Tuesday 28 July 2020

Lamp post

लैम्प पोस्ट

ये रात के अंतिम पहर की 
आखिरी ट्रेन है शायद
डिब्बों में सवार 
चुप्पी उतर रही है
एक एक कर..

स्टेशन खाली है
कोई नहीं है वहाँ..सिवाय
एक ऊँघती बुकस्टाल और
प्रतीक्षा सीट के..
जिसपर मौजूद है पहले से
अगल बगल मुँह लटकाए बैठी
उदासीनता का झुंड..!

सीट के नीचे 
बिखरे पड़े
कई जोड़ी जूते
व्यस्त हैं बातचीत में..
उनमें दिखाई देती है व्यग्रता
शीघ्रातिशीघ्र अन्यत्र जाने की..!

मैं शायद पता भूल गई हूँ
जाना कहाँ है/
कहाँ से आई हूँ/
और सबसे जरूरी सवाल
क्या करने आई हूँ !

खैर,कोई नई बात नहीं..
दूसरे काम भी अब तक
करती आई हूँ 'यूँ ही'..!
बिना किसी उत्तर की
प्रतीक्षा के..
क्योंकि करना होता है बस,
रेंगती चुप्पियों का
हिस्सा बनना होता है बस..!
फिर भी पूछ रही हूँ सवाल/
खालीपन से
लौट कर आ रहे हैं
वही सवाल मेरी ओर/
जैसे खाली कुँए से 
लौटकर आता है
खाली घड़ा और
खाली आवाजें..!

स्टेशन पर रेंग रही 
चुप्पी निकल गई है
सिर नीचा किये..
बिना कोई जवाब दिए/

बचा हुआ है सिर्फ एक
पीली रोशनी वाला लैम्प पोस्ट/
बेजुबानों की
एकमात्र शरणस्थली..
जो ओढ़ते हैं 
उसी पीली रोशनी का कंबल/
जमाने भर से 
दुत्कारे जाने के बाद..!
ठिठुरते शीत युग में
उम्मीद भरी 
रोशनी और गरमाहट लिए/
अंधेरे को दूर तक
खदेड़ता
पीली रोशनी वाला 
लैम्प पोस्ट..!
जैसे सुकून देती कोई
आत्मीय कविता..!

पीली रोशनी वाला 
लैम्प पोस्ट
शायद बता दे पता
मेरी उलझनों का/
रिक्त सवालों का..!
लैम्प पोस्ट नें 
किया है इशारा
उसी आखिरी ट्रेन की ओर/
आखिरी गंतव्य से आगे
एक नया रास्ता है..
अनदेखा/
अनचीन्हा/
जहाँ से जाना है पैदल
नितांत अकेले..!

अल्पना नागर






Sunday 26 July 2020

कशमकश

कशमकश

कशमकश में हूँ कि
तेज तर्रार छुरी बनूँ या
बनी रहूँ पानी सी सरल..!
किस तरह दिखाऊँ
आक्रोश अपना..
छुरी की धार पर या
पानी की धार पर..!!
जरूरी नहीं कि
छुरी ही काटती हो
अन्याय की जड़..
कभी कभी
शांत बहता निश्छल पानी भी
पैदा कर देता है
चार सौ चालीस वॉट वाली
तड़ित शक्ति..!
काट देता है
पत्थर के मुहाने..
बना देता है
बेतरतीब नुकीले पत्थरों को
गोल और चिकना..!
कशमकश में हूँ कि
कैसे बनूँ पानी !
जबकि शरीर का
साठ प्रतिशत भाग पानी है
फिर भी..
क्या सचमुच आसान है
पानी के गढ़ में
पानी बन टिक पाना..!
जबकि डूब चुकी है आधी दुनिया
चुल्लू भर पानी में..!!
कशमकश में हूँ कि
शंखनाद कर दूँ
बुराई के खिलाफ,
या छुप कर बैठ जाऊँ
भीतर कहीं
उसी शंख के खोल में..!
कशमकश में हूँ कि
बनी रहूँ मिट्टी की माधो
और जीती रहूँ
अपराधबोध या
आत्मग्लानि से भरा
बेबस बेफ़िक्र जीवन..
या फिर परवाज दूँ पंखों को
बिखेर दूँ शब्द शब्द
विद्रोह के..
ताकि हो सके अंकुरित
साहस का कोई बीज
उसी मिट्टी की कोख से..!
कशमकश में हूँ कि
मुक्त हो जाऊं
कशमकश से एक दिन
या फिर..
जीती रहूँ
यूँ ही हर दिन
ऊहापोह भरी निर्जीव मौत..!

