Wednesday, 3 June 2020

बिल्लो की गुल्लक

कहानी
बिल्लो की गुल्लक

पाँच साल की चुलबुली बिल्लो आज कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रही थी।मानों कोई खजाना हाथ लगने वाला हो।अपनी धुरी माँ के इर्द गिर्द गिलहरी की तरह नाचती,फुदकती बिल्लो एक हफ्ते से पूछे जा रही थी," माँ बताओ न,नवरात्रि कब से शुरू है?"
"का करना है तुझे नवरात्रि का?माता बिठाएगी का तू भी..!"कपड़े धोती माँ नें हँसकर पूछा।
"माता कैसे बिठाते हैं,तुम तो पहले से ही बैठी हुई हो.."।बड़ी बड़ी गोल आँखें मटकाती हुई बिल्लो नें पूछा।
"मोरी, मैया..देवी माँ की बात कर रही हूँ,जे सामने वाली बिल्डिंग के बड़े लोग जिनके यहाँ मैं काम करती हूँ.. नवरातन पे माता रानी को विधि से बिठावत हैं,पूजा पाठ करत हैं,तू जावत हैं न हर साल जीमन वास्ते ?"
"हाँ,तो इसलिए तो पूछ रही हूँ।इस बार कब है नवरात्रि?अच्छे अच्छे तोहफे मिलेंगे,अच्छा अच्छा खाना मिलेगा,पैसे मिलेंगे।"छोटे छोटे हाथ नचाती हुई बिल्लो नें मासूमियत से कहा।
"हम्म,समझ गई..क्यूँ तू रोज मेरे कान पका रही थी पूछ पूछ के..चल जा..दीनू काका से कैलेंडर ले आ भाग के.."।
बिल्लो झट से फुदकती हुई पड़ोस के दीनू काका से कैलेंडर लेकर आई।
"ये लो माँ..अब बताओ..कित्ते दिन रह गए..कब बुलाएँगे वो लोग..जल्दी जल्दी बताओ।"बिल्लो की जैसे ट्रेन छूटे जा रही थी।
"बता रही हूँ बाबा..रुको तो सही..अरे! ये तो कल से ही शुरू है।ले खुश हो जा..हो गई तेरी मुराद पूरी।"माँ नें हँसते हुए कहा।
बिल्लो बहुत खुश थी।नवरात्रि में मिलने वाले पैसे जोड़कर उसने अब तक कुल एक सौ बीस रुपये जमा कर लिए थे।कुछ नवरात्रि पर कंजक भोज में मिले पैसे थे तो कुछ उसने जोड़कर रखे थे बहुत दिनों से।कभी कभार घर आई बुआ या कोई रिश्तेदार जाते जाते उसकी नन्ही हथेलियों पर चंद रूपये रख जाते थे ताकि वो अपनी मनपसंद चीजें खा सके।लेकिन बिल्लो बड़ी समझदार थी,बाजार में मिलने वाली रंगबिरंगी खाने की चीजों पर उसका मन तो ललचाता था लेकिन वो अपनी गुल्लक में जमा पैसों को खर्च नहीं करती थी।
उस रात नन्ही बिल्लो की आँखों से नींद दूर दूर तक गायब थी।उसने बिस्तर पर जाने से पहले अपनी माँ को बोल दिया था कि उसे पांच बजे उठा दे।लेकिन बिस्तर पर नींद कहाँ थी!उसे तो इंतज़ार था अगली सुबह का,वो बार बार उठकर खिड़की से बाहर देखे जा रही थी,कब दिन निकले और कब वो तैयार होकर जाए।
बिल्लो रात भर अपनी छोटी छोटी उंगलियों पर हिसाब करती रही।
"अभी कुल पैसे हैं एक सौ बाइस..अभी भी कम पड़ रहे हैं पूरे अठाइस रुपए।वो बुड्ढे अंकल कित्ते बेकार हैं..एक रूपया भी कम नहीं कर रहे..पर क्यूँ करेंगे..वो सैंडल हैं ही इत्ती प्यारी!चाँदी सी चमकती,सुन्दर सुन्दर सैंडल।पर इस बार मैं वो सैंडल खरीद ही लूंगी।हर साल की तरह कल भी पैसे मिलेंगे।कित्ता मजा आएगा न,मैं बुआ वाली सुनहरी गोटे की फ्रॉक के साथ जब वो चाँदी सी चमकती सैंडल पहनूँगी..अहा!मीनू देखती ही रह जायेगी।बड़ी आई ..मुझे चिढ़ाती रहती है जब देखो तब।इस बार मैं उसे चिढाऊंगी।"बिल्लो का बालसुलभ मन रात भर कल्पनाओं में गोते लगा रहा था।सुबह के तीन बजे बिल्लो नहा धोकर तैयार हो गई।
"माँ उठो न,देखो दिन निकल आया है।पाँच बज गए न?"
