Monday, 15 June 2020

माँ

माँ पर कविता

कभी लिख नहीं पाई
माँ पर कविता
नहीं जानती
आखिर किस तरह
समेटूं उसे शब्दों में!
वो जिसने शताब्दियों से
समेट कर रखा खुद को
ताकि विस्तार पा सके
उसकी संतति..
कभी देखा नहीं उसे
दो घड़ी सुस्ताते हुए,
वो मंद क़दमों से
चलती है निरन्तर
अपनी धुरी पर..
घड़ी की तीनों सुइयां बन
बाँध लेती है
समय की चाल को..
माँ जैसे
बांधकर रखती है
पैरों में
ऋतुओं के नुपूर..
छम छम ध्वनि कर
बरसती है
नेह भरी
दुआओं सी..!
वो जो एक युग से
बंद गुफाओं में
हवा,पानी या प्रकाश की
अनुपस्थिति में भी
पनप आती है
किसी हरित शैवाल की भाँति,
माँ वो है जो
पिता से हुई तकरार को
अक्सर बाँध लेती है
अपने जुड़े में,
वो जो देहरी से ही
बुहार देती है
बुरी बलाओं को,
समर्पण की अलगनी पर
सुखा आती है
नम हुए रिश्ते,
माँ वो है जो
गुँथ जाती है कुटुम्ब में
आटे की भाँति एकमेक,
जिम्मेदारियों के तवे पर
सेंकती है सोंधी रोटियां..
जिंदगी की तपती छत पर
स्वाद के आयाम रचती
पापड़,बड़ियां और मुरब्बा है माँ,
बड़े जतन से
सहेज कर रखती है
परम्पराओं और मान्यताओं को
अचार के मर्तबान में,
जाने कितने युगों से
बिछाकर रखा है माँ नें खुद को
उन मर्तबानों में
तेल की परत सा
कि कहीं लग न पाए
समय की फफूंदी कोई...!
माँ हड़प्पा की वही मृण्मूर्ति है
जिसकी कोख से
निकल रहा था नन्हा पौधा..
सभ्यता विलुप्त हो गई
लेकिन कोख से निकली सृष्टि
निरंतर है आज भी..!
माँ वो है जो
समेटे हुए है एकसाथ
धूप की उष्णता और
जल की नमी को खुद में,
लेकिन फिर भी संतुलित है..!
माँ वो लिपि है
जिसे समझने के लिए
जरूरत नहीं अक्षर ज्ञान की,
मैं उसकी समीक्षा करूँ भी तो क्या
जिसने रच डाला
संपूर्ण ब्रह्मांड..
जो व्यापक है
तुझमें मुझमें
हर कण में...!
एक कालजयी रचनाकार है माँ..!

अल्पना नागर

#mother

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