मा जी नें नाराजगी दिखाते हुए कहा।
"पापा, सुनिये..हम लोग एक सोसायटी में रहते हैं।सभी उत्सव,सभी त्यौहार मिलकर मनाते हैं।जमाना बदल चुका है,अब वो पुराने जातिगत बंधन नहीं रहे पापा।सभी बहुत अच्छे से,साफ़ सुथरी जीवन शैली के साथ जीते हैं।जाति पूछकर अपमान समझा जाता है।आप इस बात को समझिये।आपके दोनों नाती सोसायटी के सभी बच्चों के साथ खेलते हैं,इसमें कोई बुराई नहीं है।"
"रश्मि तुम्हें हवा लग गई है यहाँ की।वही हुआ जिसका मुझे डर था"
"नहीं पापा, ऐसा नहीं है।अच्छा एक बात बताइये..आपको क्यूँ लगा कि मेरी पड़ोसी दोस्त जाति से ब्राह्मण ही है!"
"भई, इसमें लगने वाली क्या बात है,इतनी शुद्धता और स्वच्छता से ब्राह्मण ही रह सकते हैं,उसके बात करने का ढंग..उसके बच्चों के संस्कार..वाह..ये सब सवर्णों की ही विशेषता है बेटा।मेरा अब तक का तजुर्बा यही कहता है कि वो हमारी ही जाति से है।"शर्मा जी नें पूरे आत्मविश्वास के साथ दावा किया।
"और पापा अगर मैं कहूँ कि आपके तजुर्बे नें इस बार आपको धोखा दिया है तो!"
"क्या बोले जा रही हो..!!"
"हाँ,ये सच है,जिनके यहाँ आज आप जलपान ग्रहण करके आये हैं वो लोग जाति से शुद्र हैं।उनके पूर्वज स्वीपर का काम करते थे।"रश्मि नें झिझकते हुए बात ख़त्म की।
एक पल के लिए चुप्पी छा गई।शर्मा जी अवाक थे,उनका पीला पड़ चुका मुँह देखने लायक था।
"हे मेरे राम!!!! ये कैसा अनर्थ हो गया मुझसे।अछूत के घर जलपान तक कर आये!!..छी छी..
नहीं ये सब झूठ है,कोरी बकवास है..मेरे जीवन भर के सारे सत्कर्म एक क्षण में कैसे नष्ट हो सकते हैं!ये मुझसे क्या हो गया!!"शर्मा जी क्रोध की अग्नि में जलकर कुछ न कुछ बड़बड़ाये जा रहे थे।
"पापा ..आप शांत हो जाइये।कुछ नहीं हुआ है,आपके सत्कर्म हमेशा आपके साथ रहेंगे,और वैसे भी आज का समाज कर्म प्रधान है,कर्म अगर श्रेष्ट हैं तो जाति से अछूत भी ब्राह्मण,वणिक या क्षत्रिय हो सकता है।"रश्मि लगातार अपने उद्विग्न पिता को समझाने का प्रयास कर रही थी।
"रश्मि!!!..."शर्मा जी के गुस्से से घर की दीवारें गूंजने लगी।"तो क्या तू मुझे वर्ण व्यवस्था का पाठ पढ़ाएगी! पीढ़ियों से जो चला आ रहा है,उसे अपने चार दिन के किताबी ज्ञान से चुनौती देगी!!"
"पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए।मेरा इरादा आपको आहत करना बिल्कुल नहीं था।सब मेरी ही गलती है,आज न तो मैं हड़बड़ी में गलत समय पर बाजार जाती और न ही आपको मेरी दोस्त के यहाँ रुकना पड़ता।आप मेरे इस अक्षम्य अपराध के लिए जो भी सजा देंगे मुझे मंजूर होगा।पर आप प्लीज शांत हो जाइये,आपको पता है आप रक्तचाप के मरीज हैं।माँ, समझाइये न पापा को!"रश्मि रुआँसी हो उठी।
सदानंद जी बेटी की बात सुन थोड़ा नरम पड़े।लेकिन अभी भी उन्हें उनके साथ घटित 'अनर्थ' पर यकीन नहीं हो रहा था।वो बार बार किसी विक्षिप्त की भाँति खुद पर गंगाजल के छींटे दिए जा रहे थे।
"अजी,क्यों गरम हुए जा रहे हैं! ये तो सोचिये आज आपकी बेटी की वैवाहिकी वर्षगाँठ है।उसे आशीर्वाद दीजिये और जो हुआ उसे भूल जाइए।देखो तो कैसे बिचारी का मुँह लटक गया है!"मिसेज शर्मा माहौल को सुधारने का प्रयास कर रही थी।
"हम्म..भागवान अब तुम भी इनकी पार्टी में शामिल हो गई हो..!अच्छी बात है।अब मैं अकेला ही गंगा जी जाकर अपने सारे पाप धोकर आऊँगा।"शर्मा जी अब ठंडे पड़ चुके थे।
"अच्छा जी,ठीक है..जैसी आपकी मर्जी।हम तो कुछ नहीं बोलेंगे आगे से..।
तभी शर्मा जी के मोबाइल की घंटी बजी।स्क्रीन पर बेटे केशव की कॉल आ रही थी।केशव महीना भर पहले ही विदेश से लौटा था।लेकिन तबियत थोड़ी ठीक नहीं थी इसलिए बहन के घर आ नहीं पाया।शर्मा दंपत्ति बेटे को छोड़कर आना नहीं चाहते थे लेकिन केशव के काफी आग्रह करने पर आ गए।अचानक उसका कॉल देखकर एक बारगी दोनों के मन में आशंका हुई।
"पापा, कैसे हैं आप सब वहाँ, दीदी जीजाजी सब ठीक हैं न ?मुझे कहते हुए बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा,ख़ुशी के मौके पर बेकार ही आप सब को चिंता नहीं देना चाहता था लेकिन..."।कहते कहते बीच में ही केशव को खाँसी का दौरा आया।
"केशव बेटा.. क्या हुआ तुझे..सब ठीक तो है न?ये खाँसी इतनी तेज कैसे?"शर्मा दंपत्ति के सम्मिलित स्वर में चिंता झलक रही थी।
"कुछ नहीं पापा, मुझे साँस लेने में तकलीफ हो रही है।मेरे ख़याल से अब मुझे डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा।आपको बताना जरूरी लगा इसलिए फोन किया,आप व्यर्थ चिंता न करें..आराम से आ जाइये..मुझे लगता है मामूली सर्दी बुखार है,दवाई लूंगा ठीक हो जाऊंगा।"
"बेटा, कहीं ये वही तो नहीं..जो आजकल फ़ैल रहा है हर जगह..."?मिसेज शर्मा नें चिंतित होकर कहा।
"क्यूँ व्यर्थ धड़कनें बढ़ा रही हो..शुभ शुभ बोलो..उस बीमारी का तो नाम ही बुरा..सर्दी हो गई होगी।तुम्हारे जादुई काढ़े से देखना सब छूमंतर हो जायेगा।"शर्मा जी नें बीच में टोकते हुए कहा।
"हाँ ,माँ..पापा सही कह रहे हैं,केशव बिल्कुल ठीक है,डॉक्टर के पास जा रहा है न..ठीक हो जायेगा।"बेटी नें आश्वस्त किया।
"सही कह रही हो,पर माँ का मन है न..बुरी आशंकाएं पहले आती हैं,पता नहीं क्यूँ बेटा, बहुत जी घबरा रहा है।मुझे लगता है हमें जल्द ही वहाँ होना चाहिए, इस वक्त केशव को जरूरत है हमारी।"
"ओह माँ !चली जाना बस आज आज रुक जाओ।मुझे भी बहुत फ़िक्र है केशव की, पर इस वक्त कहाँ जायेंगे आप दोनों और कब पहुंचेंगे?हमनें तो अभी तक दो घड़ी बैठ के बात भी नहीं करी।इतने समय बाद आये हैं आप दोनों।"
"ठीक है बेटा,पर कल सुबह पांच बजे ही हम निकल लेंगे ताकि जल्द से जल्द पहुँच सकें।"
शर्मा जी नें घोषणा की।
सुबह पौं फटते ही शर्मा दंपत्ति वहाँ से चले गए।
घर पहुँचने पर दरवाजा खोलते ही केशव का मास्क लगा चेहरा देखकर घबरा गए।केशव थोड़ा पीछे हटकर खड़ा था।
"बेटा ये सब क्या है,हटाओ इसे! क्या हुआ तुम्हें?"
"माँ, आप अंदर बैठो आराम से।दरवाजे पर ही सब पूछ डालोगी क्या!"
"डॉक्टर को दिखाया था न कल।लक्षण देखकर डॉक्टर नें ही कहा है मास्क लगाने को।एहतियात बरतने की सलाह दी है।उन्हें आशंका है कि कहीं...."