अल्पना नागर













आलेख

आलेख
परेशानी का सुख

आज के सुविधाभोगी समय में कौन होना चाहता है परेशान ! और कौन होगा भला जो परेशानी में भी सुख की तलाश करे ! ये तलाश बड़ी अजीबोग़रीब है।इसे उलटबांसी जैसा कथ्य कहा जा सकता है।एकबारगी तो सुनकर ही ये आभास होता है कि कहीं हमने कुछ गलत तो नहीं सुन लिया।शीर्षक कुछ और तो नहीं..कहीं टंकण त्रुटि तो नहीं हो गई..!
आराम में सुख की तलाश तो हर कोई करता है।लेकिन अजीब बात है..गौरतलब है कि जिंदगी में जितना अधिक आराम मिला,जितनी अधिक सुविधाएं मिली उतना ही सुख दूर होता चला गया..गोया कि सोने चांदी की रखवाली करते वक्त रातों की नींद उड़ना स्वाभाविक है।आराम की अलमारी में सुविधाएं तो भर दी हमनें लेकिन सुकून की चाभी कहीं भूल आये! रही बात परेशानी में सुख ढूंढने की तो ये सुनने में भले ही अजीब लगे लेकिन है बहुत गूढ़ अर्थ लिए हुए।चाहो तो आजमा कर देख लो,जिस दिन परेशानी भरे लम्हों में सुख की तलाश करना शुरू कर दोगे..जिंदगी के मायने ही बदल जाएंगे।ये बिल्कुल वैसे ही है जैसे कीचड़ से लबालब भरे तालाब में कमल का खिलना।उस सुख की आप कल्पना भी नहीं कर सकते जो परेशानी भरे लम्हों से चुराया हुआ होता है।अगर हम अपने आसपास नजरें दौड़ाए तो हम देखेंगे कि बहुत से लोग और संस्थाएं ऐसी हैं जो सचमुच परेशानी में भी सुख तलाशने और सुकून देने जैसा नेक काम कर रही हैं।ज्यादा दूर न जाया जाए..हम अपने घर में भी देखें तो एक इंसान है जो रात दिन अपने सुख का बलिदान करके दूसरों के लिए सुख और सुकून अर्जित करने का माध्यम बनता है..जी,हाँ.. हमारी माँ जो बिना कोई नागा किये हर दिन हमें सुख की अनुभूति कराती है।वो भली भाँति जानती है परेशानी का सुख क्या होता है ! शायद मदर टेरेसा जो कि इंसानियत की सेवा सुश्रुसा करने के लिए सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हैं..अमर हैं..उन्हें 'मदर' की उपाधि इसी वजह से दी गई होगी।इसी तरह पिता जो कि जिंदगी भर दौड़ धूप करते हैं परेशान होते हैं ताकि संतति के लिए सुख उपलब्ध करा सके।थोड़ा और आगे जाएं तो आसपास के पेड़ पौधों को ही देखिए,कभी देखा है उन्हें भेदभाव करते हुए या पत्थर फेंकने का बदला पत्थर फेंककर पूरा करते हुए ! उन्हें तो हमनें उम्रभर फल फूल ही देते देखा है।उनसे बेहतर कौन जानेगा परेशानी में सुख देने का अर्थ ! हमारे समाज में भी अगर नजर घुमाएं तो देखेंगे कि किस तरह डॉक्टर्स अपनी परवाह किये बगैर समाज के हित में परेशानी मोल लेते हैं..किसी मरीज की जान बचाकर जो सुख उन्हें मिलता है वो शब्दों में बयां नहीं हो सकता शायद इसीलिए उन्हें भगवान की उपाधि दी गई है।इसी तरह सीमा पर हर घड़ी तैनात सैनिक तपती धूप हो या माईनस पचास डिग्री तापमान वो परेशानी झेलते हैं किसलिए..!ताकि हम लोग आराम से सुख के साथ निडर होकर जीवनयापन करें।आपने एक शब्द सुना होगा 'व्हिसल ब्लोअर'।वे व्यक्ति जो स्वयं की परवाह किये बैगर समाज की विसंगतियों को उजागर करते हैं,बिना किसी डर और हिचक के सामने आते हैं..व्यवस्था की पोल खोलते हैं,बदले में चाहे उन्हें गोली ठोककर मार दिया जाए या बम से उड़ा दिया जाए वो लेशमात्र भी इस बात पर विचार नहीं करते या करते भी होंगे तो उनके लिए 'स्व' से ऊपर 'हम' का भाव ज्यादा महत्वपूर्ण होता होगा जिसकी खातिर वो परेशानी उठाते हैं और मौत की पगडंडी पर चलने से भी हिचकते नहीं ! क्या इनका कोई परिवार नहीं होता होगा,पत्नी या प्रेमिका नहीं होती होगी..कोई भी जो इनके मार्ग को अवरुद्ध कर सके।देशहित या परहित जब स्वहित से ऊपर उठ जाता है तब इस तरह के निःस्वार्थ नायक पैदा होते हैं।वो लोग बेजान वस्तुओं जैसा जीवन जीना पसंद नहीं करते अपितु सजीव होकर निर्भीक मौत का चयन करते हैं।ये बिल्कुल आवश्यक नहीं कि इस राह में मौत या गुमनामी मिले लेकिन इस बात से बेपरवाह होकर जीना ही असल मायनों में जीना है..