Sunday, 28 June 2020

आलेख- भारतीय जीवन मूल्य

भारतीय जीवन मूल्य
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हम भारतीय आदिकाल से ही शाश्वत जीवन मूल्यों की वजह से समस्त विश्व में जाने जाते हैं।जीवन मूल्यों के बीज मनुष्य के जन्म लेने के साथ ही उसमें डलने शुरू हो जाते हैं।संस्कार नामक बेल थामकर आजीवन उन मूल्यों का निर्वाह किया जाता है।भारतीय जीवन मूल्य सच्चे मायनों में मनुष्य को मनुष्यता की ओर अग्रसर करने का कार्य करते हैं।संवेदनशीलता,सहिष्णुता,प्रेम,भाईचारा,आतिथ्य सत्कार,शत्रु से भी मित्रवत व्यवहार,अहिंसा,सर्वधर्म सद्भाव,आदि कुछ ऐसे मूल्य हैं जो संपूर्ण विश्व में भारतीयों की अलग पहचान बनाते हैं।आज हम अपने चारों ओर प्रगति का जो आवरण देख रहे हौं उसकी जड़ो में प्राचीन मूल्य ही है।प्रगति को हम अगर शरीर कहें तो मूल्य को आत्मा कह सकते हैं।ये हमारे जीवन मूल्य ही हैं जिनके निर्वाह के लिए रामचंद्र जी नें सहर्ष चौदह वर्ष का वनवास भोगा, पिता दशरथ नें दिए वचन की पालना की और मूल्यों को कायम रखा।माता सीता नें मूल्यों के निर्वाह के लिए अग्नि परीक्षा तक दी।मुगल काल में स्त्रियों नें सतीत्व को बचाये रखने के लिए प्राणों तक की बलि दी।वीर पुरुषों नें युद्ध स्थल पर केसरिया बाना पहनकर अंतिम साँस तक मूल्यों की रक्षा की।विवेकानंद द्वारा सुझाये जीवन मूल्यों की राह पर चलकर बहुत से स्वतंत्रता सैनानियों नें मृत्य पर्यन्त विदेशी आताताइयों से लोहा लिया।जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए ही शहीदों नें स्वतंत्रता के यज्ञ में प्राणों की आहुति दी,ताकि कोई और ताकत भारत पर अपना हक न जमा पाए,जबरदस्ती अपनी संस्कृति को भारतीयों पर थोप न पाए।हालांकि समय और परिस्थिति के हिसाब से मूल्यों के स्वरूप में भी परिवर्तन आया है।उचित और अनुचित को ध्यान में रखते हुए मूल्यों की पालना की जानी चाहिए।जो सती प्रथा मुगल आक्रमणकारियों से अपने सतीत्व को बचाने के लिए शुरू की गई थी वो आगे चलकर परम्परा में परिवर्तित हो गई।मुगल राज्य समाप्त हो गया लेकिन सती प्रथा चलती रही।स्वतंत्रता से पहले राजा राम मोहन राय नें जंग लगे अप्रासंगिक मूल्यों को नकार कर युग परिवर्तन का बिगुल बजाया।अपनी प्रिय भाभी की इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती ढोल नगाड़ों की आवाज में जयजयकार के उद्घोषणा स्वर नें जब उन्हें सती कर दिया गया तब विचलित राजा राम मोहन राय नें इसे कानूनन अवैध घोषित करने का बीड़ा उठाया।विधवा पुनर्विवाह को भी उस युग में आये जीवन मूल्यों के स्वरूप परिवर्तन से जोड़कर देखा जा सकता है।विवाह की आयु भी उसी दौरान सुनिश्चित की गई,अन्यथा बेमेल विवाह बेरोकटोक चले आ रहे थे।
जीवन मूल्यों नें अपना स्वरूप परिवर्तित किया है यद्दपि बहुत सारे मूल्य ऐसे हैं जो आज भी अक्षुण्ण हैं।जैसे हम भारतीय सृष्टि के कण कण में ईश्वरीय रूप के दर्शन करते हैं इसीलिए यहाँ अनादि काल से ही पेड़ पौधों पत्थरों एंव प्रकृति के विराट स्वरूपों नदी,सूर्य चंद्रमा आदि को पूजने की परंपरा रही है।प्रकृति के साथ समरसता के भाव के कारण 'मैं' का अभिमान नहीं रहा और पर्यावरण भी शुद्ध रहा।