"कहीं...?कोरोना तो नहीं...!!"शर्मा जी नें बीच में ही पूछा।
"हाँ पापा, उन्हें ऐसा लग रहा है।"
"ये डॉक्टर लोग तो कुछ भी बोलते हैं,कुछ नहीं हुआ तुझे,मस्त रह।तेरी माँ अभी काढ़ा बना देगी।"
"पापा, टेस्ट हुआ है...रिपोर्ट कल तक आ जायेगी।"केशव नें  रुंआसा होकर कहा।
टेस्ट का नाम सुनते ही मिसेज शर्मा का चेहरा पीला पड़ गया।अजीब अजीब से खयाल उन्हें आ रहे थे।सारी रात बेचैनी भरी करवटों में बिताई।अगली सुबह की प्रतीक्षा थी।घड़ी भी मानो बहुत इत्मीनान के साथ धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी।समय काटने को दौड़ रहा था।
क्या होगा।कहीं हमारे केशव को भी सचमुच? नहीं नहीं..ऐसा नहीं हो सकता।ईश्वर इतना कठोर नहीं हो सकता।
सुबह हुई।मिसेज शर्मा घर के बने मंदिर में बैठी रही।मन में बेचैनी थी।वो लगातार किसी अनिष्ट को टालने का मंत्र जाप करती रही।
केशव टेस्ट की रिपोर्ट लेने गया।काँपते हाथों से रिपोर्ट देखी।आँखों पर यकीन नहीं हुआ।चारों ओर अँधेरा छाने लगा।रिपोर्ट पॉजिटिव थी।
केशव को वहीं रोक लिया गया।
जंगल में आग की तरह ये खबर हर जगह फ़ैल गई।शर्मा दंपत्ति की हालात तो मानो.. काटो तो खून नहीं।
कुछ ही देर में सायरन बजाती एम्बुलेंस आयी। सिर से पैर तक पूरी तरह ढके स्वास्थ्य कर्मियों नें शर्मा दंपत्ति को एम्बुलेंस में बिठा लिया।सारा मोहल्ला आँखें फाड़ फाड़ इस नज़ारे को देख रहा था।ज्यादातर लोग वीडियो बनाने में लगे हुए थे।
शर्मा दंपत्ति का भी टेस्ट किया गया।दुर्भाग्य से दोनों पॉजिटिव निकले।शर्मा परिवार के तीनों सदस्य क्वारनटीन किये गए।साथ ही उन लोगों को भी छानबीन कर क्वारनटीन किया गया जो बीते कुछ दिनों से इनके संपर्क में आये।शर्मा जी की बेटी और दामाद साथ ही उन पड़ोसियों को भी नियमानुसार होम क्वारंटीन किया गया।
केशव चूँकि स्वस्थ नौजवान था इसलिए ठीक होने में उसे ज्यादा समय नहीं लगा।लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर शर्मा दंपत्ति को बहुत सी बीमारियों नें घेरा हुआ था।स्वास्थ्य कर्मियों के अथक प्रयत्नों से आखिरकार एक महीने में दोनों स्वस्थ घोषित किये गए।
शर्मा परिवार घर लौट आया।लेकिन अब लोगों का उनको देखने का नजरिया बदल चुका था।मोहल्ले के सभी लोग उन्हें अजीब नजरों से देखने लगे।उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार किया जाने लगा।उनके निकट पड़ोसियों नें उनसे पूर्णतः संपर्क तोड़ लिया।दूधवाले से लेकर अखबार वाले तक को उन्हें दूध और अखबार देने से मना किया।शर्मा परिवार के लिए ये बहुत विकट घड़ी थी।कोई भी उनसे न बात करता और न ही उनसे कोई मेल मिलाप रखता यद्यपि वो पूरी तरह उस बीमारी से उबर चुके थे फिर भी समाज तो समाज है! बहुत सी चीजें अंदर तक पैठ जमा लेती हैं फिर उन्हें निकालना या दूर करना बेहद दुष्कर कार्य होता है।बिल्कुल उस वर्ण व्यवस्था की तरह जिसका अक्षरशः पालन शर्मा जी करते आये हैं।ये वही समाज था जिसके साथ शर्मा जी नें एक उम्र छूत अछूत का सामाजिक खेल खेला।और अब वही समाज उनसे पूरी तरह अछूत की भाँति व्यवहार कर रहा था।ईश्वर के खेल सबसे निराले हैं।जो भी हम समाज को देते हैं वो एक दिन लौटकर हमारे पास जरूर आता है फिर चाहे वो सम्मान हो,प्रेम हो या तिरस्कार !