इसी में सुख है सुकून है।कुछ वर्ष पूर्व सुर्खियों में थी माल्टा की एक खोजी पत्रकार गाजीलिया जो कि 'रनिंग कमेंट्री' नाम से ब्लॉग भी चलाती थी।उसने देश में प्रचलित भ्रष्ट व्यवस्था और अधिकारियों की पोल खोलने के लिए रात दिन एक कर दिए।वो परेशान थी अपने देश की दीमकों से जिन्होंने नीचे ही नीचे देश को पूरी तरह खोखला कर दिया था।एक के बाद एक चौंकाने वाले तथ्य जुटाकर ला रही थी कि एक दिन उसकी कार को बम से उड़ा दिया गया।वो चली गई सदा के लिए..अपने पीछे कुछ सवाल छोड़कर।लोगों को जाग्रत करने के उद्देश्य में सफल रही भले ही इस समस्त घटनाक्रम में उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।खैर ये तो सिर्फ एक उदाहरण है,दुनिया भरी पड़ी है ऐसे लोगों से जो रोज इस तरह की परेशानी में सुख की तलाश के लिए निकलते रहते हैं,कभी राह चलते लावारिस अनाथ बच्चों के पालन पोषण का जिम्मा उठाते हैं तो कभी बेजुबान निरीह पशुओं की देखभाल का बीड़ा उठाते हैं।आखिर परेशानी की कीमत ही क्या है सिर्फ थोड़ा बहुत सुकून और क्या..!
किसी भी चीज का असली मूल्य उसे पाने के संघर्ष में छुपा होता है।वर्षभर कड़ी मेहनत की परेशानी झेलने के बाद ही विद्यार्थी अच्छे अंकों व सफलता का सुख महसूस कर पाते हैं,जैसे जेठ की तपती गर्मी के बाद राहत की बूँदों का बरसना और एक एक बूँद को अमृत की तरह महसूस करना।ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे कड़ी धूप में तपने के बाद किसान द्वारा अपनी लहलहाती फसल को देख सुकून की अनुभूति करना।अगर जेहमत न उठाई गई होती तो शायद संसार का कोई भी अविकसित या विकासशील देश आजादी का सुख देख नहीं पाता।रंगभेद की क्रूर दासत्व प्रवृति से मुक्त नहीं हो पाता।
अभी कुछ रोज पहले अखबारों और सोशल मीडिया पर खबर वायरल थी।महामारी के इस दौर में जहाँ लोग अपनी जान बचाये घरों में कैद हैं..कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस संकट की घड़ी में दूसरों के लिए अपना कीमती वक्त और ऊर्जा समर्पित कर रहे हैं।एक सरदार जी हैं जो दिनभर ढेरों रोटियां बनाकर जरूरतमंदों को ढूंढ ढूंढ कर बाँट रहे हैं..इन्हें क्या आवश्यकता आ पड़ी थी ये सब करने की वो भी महामारी के इस खौफ़नाक समय में ! लेकिन अभी भी इंसानियत बची हुई है जो परेशानी में ही सुख तलाश करती है।इन्हें ईश्वर के बंदे कहें तो कोई
अतिशयोक्ति नहीं होगी।इसी तरह कुछ और लोग भी हैं जो इस महामारी में मृत्यु का ग्रास बने उन लोगों को जिन्हें उनके अपने परिवार वाले भी भय के मारे लावारिस छोड़ देते हैं उन्हें पूरे विधि विधान और संस्कार के साथ अंतिम क्रियाकर्म में महती भूमिका अदा कर रहे हैं बिना अपनी जान की परवाह किये।दुनिया अभी अच्छे लोगों से खाली नहीं हुई है।सच बात तो ये है कि परेशानी में सुख ढूंढ पाना हर एक के बस की बात नहीं है।कोई भी व्यर्थ जेहमत नहीं उठाना चाहता।लोग बस जी रहे हैं जीवन किसी तरह अपने तक सीमित रहकर।परेशानी से उसी तरह बचकर निकल जाते हैं जैसे सड़क पर कुचला गया कोई आदमी या सरे राह गोलियों से भुन कर अंतिम सांस गिनता कोई अभागा !हमें कोई दरकार नहीं किसी भी व्यर्थ के पचड़े में पड़ने की।दुनिया जैसे चल रही है चलने दो!परेशानी में सुख तलाशकर कौन मुसीबत मोल लेगा ! काश अगर परेशानी का सुख अनुभूत करने जैसी छोटी मगर बेहद जरूरी बात अगर सभी को समझ आ जाये तो शायद दुनिया की आधी से अधिक समस्याएं तो यहीं खत्म हो जाएं।एक नई दुनिया हमें देखने को मिले जिसमें प्रेम,समर्पण और विश्वास का मजबूत रिश्ता कायम हो सके।स्वार्थ के घेरे से निकलकर निःस्वार्थ राह की ओर कदम बढ़ें तो सबकुछ बदला हुआ नजर आएगा।कथनी और करनी के अंतर को दूर कर सचमुच परेशानी में भी सुख ढूंढा जाए तो जीवन मूल्यों में भी आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिले।

