तलब
हवा हुए वो दिन
जब आसमां से बरसती थी
दुआएं
और भीग जाते थे मन !
बरसती तो अब भी हैं
बदलियां,
मगर दिखाई देती हैं
चारों ओर
तनी हुई
रंग बिरंगी छतरियां !
सबके अपने बादल
अपनी अपनी छतरियां...
अतीत की झुर्रियों पर
अधुनातन प्लास्टिक सर्जरी का
आवरण ओढ़ता,
सन्नाटे सी पसरी धूल में
खाँसता,खीजता
उम्रदराज होता मेरा शहर..
कनखियों से देख रहा है
विपरीत ध्रुवों की
अगन जल जुगलबंदी!
किस तरह
हमाम से निकल
सड़कों पर आ धमके
धड़ल्ले से घूम रहे नंगे,
हाथ बांधे
सभ्य शालीन
उन्मादी वो रंग बिरंगे..!
आज फिर
लगी है तलब
मेरे शहर को धुँए की,
कि बरस रहा है पेट्रोल और
सुलग रहे हैं दंगे ! !
अल्पना नागर
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