समाज से एक तरह बहिष्कृत शर्मा जी को जीवन भर का लेखा जोखा स्मरण हो आया।उन्हें पहली बार अपने किये हुए आचरण पर शर्मिंदगी महसूस हुई।पर अफ़सोस प्रकृति को ये सबक सिखाने के लिए महामारी का सहारा लेना पड़ा।

अल्पना


अन्वेषण


अन्वेषण

इन दिनों
तमाम शहर में
जारी है
उसकी तलाश..
बुद्धिजीवियों नें झोंक रखी है
अपनी संपूर्ण ताकत,
कहाँ कहाँ नहीं ढूंढा!
फुटपाथ,सड़कें
रेल की पटरियां,
राशन की कतार में
सोम प्रेमियों की पंक्ति में,
धर्मालयों के अहाते से लेकर
बाजार की गली कूंचों तक..
रात दिन एक कर दिया
अन्वेषणकारियों नें
कि पता लगा सकें
उसका उद्गम,
आकार प्रकार,
रूप रंग,गंध या स्वाद!
कभी हुआ करते थे
उसके भी ठाठ,
जब एक फिरंगी
श्वेत चर्म प्रजाति नें
जमाई हुई थी
लंबी घुसपैठ,
उनकी छत्रछाया में
खूब धड़ल्ले से चल रही थी
उसकी दुकान..!
घुसपैठिये चले गए
या समझो
निकाल दिए गए!
मगर
पीछे रह गई
उनकी सौगात..
जिद्दी जात थी,
ऊपर से निकली
ठेठ देशभक्त!
उसे विशेष लगाव हो चला
श्वेत रंग से !
श्वेत चर्म न सही,
खादी श्वेत वस्त्र ही सही!
उसे पूरा यकीन था कि
अवश्य लौटेगा
उसका खोया हुआ सम्मान,
वो दिलाकर रहेंगे उसे
यथेष्ट समुचित स्थान!
श्वेत चर्म की गिरफ्त से
आजाद हो
वो अब खुलेआम
घूम रही थी
आजाद देश की
आजाद वासी..!!
खूब आड़े हाथों लिया
श्वेत वस्त्र धारियों नें,
पंचवर्षीय वायदों
अभियानों में,
हर जगह
परचम लहराती,
दिन दूनी रात गुनी
तरक्की करती हुई..
हाय !..न जाने किसकी
नजर लगी..!!
नजरबंद हुई या
कहीं चली गई !
बीते दिनों से
कोई खबर नहीं..!!
फिर किसी
भलमानुष
'अंतरजाल तंत्र' नें
चिल्ला चिल्ला कर
सूचना दी..
मिल ही गई !
आखिर मिल ही गई !!
ये देखिये
"क्वारनटीन सेंटर से सीधा प्रसारण..
कैसे एक दस साल की लड़की
गपागप खा गई
दस रोटियाँ और चावलों की ढेरी!!
देखिये कैसे
ये तेईस वर्षीय महिला
खा गई रिकॉर्डतोड़
चालीस रोटियाँ और
दस प्लेट चावल एक ही बार में !!"
तमाम देश देख रहा था
फटी आँखों से
'भूख' का वो
ताबड़तोड़ हाल..
कैसे दो निरीह प्राणी
एक युग से
भूख को
अंतस में छुपाए
अब तक
हवा और पानी
खाये जा रहे थे!!
उनकी आँखें
चमक रही थी
किसी बुझती हुई बाती में
अचानक गिरे तेल की भाँति..
महामारी दूर खड़ी
मुस्कुरा रही थी..
जैसे कोई मिशन पूरा हुआ हो,
न न ! इस बार मौत का मिशन नहीं
किसी को जिंदगी बख्शने का!!
और अंततः खोज संपूर्ण हुई
भई ! इसी की तो
तलाश थी..
'भूख' क्या होती है?
कैसी होती है?
क्या रंग होता है?
क्या आकार होता है?
सबके जवाब
आख़िरकार मिल ही गए..
जो काम कर न पाए
बुद्धिजीवी,
वैज्ञानिक,
अन्वेषणकर्ता
और
धर्मानुयायी...
वो कर दिखाया
एक अदनी सी
महामारी नें!!

अल्पना