अल्पना नागर

Thursday 23 July 2020

एक अहाता

एक अहाता

बिखरी चीजें
किसे पसंद हैं !
वो हँसते हैं मुझपर..
अजीब है,
पर पसंद है मुझे
बेतरतीब होना
इधर उधर बिखरा होना,
बिना किसी परवाह के
कि क्या होगा
जब देखेंगे चार लोग. ..!
वो चार लोग
रखते हैं सजाकर
हर वस्तु बेहद
करीने से..
भरते हैं उड़ती तितलियों को
जार भर प्रदर्शनी में !
खूबसूरत रंग बिरंगी
मखमली तितलियां..
जार के ढक्कन पर
चिपके होते हैं
कुछ रंग उनके
संघर्षों के..!
उन करीने से सजे घरों में
रोशन होती हैं दीवारें
उन्हीं तितलियों के
मखमली रंगों से..!
माफ करना
मुझे बागीचा भी नहीं पसंद,
करीने से लगे पेड़,
एक सीध में
अनुशासित पंक्तिबद्ध
पसंद नहीं कि
कोई आये और आकर कतर दे
अभी अभी ताजा खिली
घास के उठे हुए सर..
मुझे पसंद है
अहाता..!
बेतरतीब..बिखरा हुआ अहाता,
अहाते में
इधर उधर भागते बच्चों की
शैतान टोली से
आवारा झाड़ झंखाड़,
पाँव अंदर तक धंस जाए
इस कदर
रूह को गुदगुदाती
सर उठाती घास का स्पर्श..
जहाँ आती है धूप
बेरोकटोक..
मनमानियों की
फिसलपट्टी पर,
खेलती है जी भर
आँख मिचौली..
हाँ, मुझे पसंद है..!
धूप का हस्तक्षेप,
ईश का रूह से
सीधा मिलन..!
चाहती हूँ
उम्र भर रहे
मेरे अंदर पनपता
बेतरतीब
अहाता कोई..
दौड़ती रहें जहाँ
मनमर्ज़ियों की
तितलियां..गिलहरियां
और आती रहे
बेरोकटोक
रोशन धूप..
जहाँ सुस्ता सके
स्याह अंधेरों में लिपटी
मेरी बेचैन रूह..!

अल्पना नागर





Monday 20 July 2020

कविता

स्त्री और टोकनी

सुनो,
मैं वो नहीं हूँ
जिसे पढ़ते आये हो तुम
किताबों में अक्षर अक्षर..!
'साँवली सूरत..
फेनिल सी चमकती दंत पंक्तियां
बालों में खोंसती फूल पत्तियां..
नीम की अटारी पर चढ़
सूरज की बिंदी माथे लगाती..
झूम झूमकर कजरी गाती
वन कन्या कोई..!'
ये सब किसने लिखा
मैं नहीं जानती..
सभ्यता की इबारत लिखता
कोई किताबी कवि था शायद..!
अगर जानना चाहते हो
सचमुच मेरे बारे में तो
निकलना होगा
किताबों से बाहर..
आना होगा तुम्हें
नगर से कोसों दूर
किसी दूर दराज़ के वीराने गाँव में,
गाँव जहाँ
उम्मीदों की जमीन पर
पड़ी हुई हैं अनगिनत पपड़ियां..
जहाँ विकास आता है
वातानुकूलित चमचमाती गाड़ी में
चंद वादों के उमस भरे छींटे गिराकर
चला जाता है..!
तुम आना
मैं दिख जाऊँगी
घर की देहरी पर
जर्जर हुए दरवाजों के पल्ले थामे,
जिम्मेदारियों की टोकनी बन
माथे पर बोझ सजाए हुए,
टोकनी जो भरी जाती है रोज
और रोज होती है खाली..
कभी भरा जाता है पानी
तो कभी ठूँस दिए जाते हैं
रद्दी कपड़े और कबाड़..!
कभी कलश बनाकर
रखा जाता है
मंदिर देवरों में,
तो कभी कोने पड़ी होती है
पूर्णतः उपेक्षित,
जगह जगह मोच लगी हुई..
किसी कबाड़ी के
आने की प्रतीक्षा में
दिन गिनती हुई कि
कब आये कोई
मोल भाव करने वाला
वजन और बनावट देखकर
कीमत लगाने वाला..
और कब वो बन जाये
किसी और उपेक्षित कोने की शोभा !
खैर,
मेरी उम्र को देखकर
चौंकना मत..!
यहाँ बचपन जैसी कोई चीज
होती ही नहीं..!
पैदा होते ही
डाल दी जाती हैं पैरों में
भारी भरकम
गृहस्थी की बेड़ियाँ..
मेरे उलझे हुए बालों में
उलझी हुई हैं
सैंकड़ों कहानियां
'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' की
परीकथाओं जैसी..!
मैंने सुना है
शहर में
कागज कलम से
लिखी जाती है
तकदीरें..
कैसी होती होगी कलम !
चूल्हे की फूँकनी जैसी लम्बी या
मेरे हाथों की
चूड़ियों जैसी गोल मटोल..!
सुनो बाबू,
गाँव आते वक्त
लेते आना मेरे लिए भी
तक़दीर वाली कलम..
मैं भी चाहती हूँ लिखना,
इससे पहले कि
भरभरा कर ध्वस्त हो जाएं
जर्जर हुए दरवाज़े
और दब कर नष्ट हो जाए उनमें
एक हद की प्रतीक्षा करती
उम्मीद की देहरी..
इससे पहले कि
कुचली जाऊँ साबुत,
मैं देहरी लांघना चाहती हूँ..!

