Thursday, 11 June 2020

निरुत्तर

निरुत्तर

एक अरसे से
सुन रही हूँ
भीतर का शोर,
इतना कि
हो चुकी हूँ
पूर्णतः बहरी!
बाहर लहरा रहा है
जन सैलाब,
चाहती हूँ
उसमें उतरना
लेकिन किनारे रहकर!
इस दौरान
न जाने कितनी बार
करवटें ले चुकी है पृथ्वी,
कितनी बार
अंगड़ाइयां ले चुकी हैं
ऋतुएँ...
एक मैं हूँ
जो ठहरी हुई हूँ
चाक पर अधपके
मिट्टी के घड़े सी!
कोई मुझे पूछता है
समय क्या हुआ ?
मैं नहीं जानती!
मेरे समय की घड़ी में
तीनों सुइयां
दिखाई दे रही हैं
लगातार चलती हुई,
हौले..मध्यम..तीव्र
अपनी धुन में
खिसकती हुई सुइयां!
एक अरसे से साथ हैं
मगर फिर भी
एक दूसरे से
अंजान!
मेरे समय की घड़ी में
समय आगे निकल चुका है
बहुत आगे..
पीछे रह गई हूँ मैं
बीते समय की सुइयां
मरम्मत करती हुई!
कोई मुझसे पूछे
समय क्या हुआ!
मेरे पास उत्तर नहीं होता...

Alpana nagar

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