नदियां देवी स्वरूपा तो पहाड़ो में पितृ दर्शन करने की परंपरा रही है,भारत भूमि वो भूमि है जिसपर पैर रखने की विवशता के लिए प्रातः सबसे पहले भारतीय धरती माँ को छूकर क्षमा याचना करते हैं।एक ओर जहाँ विश्व भर में मनुष्य आत्मकेंद्रित होकर खुद में सिमटता जा रहा है वहीं दूसरी ओर भारतीय मूक पशुओं पर भी स्नेह लुटा रहे हैं।जड़ और चेतन के प्रति समरसता का भाव आज भी महत्वपूर्ण है।भारत में महानगरीय संस्कृति को छोड़कर गाँवों में आज भी पशुओं के लिए चारे पानी का व्यक्तिगत स्तर पर प्रबन्ध किया जाता है।गाँव जहाँ भारत की आत्मा बसती है आज भी जीवन मूल्यों से समृद्ध हैं।गाँवों कस्बों में आज भी पहली रोटी गाय के लिए निकाली जाती है।गाय को माता की तरह पूजा जाता है।गाय के अलावा गली के कुत्ते,बिल्ली,बैल,तोते,चिड़िया बुलबुल और भी न जाने किस किस के लिए दाना पानी का नियमित तौर पर प्रबंध किए जाने की परंपरा रही है।पशु पक्षियों में भी इंसानों के लिए आत्मीयता के भाव विकसित हो जाते हैं।गाँवो में छोटे बच्चे तक पशु पक्षियों के साथ निडर होकर रहते हैं।सहचर्य की ये भावना भारतीय जीवन मूल्यों की ही देन है।इन दिनों सारा विश्व महामारी के प्रकोप से जूझ रहा है।सुरक्षा के लिहाज से तालाबंदी के कारण पशु पक्षियों को भी पहले जितना दाना पानी नहीं मिल पा रहा।आवागमन बंद होने से कस्बों के आसपास के छोटे मोटे तीर्थ स्थलों पर भी यही समस्या देखने को मिल रही है।तीर्थ स्थलों को अगर पशु पक्षियों की प्राकृतिक शरण स्थली कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।भारत में मौजूद लगभग हर तीर्थ स्थल पर बंदर,गायें, कुत्ते एंव अन्य जीव जंतु निर्भीक होकर वास करते हैं।वहाँ जाने वाला हर व्यक्ति ईश्वर के प्राकृतिक स्वरूप में उन जीवों को देखता है,उन्हें खाने पीने की सामग्री से पोषित करता है।इसके पीछे धर्म कर्म की भावना है या निरीह पशु पक्षियों के प्रति प्रेम जो भी है मनुष्य समाज के हित में है,जीवन मूल्यों के संरक्षण के हित में है।अभी हाल ही में विश्वव्यापी महामारी के दौरान हुई तालाबंदी पर अपना व्यक्तिगत अनुभव साझा कर रही हूँ।अपने पैतृक कस्बे में परिवार के साथ पास ही के एक रमणीय तीर्थ स्थल पर जाना हुआ।चूँकि परिवार में लंबे समय से ये परम्परा रही है कि सप्ताह में कम से कम एक बार जाकर पशु पक्षियों को भोजन दिया जाये।स्थल ज्यादा दूर नहीं है कस्बे से अतः ये परम्परा तालाबंदी में भी जारी रही।वहाँ बड़ी तादाद में बंदरों का वृहत समूह काफी समय से रह रहा है।बन्दर भी स्थानीय लोगों से काफी हिलमिल गए हैं अतः कोई हानि नहीं पहुंचाते।गाड़ी में लगभग तीस दर्जन केले भरकर हम लोग पहुँचे।गाड़ी से बाहर कदम रखते ही बंदरों नें घेरना शुरू कर दिया, वो जैसे आहट पहचान लेते हैं।इतना बड़ी संख्या में बंदर देखकर मुझे डर लगा और मैं पुनः गाड़ी के अंदर जाकर बैठ गई लेकिन मेरा अनुज वहीं रुक गया।उसकी आँखों में या हावभाव में लेशमात्र भी डर नहीं था।बड़े ही प्यार से एक एक कर सभी बंदरो को अपने हाथों से केले दे रहा था।बंदर भी बहुत उत्साहित थे।तभी समूह में से एक बंदर नें भाई की ओर गुस्से में देखा और आक्रमण की मुद्रा में झपटा लेकिन ठीक उसी वक्त बाकी बंदर उसे दूसरी तरफ ले गए मानो समझा रहे हों कि ये क्या कर रहा है,जो हमारे लिए खाना लेकर आया है उसी पर संदेह! कुछ ही देर में सब कुछ पहले जैसा हो गया वो गुस्सैल बंदर चुपचाप आकर पास में बैठ गया।दूर बैठे मैं इस रोचक नज़ारे को आश्चर्य भाव से देख रही थी।पशुओं में भी कितनी समझ और सहृदयता होती है वो नजदीक जाने से ही ज्ञात होती है।