अल्पना नागर









Sunday 19 July 2020

कहानी - अलगाव

कहानी
अलगाव

माई डियर हसबैंड,
ये कहानी शुरू हुई थी तुमसे पर हर एक आम कहानी की तरह मैं इसे यूँ ही खत्म नहीं होने दूँगी।आख़िर पत्नी हूँ तुम्हारी,अभी हक़ बनता है मेरा तुम पर।आज मन हुआ तुम्हें ख़त लिखूँ, पन्नों पर उड़ेल दूँ,खाली कर दूँ खुद को पूरी तरह..खैर खाली तो बहुत पहले हो चुकी हूँ, अभी भी कुछ जज्बात हैं जो चिपके हुए हैं रूह से,सोच रही हूँ आज उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दूँ ! ख़त कौन लिखता है आज के डिजिटल जमाने में.. किसे फुर्सत है कि बैठ कर अक्षर अक्षर मोती पिरोकर माला बनाई जाए,वो भी इस दौर में जहाँ हर चीज़ रेडीमेड मिलती है।मेरी अजीबोगरीब आदतों की तरह इसे भी मेरी एक सनक मानकर पढ़ लेना..फुर्सत निकालकर..न न जबरदस्ती बिल्कुल नहीं है फिर भी आख़िरी निशानी मानकर सरसरी नज़र दौड़ा लेना।मुझे अच्छा लगेगा।
मैं ख़त के जरिये तुम्हें पुरानी यादों के घने जंगल में ले जाकर छोड़ने वाली नहीं हूँ,वैसे भी वो जंगल आज आखिरी सांस ले रहा है ! वो पेड़ जो हमने बड़े यत्न से साथ साथ लगाए थे,सूखकर ठूँठ हो चुके हैं।अपराजिता के नीले फूल अब खिलना भूल गए हैं..तुम्हारी धूप जो नहीं आती अब !
जंगल छोड़ो..आजकल बालकनी में मन बहलाती हूँ।तुम्हारी लगाई मनी प्लांट को सींचती रहती हूँ।बड़ी ही जिद्दी किस्म की बेल है,कहीं भी उग आती है..इसे न तो जरूरत है धूप की और न ही दालान भर मिट्टी की।ये खुश है मेरी तरह एक छोटी सी पानी की बोतल में।हरियाली का अहसास कराती है।मेरी बालकनी भर दुनिया में कुछ बोनसाई पौधे भी हैं।कभी सोचा नहीं था कि भरे पूरे पेड़ों को चाहने वाली ये लड़की बोनसाई से अपना मन बहलायेगी..! किसने सोचा था कि उसे मनचाहा आकार देने के लिए जड़ों पर कैंची चलानी होगी..पर मैं कर रही हूँ इन दिनों..! मेरी बालकनी में आ जाती है सुबह शाम तुम्हारी यादों की मुट्ठी भर धूप..बोनसाई को और क्या चाहिए ! खैर मैं भी कहाँ पेड़ पौधों की बातें करने लगी..तुम्हें तो पसंद ही नहीं थे ये सब।
तुम्हें दिलचस्पी तो नहीं होगी मेरी खुशी या नाखुशी जानने में ! फिर भी बता देती हूँ..खुश हूँ मैं आजकल.. रंगों के साथ अच्छी बनती है मेरी।मैं तो लगभग भूल ही गई थी कि रंग कभी जिंदगी हुआ करते थे मेरी।चटख रंगों से प्रेम था मुझे..मुझे लगता था हर रंग सच्चा है..जो जैसा दिखता है सचमुच अच्छा है ! खैर अनुभव नें सिखाया, रंगों के भी अपने चेहरे हैं..तासीर है..मिज़ाज हैं।हर खूबसूरत रंग किन्हीं दो अलग रंगों का सम्मिश्रण है..नजरें चाहिए होती हैं उन्हें सही से पहचानने के लिए।अनुभव नें ही सिखाया कि रंग यूँ ही नहीं उभरकर आते,पृष्ठभूमि का गहरा होना अत्यंत आवश्यक है ! मेरे रंग भी बैकग्राउंड के गहरा होने की प्रतीक्षा में थे शायद..अभी अच्छी तरह उभरकर आ रहे हैं।शुक्रिया इसमें तुम्हारा योगदान अतुलनीय है।
