Thursday, 11 June 2020

भूलने का सुख

आलेख
भूलने का सुख

भूल जाने का एक अलग ही सुख है।सुनकर थोड़ा अजीब लग रहा होगा..भला भूलने में क्या सुख! जी हाँ, सही सुना इसके फायदे ही फायदे हैं नुकसान कुछ नहीं।आज के हाईटेक ज़माने में सब कुछ इतना ज्यादा तेजी से घटित हो रहा है कि दिमाग चकरघन्नी हो जाये! हम अपने दिन की शुरुआत एक खाली अलमारी की तरह करते हैं,इक्की दुक्की चीजें रखी होती हैं वो भी व्यवस्थित तरीके से,लेकिन शाम होते होते इतना ज्यादा भर जाती है कि अलमारी खोलने का साहस ही नहीं होता! कारण उसमें ठूँस ठूँस कर भरे गए जबरदस्ती के विचार,किसी का भाले की तरह फेंका गया कटाक्ष, किसी का बेवजह अनदेखा करना तो किसी से यूँ ही हुई व्यर्थ की बहस! कई बार अलमारी इतनी बुरी तरह भर जाती है कि खोलने के साथ ही सारा कुछ दिन भर का इक्कट्ठा किया हुआ सामान यकायक आपके ऊपर! आपका अस्तित्व ऊपर से नीचे तक उन्हीं के नीचे दबा हुआ ! हमारा दिमाग भी कुछ ऐसा ही है अलमारी जैसा,हम चाहते हैं कि नया कुछ आ सके इसके लिए पुराने इक्कट्ठे किये कबाड़ को फेंकना होगा,मन पर पत्थर रखकर ही सही लेकिन करना होगा अन्यथा यही होगा,एक दिन सारा कबाड़ हमारे ही ऊपर!
हम लोग इतनी आसानी से कहाँ भूल पाते हैं चीजें! अगर गलती से किसी नें हमारी सल्तनत में हमारे खिलाफ गुस्ताखी कर दी तो हम क्रोधाग्नि में जलते रहते हैं न जाने कितने दिनों तक उस इंसान को नीचा दिखाने का अवसर तलाशते रहते हैं।सोशल मीडिया इसमें बहुत अच्छे से अपनी भूमिका निभा रहा है।लोग वक्त बेवक्त 'चेहरों की किताब' वाली अपनी 'भित्ति' को तरह तरह के आयुधों से सजाते रहते हैं,लगे रहते हैं भित्ति को मनमाफिक चित्रों से रंगने में..एक अलग ही किस्म का आनंद आता है जब भित्ति चित्रों के जरिये सामने वाले तक आपका तीर एकदम निशाने पर लग जाये! चाँदमारी युग है भई ! सभी लगे हुए हैं निशानेबाजी में..समय की कसौटी पर अपनी दक्षता को साधने में।इसी तरह एक और प्लेटफॉर्म है. ..उसमें काफी समय से 'स्टेटस' नाम का नया अध्याय जुड़ा हुआ है।यथा नाम तथा गुण ! वहाँ तो और भी जबरदस्त तरीके से शीत युद्ध के नए नए आयाम निकालकर आ रहे हैं।डिजिटल बाजार में बने बनाये एक से एक पोस्टर मिल जायेंगे चिपकाने को..रोज लगाइए...रोज सुकून पाइए ! पड़ोसन को नई साड़ी दिखाकर चिढाना हो या आपकी ताज़ातरीन खरीददारी का प्रदर्शन करना हो,या कहीं घूमकर आए हो..'स्टेटस' है न !चिपका दो,फिर सुलगते रहें लोग चाहे ! उद्देश्य सफल !
हम लोगों के साथ एक और समस्या है,भूलने का सुख अर्जित करें तो कैसे करें?भला भूल जाने के लिए भी कोई दान दक्षिणा करता है !फिर नाम अजर अमर कैसे होगा,चिंतनीय विषय है।छुटपन में देखा करती थी,शादी ब्याह में या किसी अवसर में भेंट मिली थाली कटोरियों पर भी देने वाले का नाम खुदा रहता था,कई बार मम्मी को पूछ पूछ कर कान पका डालती थी,ये नाम क्यूँ खुदे हैं..अब भला मम्मी क्या जवाब दे ! फिर थोड़ा बड़ी हुई तो पार्क आदि में बैठने की कुर्सियों पर भी नाम अंकित दिख जाता था..फलां सिंह नें इतने रूपये देकर सेवार्थ ये निर्माण कार्य कराया है..कभी मंदिर आदि में भी कहीं न कहीं ऐसा ही नजारा दिख जाता था।कुछ कुछ समझ आने लगा था।अजर अमर की परिभाषा तो ज्ञात नहीं थी उस वक्त लेकिन हाँ.. नाम खुदवाने से जो असीम तृप्ति वाला सुख मिलता है वो समझ आ गया था।पापा के एक परिचित थे,हमारा उनके घर काफी आना जाना था।छुटपन की कई स्मृतियां