कोरोना काल में ही भारत में घटित हुई एक और घटना नें हर भारतीय को अंदर तक झकझोर कर रख दिया।केरल में स्थानीय लोगों द्वारा महज व्यावसायिक लाभ के लिए एक गर्भवती हथिनी की निर्मम हत्या की गई।इस घटना को भारतीय मूल्यों के अपघटन के रूप में भी देखा जा रहा है।लेकिन जिस तरह चारों ओर आक्रोश के स्वर सुनाई दे रहे थे,हत्यारों को कड़ा दंड देने की मुहिम चलाई जा रही थी उसे देखकर यही लगता है भारतीय जीवन मूल्यों का अपघटन इतना भी सरल नहीं।मानवता बची हुई है और आगे भी जारी रहेगी।
कोरोना काल में ही जहाँ एक ओर सारा विश्व तालाबंदी की समस्या से परेशान होकर अवसाद ग्रस्त होता जा रहा है वहीं दूसरी ओर भारतीय इस दौर में भी परिवार के साथ स्मरणीय समय व्यतीत कर परम्परागत जीवन मूल्यों का निर्वाह कर रहे हैं।एक बार पुनः हमनें पश्चिमी अंधी दौड़ से बाहर निकलकर खुद को जीवन मूल्यों से संवारा है।संयुक्त परिवार के महत्व को समझा है।
वर्तमान की अनेकों समस्याओं का निदान हमारे प्राचीन भारतीय मूल्यों में निहित है।लेकिन हमारे साथ समस्या है कि जब तक उस पर पश्चिम की मोहर नहीं लग जाती हम मानते ही नहीं ! भारत में जन्मी योग पद्धति आज संपूर्ण विश्व में जानी और मानी जा रही है।सूर्योदय से पहले उठना भारतीय मूल्यों में आदिकाल से निहित है।जिस तरह सुबह सुबह हमें यातायात घनीभूत नहीं मिलता और अगर इंटरनेट पर भी कुछ आवश्यक कार्य बिना किसी गतिरोध के करना हो तो सुबह का समय ही उपयुक्त होता है, उसी तरह सुबह सुबह विचारों का आवागमन भी बिना किसी अवरोध के सुचारू रहता है।सकारात्मक तरंगें वातावरण में विद्यमान रहती हैं जिसका लाभ प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में ही लिया जा सकता है।ये परिपाटी प्राचीन ऋषि मुनियों के समय से चली आ रही है।आज सारे विश्व में कोरोना की वजह से शारीरिक स्वच्छता पर बल दिया जा रहा है लेकिन ये भी सदियों से हमारे जीवन मूल्यों का ही एक हिस्सा रहा है।हमारे यहाँ घरों में प्रवेश से पहले बाहर ही हाथ मुँह धोकर आने की परंपरा रही है जो आज तक कायम है।आज टीवी पर कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है।उसपर नेटफ्लिक्स जैसे वैब चैनल नें तो मनोरंजन की सारी अवधारणाएं ही बदल दी।ऐसे में दूरदर्शन पर किसी कार्यक्रम के दर्शन की कल्पना करना भी बेकार लगता है लेकिन फिर भी चौंकाने वाली बात है हाल ही में लॉक डाउन के दौरान दूरदर्शन पर प्रसारित पुराने धारावाहिकों समेत रामायण को बड़ी तादाद में सपरिवार देखा गया।एक सर्वे के मुताबिक लगभग आठ करोड़ लोगों ने इसका प्रसारण देखा।इसमें कोई हैरानी नहीं कि हमारे जीवन मूल्य लोककथाओं एंव कहानियों के माध्यम से आज भी हमारी आत्मा से गहरे जुड़े हुए हैं।प्रगतिशील होने के साथ साथ जीवन मूल्यों को न केवल श्रद्धा भाव से देखा जाना चाहिए अपितु जीवन में उतारा भी जाना चाहिए,तभी जीवन मूल्यों की रक्षा संभव है।

अल्पना नागर

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