मिनिएचर पेंटिंग में सिद्धहस्त होना एक दिन का कार्य नहीं।एक लघु संसार बुनना होता है अपने इर्द गिर्द।उस लघु चित्र की तरह बेहद लघु होकर ढालना होता है खुद को..रंगों को.. एक एक कर।मेरा इरादा कभी नहीं था कि अपनी अभिरुचि को आय का साधन बनाऊं लेकिन कर रही हूँ.. इसने रोजी रोटी दी,पहचान दी..जीने का संबल दिया।आजकल समय का अभाव नहीं है..तुम जो नहीं हो।तुम थे तो दुनिया तुम तक ही सीमित थी..अपनी अभिरुचियों को विवाह के अग्नि कुंड में ही प्रवाहित कर चुकी थी।मेरे लिए बस तुम थे..मेरा जीवन..मेरा ध्येय..मेरा विस्तार.. बस तुम्हारे आगे पीछे..दाएं बाएं हर समय तुम्हे खुश देखने का प्रयास करती थी..इतना कि चिढ़ जाते थे तुम मुझसे ! ज्यामिति के डायमीटर की तरह मेरी परिधि कितनी भी दूर तक जाए एक पैर तुम्हारे केंद्र में ही होता था। ये बात अलग है कि अब तुमने डायमीटर को ही विभाजित करने का फैसला लिया है ! फिर भी मेरी आत्मिक धुरी का केंद्र बिंदु आज भी तुम ही हो।
तुम्हारी इच्छा के मुताबिक हमें अलग रहते हुए छह माह से ऊपर हो गए हैं।मैं पहले भी तुम्हारे रास्ते में नहीं आती थी और न ही कभी आगे आऊँगी।तुम अपना लगभग सारा सामान लेकर जा चुके हो।कुछ बचा तो मैं भिजवा दूँगी।एक दीवार घड़ी है जो हमनें साथ में खरीदी थी..जो ठीक शाम के छह बजते ही मुस्कुराया करती थी ! शायद तुम ले जाना भूल गए।याद है उसमें दो नन्हीं चिड़िया निकल कर आती थी हर घंटे पर चौकीदार सी..हमने सपनें बुनना शुरू कर दिया था घर में फुदकती दो नन्हीं चिड़िया का..! तुम बताना मुझे उसे लेकर जाना चाहते हो या नहीं..! मेरा समय तो कब का ठहर चुका है ! कमबख्त ये घड़ी भागी जाती है..बचे खुचे अहसास स्मरण कराने को !
आजकल मैं भी तीखा मसालेदार खाने लगी हूँ।तुम्हें यकीन नहीं हो रहा न..वो जो जरा सी मिर्च लगने पर पूरा घर सर पर उठा लेती थी आज मसालों की बात कर रही है ! मेरे व्यक्तित्व की तरह मैं भी बेहद सादा थी,मुझे अहसास भी नहीं था कि खिचड़ी भले ही स्वास्थ्यकर हो मगर रोज रोज खाएंगे तो बोरियत ही होगी न ! तुम ठहरे बिरयानी वाले..अजीब सा संगम था फिर भी मैं तुम्हारी खातिर सीख ही गई थी मजेदार बिरयानी बनाना भी,ये बात अलग है आज खाने भी लगी हूँ।जमाने जैसी होने लगी हूँ.. तुम पहचान नहीं पाओगे मुझे ! खैर, तासीर आज भी मेरी सादा है,मैं चाहकर भी तुम्हारी मिस स्वीटी जैसी चटपटी नहीं हो सकती !