"छुटकी, सो जा चुपचाप,अभी सवेरा होने में भोत टेम है.."।उनींदे स्वर में माँ नें कहा।
"मैं, लेट हो गई तो..फिर..?"बिल्लो को चिंता हो रही थी।
"कछु लेट न होई..अभी तो वो लोग भी नहीं उठे होंगे,तू सुबह पहले क्या करेगी वहाँ जाके!"आँखे बंद किये आधी नींद में माँ नें जवाब दिया।
"मैं जा रही हूँ बस..सोती रहो..कोई टेंसन ही नहीं है।"
"अरी मोरी मैया! जे का?तू नहा भी ली!!अभी तो सिर्फ तीन बजे हैं लाली..बाल गीले पड़े हैं तेरे,कंघी भी खुद ही कर ली!!इत्ती बड़ी हो गई मेरी बिल्लो..!"खिड़की से आती हल्की सी रोशनी में बिल्लो को देखकर माँ नें कहा।
"और नहीं तो का..!तोरे जगने का इंतज़ार करती!किसी को परवाह ही ना है मेरी..हुंह.."।बिल्लो नें मुँह बनाते हुए कहा।
"अच्छा ठीक है मेरी मैया,मैं पाँच बजते ही तुझे सामने वाली बिल्डिंग में छोड़ आऊँगी, बस खुश!"माँ नें आश्वस्त करते हुए कहा।
आखिर वो घड़ी आ ही पहुँची।पौं फटते ही बिल्लो सामने वाली सोसाइटी में एक एक कर कंजक भोज करके आयी।इस बार भी उसे भोज के अंत में अच्छे पैसे,मिठाइयां और गिफ्ट मिले।बिल्लो बहुत खुश थी,पूरे घर में चहकती फिर रही थी।आते ही अपनी गुल्लक संभाली,पैसे गिने।अब कुल जमा पैसे थे एक सौ पैंसठ रूपये।
"अरे वाह!सैंडल लेने के बाद भी पंद्रह रूपये बचेंगे..उनका क्या करुँगी..आलू टिक्की खाऊं या छोले भटूरे ! नहीं नहीं..अभी तो इत्ता कुछ खाके आई हूँ..ये मैं जमा करके रखूंगी।"ख़ुशी से चहकते हुए बिल्लो नें झटपट हिसाब लगाया।बिल्लो पढाई में भी कुशाग्र थी।
शाम होते ही बिल्लो फटाफट उसी दुकान पर पहुंची।पर तब तक सैंडल बिक चुकी थी।नन्हीं बिल्लो का चेहरा उतर आया।
"अच्छा अंकल,वैसी ही सैंडल और हैं क्या आपके पास?"बिल्लो नें उम्मीद नहीं छोड़ी।
"नहीं बेटा,सेम वैसी तो नहीं है पर मैं दूसरी दिखा देता हूँ उससे भी सुंदर।"
दुकानदार नें बहुत सी रंग बिरंगी सैंडल बिल्लो के सामने रखी।पर बिल्लो की नजरें चाँदी सी झिलमिल करती अपनी प्रिय सैंडल को ही ढूँढ़ रही थी।
"उससे सुंदर कोई नहीं हो सकती..।"उदास बिल्लो नें मन ही मन सोचा।
भारी क़दमों से बिल्लो उस दुकान से घर की ओर जाने लगी।
रास्ते में एक दूसरी दुकान पर उसकी नजरें ठहरी।वो वहीं रुक गई।बड़ी देर तक दुकान पर सुसज्जित चीजें निहारती रही।
"अंकल, वो ड्राइंग बॉक्स कितने का है?"
"तीस रुपए का है बेटा,लेना है तुम्हें?"
