Sunday, 21 June 2020

नदी और नारी

नदी और नारी

क्षणिकाएं

(1)

नदी करती है
श्रृंगार
जब भी पड़ती है
प्रियतम
सूरज की नजर..
जगमगाने लगते हैं
उसकी देह पर जड़े
असंख्य सितारे..!
वो झूमती है
बलखाती है
लगने लगती है
नई नवेली दुल्हन
जब ओढ़ती है
सावन की ओढ़नी..!

(2)

उसकी कमर के मोड़ पर
नृत्य करती हैं दिशाएं..
वो जब बांधकर आती है
पैरों में
ऋतुओं के नुपूर..
आसमान झूमता है,
बरसता है संगीत
और देखते ही देखते
धानी हो उठता है
प्रकृति का आँचल..!

(3)
उसके अंदर भी
छिपी है
एक नदी..
चाहे नजर आती हो
बाहर से
अत्यंत शुष्क और
आधुनिका..!

(4)

वो नदी है
बांधकर रखोगे
तो भी देगी
सुविधाओं की सौगात !
मगर इतना भी
मत लो
सब्र का इम्तेहान
कि फट पड़े
उसके सब्र का बांध..!

(5)
वो जानती है हुनर
धारा के संग बहने का,
मीठी है मगर
मिलना है खारे सागर में
वो भी बिना शिकायत
नियति मानकर..!

(6)
फसलें झूम रही हैं
चख चुकी हैं
माँ के हाथ का दाना पानी..
नसों में दौड़ रहा है
उसके वात्सल्य का लहू,
जिंदा रहने को
बस इतना काफी है...!

(7)

भला उससे बेहतर
कौन जानेगा
गृह त्यागने और
कभी न लौट पाने का दुःख..!

(8)

कल देखा उसे
सूखकर काँटा हो गई
भुरभुरी रेत सी
विक्षिप्त की भाँति
इधर उधर उड़ती
अस्तित्व खोजती
एक नदी..!
अंतस में छुपी नमी
आज भी तलाश रही है
दो बूँद
नेह भरी बारिश ..!

(9)

नदी तलाश रहे थे
नगर..
नगर बस चुके!
अब नदी तलाश रही है
अपना घर..
किनारे पड़ी है
होकर बदरंग
किसे खबर
वो जाये किधर..!

(10)
वो चुपचाप बहती है
तुम ध्यान दो या न दो
मौन होकर भी वो अक्सर
बहुत कुछ कहती है..
तुम्हारे खुश्क व्यवहार पर भी
हरित करती जाती है
हर एक कोना..
जान डालती है
तुम्हारी बेजान दुनिया में..!
नदी है वो
समर्पण का सुख
जानती है..!
कभी गौर से सुनना उसे
हो सके तो
किनारे से नहीं
भीतर उतरकर..!

Alpana Nagar
#short poems

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