उस रोज शायद अंतिम बातचीत के लिए तुमने फोन किया था।बातचीत तो अरसे से बंद थी अब तो सिर्फ उसके औपचारिक अवशेष बचे थे उन्हीं की इतिश्री के लिए तुमने बात करनी चाही मुझसे..मगर हे ईश्वर ! कोई है जो नहीं चाहता कि हमारे बीच पूर्णतः सब कुछ विखंडित हो जाये,शायद इसीलिए उस रोज तुम्हारी आवाज़ के हल्के से कंपन में भी तुम्हारी तबियत के बारे में जान चुकी थी।तुम्हारे हाथ से फोन छूटते ही मेरे हृदय की धड़कनें भागने लगी..कुछ गिरने की आवाज आई।मैंने कुछ नहीं सोचा बस तुम्हारे पास आने का खयाल आया।शुक्र है आज तक भी हमारे फ्लैट की एक चाभी मेरे पास भी है।तुम बेसुध पड़े थे जमीन पर..पास ही तुम्हारा फोन बज रहा था बार बार..मिस स्वीटी की कॉल थी।उठाना नहीं चाहती थी मगर उठा लिया..उसे बताया तुम्हारे बारे में..अब वही तो है जो मेरे बाद तुम्हारा खयाल रखती है !
तुम्हारी स्थिति बिगड़ रही थी।चार दिन लगातार एडमिट रहने के बाद मैंने फैसला किया कि अपनी एक किडनी तुम्हें दे दूँ..यही एक रास्ता बचा था..खैर मुझे कोई परेशानी नहीं..कम से कम तसल्ली रहेगी कि मेरा कुछ तो है जो जिंदगी भर तुम्हारे साथ रहेगा..!मैंने कहा था न कोई है जो नहीं चाहता कि हम पूर्णतः विखंडित हो जायें ! मेरे कहने का मतलब फिर से एक होने का नहीं है..बिल्कुल चिंता मत करो..मैं फिर से तुम्हारी जिंदगी में वापस जबरदस्ती घुसने का कोई इरादा नहीं रखती।मैं सचमुच अब खुश हूँ अपनी लघु दुनिया में.. कई बार हम ईश्वर के संकेत समझ नहीं पाते और जो कुछ भी गलत घट रहा होता है उसके लिए बेवजह उसे जिम्मेदार ठहरा देते हैं जबकि हक़ीकत इससे बिल्कुल परे है..! ईश्वर हर हाल में हमारा शुभ ही चाहता है..उसी ईश्वर नें मुझे राह दिखायी..मेरे अंदर छिपे कलाकार को बाहर लेकर आया।मुझे आत्मनिर्भर होना सिखाया।मैं सचमुच बेहद शुक्रगुजार हूँ उस ईश्वर के साथ साथ तुम्हारी भी..! मैंने कोई अहसान नहीं किया तुमपर..बल्कि ये अहसान मेरा मुझपर है..इस बहाने तुमसे मेरा आत्मिक संबंध प्रगाढ़ ही होगा भले ही इकतरफा हो ! तुमसे मेरा सात फेरों का संबंध है,इतनी आसानी से पीछा छूटने वाला नहीं..कागज के चार टुकड़े और एक हस्ताक्षर क्या सचमुच अलगाव के लिए काफी हैं ? शरीर तो माध्यम भर था आत्मिक जुड़ाव का..उसकी परवाह तो न मुझे कल थी और न कभी रहेगी।लेकिन हाँ, विभाजित हुआ डायमीटर पुनः उसी अवस्था में पहले की तरह जोड़ पाना मेरे लिए असंभव होगा..! ये बात भी सच है कि आज भी मेरी धुरी तुम ही हो.. बस मैंने अपना विस्तार परिधि से कहीं आगे कर लिया है। कभी किसी मोड़ पर अगर जरूरत महसूस हो तो हृदय से आवाज देना मैं चली आऊँगी।
मिस स्वीटी को फोन करने का कई बार प्रयास किया मगर हर बार उनका नम्बर बंद बता रहा है।सोचा इत्तला कर दूँ कि तुम अब ठीक हो..सुरक्षित हो..खैर कोई बात नहीं..!
खयाल रखना अपना।
अलविदा !