बिल्लो नें अपनी छोटी सी पैसों वाली पोटली संभाली।
"हाँ अंकल दे दो,कुछ कम करो न अंकल..प्लीज।"
"ठीक है गुड़िया,तुम्हारे लिए पच्चीस रूपये।"दुकानदार नें प्यार से बिल्लो के सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
बिल्लो नें ख़ुशी ख़ुशी पैसे थमाये।
"अच्छा अंकल.. और वो बालों का क्लिप कितने का है जिसपे फूल लगे हुए हैं?"
"चालीस रुपये का है बेटा, पर वो तो बड़े लोगों के लिए है जिनके बाल बड़े होते हैं..।"
"कोई नहीं अंकल आप दे दो,मुझे अपनी माँ के लिए चाहिए,और अंकल पैंतीस रूपये लगाना..प्लीज।"बिल्लो नें निवेदन किया।
"अच्छा,और कुछ..?"दुकानदार नें पूछा।
बिल्लो उंगलियों पर हिसाब लगा रही थी।"
"हम्म..वो रंग बिरंगी बिंदी वाला पैकेट भी दे दो।"
"मात्र दस रुपए बेटा..।"दुकानदार नें कहा।
"अच्छा अंकल वो लूडो कितने का है?"
"पचास रुपये का,इसमें पैसे कम नहीं होंगे बेटा।"
"कोई बात नहीं अंकल,आप दे दो..सब चीजें पैक कर दो..ये लीजिये कुल एक सौ बीस रूपये।"बिल्लो नें रूपये सौंपते हुए कहा।
"वाह बिटिया,तुम तो बड़ी होनहार हो..हिसाब भी कर लिया इतनी जल्दी!"दुकानदार के आश्चर्य का ठिकाना न था।
"जी अंकल,हमें गणित बहुत अच्छा लगता है,हमारी टीचर जी बहुत अच्छी तरह समझाती हैं हमें..।"बिल्लो नें चहकते हुए कहा।
सामान खरीदकर बिल्लो घर की ओर लौटी।अपनी पहली सफल खरीददारी पर उसे अलग ही तरह की सुकून भरी ख़ुशी का अनुभव हो रहा था।मोलभाव करना उसने अपनी माँ से कब सीख लिया शायद उसकी माँ को भी नहीं पता होगा।बहुत बारीकी से वो चीजें देखती थी,सीखती थी।उसने अपने दोनों भाई बहनों के लिए ड्राइंग बॉक्स और लूडो खेल ख़रीदा।अपनी माँ के लिए सुन्दर सा बालों का क्लिप और रंग बिरंगी बिंदी का पैकेट लिया।मगर खुद के लिए?खुद के लिए उसने कुछ नहीं लिया।ये किसी भी बच्चे के लिए असंभव लगने वाली बात है लेकिन बिल्लो की बात ही अलग थी।वो दूसरे बच्चों से बिल्कुल अलग थी।बहुत ही कम उम्र में उसने जिंदगी के इतने उतार चढ़ाव देखे।मात्र चार वर्ष की उम्र में अपने शराबी पिता को खो दिया।शराबी पिता का रोज धुत्त होकर घर आना,पैसों के लिए पत्नी से मारपीट करना,बेवजह आये दिन बच्चों के साथ मार पिटाई करना,इन सब घटनाओं को बिल्लो नें बेहद करीब से देखा,उसके नाजुक से बाल अवचेतन पर बहुत गहरा असर पड़ा।वो सहमी हुई रहती थी।मगर हालात के कड़ेपन नें उसे बहुत ही छोटी उम्र में मजबूत बना दिया।अभावों में रहने वाले बच्चे वक्त से पहले ही परिपक्वता का स्वाद चख लेते हैं,बिल्लो भी उन्हीं में से एक थी।उसमें संवेदना थी,पैसों की जिंदगी में क्या अहमियत है वो अच्छी तरह समझ चुकी थी।हाथ में पैसे होने पर परिवार के सभी सदस्यों के लिए उसने कुछ न कुछ लिया,खुशियां खरीदी लेकिन खुद के लिए कुछ नहीं खरीद पाई,शायद वो खुशियां बाँटने में ज्यादा खुश थी।
"अभी भी पैंतालीस रूपये बचे हैं।समझ नहीं आ रहा क्या लूँ खुद के लिए..सब कुछ है मेरे पास..बस वो चाँदी वाली सैंडिल को छोड़कर.!.कोई बात नहीं..फिर कभी सही।इन्हें गुल्लक में डाल दूंगी।सब लोग कित्ते खुश होंगे न..!बिल्लू तो लूडो देखकर उछलने लगेगा,कब से लाने को बोल रहा था।और बिटकी तो नाचने लगेगी जब इत्ता सुंदर ड्राइंग बॉक्स देखेगी!हम्म ..और माँ..! इन रंग बिरंगी गोल बिंदियों में माँ तो बिल्कुल मेरी टीचर जैसी दिखेगी,और वो नारंगी रंग के फूल वाला क्लिप..माँ के लंबे बालों में कित्ता सुंदर दिखेगा ! बस अब जल्दी से घर पहुंच जाऊँ,माँ को चिंता हो रही होगी।"बिल्लो मन ही मन सोचते हुए घर आ रही थी।
घर पहुंचते ही माँ नें उसे गले लगा लिया।वो उसे आस पड़ोस में सब जगह ढूंढ आई थी लेकिन बिल्लो कहीं नजर नहीं आई।समय बीतने के साथ ही माँ की फ़िक्र भी बढ़ती जा रही थी।अपनी बिल्लो को सामने देखकर कसकर गले लगा लिया।
"माँ, मैं बस पास में ही गई थी,इत्ती फ़िक्र काहे करती हो मेरी।अब मैं बड़ी हो गई ना !"