जिंदगीभर आपके साथ रहती हैं,उन्हीं स्मृतियों में से एक ये भी था..अंकल सामजिक रूप से काफी सक्रिय थे।हम लोग आज भी उन्हें 'सरपंच अंकल' के नाम से याद रखते हैं जिसकी उन्हें अभी तक जानकारी नहीं..! हाँ तो सरपंच अंकल को दान धर्म का बहुत शौक था।आये दिन उनकी तस्वीर लोकल अखबारों में छाई रहती थी।कभी पक्षियों के लिए परिंडे लगवाते हुए तो कभी स्कूलों में स्वेटर वितरित करते हुए।उन्होंने अख़बार की हर कटिंग को फ्रेम कराया हुआ था,घर में प्रवेश करते ही ड्राइंग रूम पूरा उन फ्रेम कराई तस्वीरों से सुसज्जित रहता था। वो अपने घर आने वाले हर परिचित को उस विषय में विस्तार से अवगत कराते।उनके चेहरे पर अंकित वो असीम सुख के भाव आज भी स्मृतियों में अंकित हैं।वैसे इसमें कोई बुराई नहीं इस बहाने कमसकम आपसे नेक कार्य तो हो रहा है।मगर एक बात तो निश्चित है..भूलना आसान कार्य नहीं..विशेष रूप से दान का कार्य।
कई बार लगता है प्रकृति कितनी भोली है..इतना कुछ हमें मुफ्त में दे देती है वो भी अजर अमर होने के सुख की परवाह किये बैगर ! पेड़ पौधे फल सब्जियां देते हैं हम जैसों को..नदी दिन रात बहती है हमारे लिए..सूरज हमारे लिए धधकता है..धरती माँ हमारे लिए घूमती है..दिन रात हमारे आगे पीछे चकरघिन्नी रहती है..पशु भी हमें दूध देते हैं..क्यों भला! बिना फोटो खिंचाए बिना क्रेडिट लिए..आखिर क्यों भई ! इनमें भी चेतना जागृत होनी चाहिए..समय के साथ बदलाव आना चाहिए।हाईटेक तो इनका होना भी बनता है।
किसी को निस्वार्थ भाव से कुछ देने का सुख क्या होता है उसके लिए नाम का अजर अमर होने का सुख तो भुलाना होगा।ऐसा नहीं है दुनिया में सदा मन को व्यथित करने वाले कार्य ही होते हैं।इन दिनों 'साड़ी चैलेंज' ट्रेंड के अलावा एक और ट्रेंड चल रहा है जिसे सुनकर सचमुच अच्छा लगेगा।सोशल मीडिया में भी काफी वायरल है इन दिनों।क्या आपने कभी सुना है 'सस्पेंडेड कॉफी या सस्पेंडेड मील' के बारे में? पश्चिमी देशों में ऐसा हो रहा है।जिसमें ग्राहक अगर पाँच कॉफी और दो संस्पेंडेड कॉफी ऑर्डर करता है तो वो सिर्फ तीन कॉफी लेता है और बाकी दो कॉफी काउंटर पर ही छोड़ देता है,जबकि पैसे वो पांच कॉफी के चुकाता है।इसी तरह अगर कोई दो खाने के पैकेट के साथ दो सस्पेंडेड खाने के पैकेट ऑर्डर करता है तो सिर्फ दो खाने के पैकेट लेता है बाकी दो पैकेट वहीं छोड़ देता है।कोई जरूरतमंद दुकान या रेस्टोरेंट में आकर जब पूछता है कि क्या कोई सस्पेंडेड खाना या कॉफी है तो उसे वो सब दे दिया जाता है।कितना सुन्दर और व्यवस्थित तरीका है किसी की मदद करने का! इससे देने वाले को भी सुकून मिलता है और लेने वाले जरूरतमंद को भी बिना अपने आत्मसम्मान से समझौता किये उदर क्षुधा शांति का सुथरा तरीका मिल जाता है।खैर ये तो हुई दुनिया की बात..हम लौटते हैं पुनः अपनी चर्चा पर..सब कुछ ठीक है बस अफ़सोस इसी बात का है कि किसी नें देखा ही नहीं..फ़ोटो तो ली ही नहीं..अखबारों में छपा ही नहीं..कहीं भोजन पर नाम तो खुदाया ही नहीं..अब नाम कैसे अजर अमर होगा! बड़ी दुविधा है! इस व्यथा का निराकरण है किसी के पास ?
Alpana nagar

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