"बिल्लो दुबारा बिना बताये मत जाइयो..जान गले तक आ गई थी,पता है तोहे..जमाना कित्ता ख़राब है तू कछु नहीं जानती।"
"ठीक है माँ,अब गुस्सा मत करो।देखो मैं क्या लेकर आई तुम सब के लिए..बिल्लू,बिटकी सब आ जाओ जल्दी से..।"बिल्लो नें सामान निकालते हुए कहा।
"ओहो देखूं तो! इत्ते पैसे कहाँ से आये बिल्लो! गुल्लक में जोड़े तूने?सब के लिए इत्ता कुछ ले आई तू!और अपने लिए..कछु ना लाइ?"माँ नें सवालों की झड़ी लगा दी।
"कैसा लगा सब..?अच्छा है न?"बिल्लो नें बात टालते हुए कहा।
उसके भाई बहनों के लिए उत्सव जैसा माहौल हो गया।दोनों ख़ुशी से नाचने लगे।
"हम्म..सुन बिल्लो..मेरा एक काम करेगी ?तू रसोई में जा..आलू ले आ।आज तोरे मनपसंद आलू परांठे बनाउंगी।"माँ नें कहा।
"सच माँ ! आज तो ख़ुशी का दिन है।"
बिल्लो रसोई में गई।वहाँ आलू की टोकरी के पास एक डिब्बा भी रखा था।बिल्लो को जिज्ञासा हुई।उसने खोलकर देखा।उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ।
"अरे,ये तो वही सैंडल हैं जो बिक गई थी..।"बिल्लो हक्की बक्की थी।
"माँ..ये डिब्बा किसका है जो रसोई में रखा है?"बिल्लो नें रसोई से ही आवाज लगाते हुए पूछा।
"ले आ उसे बाहर।तोरे वास्ते ही लेकर आयी।पसंद हैं न तुझे?"माँ नें पुछा।
"हाँ माँ बहुत ज्यादा पसंद हैं..पर तोहे कैसे पता ?मैंने तो कभी नहीं बताया।"
"माँ हूँ ना बेटा.. इतनी पढ़ी लिखी तो नहीं पर तोरी नजरें अच्छी तरह पढ़ लेती हूँ।मुझे का खबर नहीं कि इत्ते टेम से तोहे वो सैंडल पसंद है,जब भी बाजार जाती थी कैसे टुकुर टुकुर देखती थी उनको..बस मैंने सोच लिया था इस बार अपनी बिल्लो के लिए वो लेकर रहूंगी।और देख..मेरी मालकिन नें इस बार खुस होके दो सौ रूपये ज्यादा दिए।"माँ नें ख़ुशी से चहकते हुए कहा।
बिल्लो की आँखों से ख़ुशी के आँसू झरने लगे।दूसरों को दी हुई ख़ुशी कई गुना होकर हमारे पास एक न एक दिन अवश्य लौटकर आती है।प्रकृति का भी यही विधान है।
बिल्लो कभी अपनी माँ को तो कभी अपनी प्रिय नई सैंडल को देख रही थी।आज सचमुच बहुत ख़ुशी का दिन था।

अल्पना नागर






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