अल्पना नागर




Friday 17 July 2020

मौन

मौन की अनुभूति

क्षणिकाएं

(1)

मौन
अटल दृढ़ प्रतिज्ञ
ध्रुव तारा है,
अनंत तारों के
बियावान में भी
सबसे प्रदीप्त..
सत्य शोधक,
पथ प्रदर्शक..!

(2)
जब भटक जाते हैं शब्द
अभिव्यक्ति की राह,
मौन मुखर हो उठता है.!

(3)
हजार शब्दों पर भारी
बस इक चुप
कोलाहल की भीड़ में
सबसे न्यारी
बस इक चुप..!

(4)
मौन
न्याय के तराजू का
भारी वाला हिस्सा है..
झूठ का शोर
कितना भी तेज हो
वजन हल्का ही होता है

(5)
मौन पूछता है सवाल
इंडिया गेट के
कैंडल मार्च से,
उदासीनता के बाद
क्या आवश्यक है
औपचारिकता का जुलूस..!!

(6)
सड़क पर
खून के धब्बों की जगह
बिखरे होते हैं प्रश्न..
और इंसानियत गुजर जाती है
निरुत्तर
सर झुकाए
मौन का मुखौटा ओढ़..!

(7)
वो जितना सहेगी,
मौन रहेगी
उतना ही
कहलाएगी
'संस्कारी'..!
उसका मौन रहना
पहचान है
आदर्श की..!

(8)
रात की पीठ पर
चलते हैं अक्सर
ताबड़तोड़
मौन के चाबुक..
बस्ती रात को
बहरी हो जाती है..!

(9)
मैंने देखा
मंच पर शब्द
टहल रहे थे
भाषा की अलंकृत
दुकान पर
चीख चीख कर
उछल रहे थे..
और भाव..?
वो पर्दे के पीछे
मौन का लबादा ओढ़
प्रतीक्षालय में खड़े थे..!

(10)
अहसास हैं
मौन रहकर भी
अनुभूत हो जाएंगे..
अल्फाज़ की चाशनी में
अक्सर रिश्ते
चिपचिपे हो जाते हैं..!

अल्पना नागर






Tuesday 14 July 2020

बिकाऊ

मैं बिकाऊ हूँ

सही सुना आपने
मैं बिकता हूँ
आजकल हर जगह
दिखता हूँ..
धर्म से लेकर ईमान तक
घुसपैठ है मेरी..
भाजी तरकारी बिकते सुना होगा
अब कोख भी बिकती है
आरामपसंद
पैसों के बाजार में..!
जो चमड़ी को बना डाले
झक्क सफ़ेद,
वो सफ़ेद झूठ भी
बिकता है खुले आम..!
जी हाँ, मैं बिकाऊ हूँ
पैसा फेंको
तमाशा देखो..
मेरा स्थाई निवास है
फाइलों में,
टेबल की दराज में,
गुलाबी रंगत वाले नोट में,
डिग्रियों की बंदरबांट में,
वादों में,
अभियानों में,
नेताजी के वोट में..!
मुझे खरीद लो
मैं बिकाऊ हूँ
तुलने को तैयार हूँ
न्याय के टेढ़े तराजू में..
मजहबी जलसों में
धरना वाली भीड़ में..!
दंगो में
उपद्रवों में
इंसानियत के ढकोसलों में,
धूमिल हुई कलम में,
चीखते चिल्लाते नारों में,
बाबा की दाढ़ी में
अटके पड़े तिनके में..!
फैशन में..
कैलेंडर में..
कैलेंडर गर्ल वाली
नग्न तस्वीरों में..!
रेड लाइट एरिया की
घुटन भरी मजबूरी में..!
मैं बिकाऊ हूँ
मेरी अपनी शर्तें हैं
द्रव्य प्रधान हूँ,
जहाँ द्रव्य ज्यादा
वहीं पर मेरा दबदबा ज्यादा..!
द्रव्य देखकर द्रवित होना
कमजोरी है मेरी !
आप सोच रहे होंगे
आखिर कितनी बड़ी होगी
मेरी बिकाऊ जेब !
गहराई तो इतनी कि
महासागर शर्मा जाए ..!
मगर जनाब
मैं बिकाऊ हूँ
अगर खरीद सको तो
बताऊँ अपना रहस्य..!
मैं वो बाल्टी हूँ
जिसमें अनगिनत छिद्र हैं
वो कमीज हूँ
जिसकी जेब फटी है !
मैं सत्य की वो मूरत हूँ
जिसपर चढ़ा हुआ है
झूठ का चमकदार
मुलम्मा..!
इससे ज्यादा जानना है तो
पूछो उस मकड़ी से
जो रहती है दिन रात
गाँधीजी की तस्वीर के पीछे..!
मैं ईमान का
काला चश्मा लगाए
घूमता हूँ
खुलेआम
सभ्यता के बाजार में..!
अब भला
पहचान पाओगे मुझे !!

अल्पना नागर




रोटी

*रोटी की आत्मकथा*

मैं रोटी हूँ
समय चाक पर
गोल घूमती
आदिम कोई कहानी..!
गोल मटोल चाँद जितनी पुरानी
यकीनन चाँद ही समझिए,
कभी पूरा कभी अधूरा..
फिर भी अगर समझ नहीं आता
दूरी,व्यास और त्रिज्या का गणित तो
किसी खेतिहर किसान या
मजदूर से पूछ आइए..!
मैं रोटी हूँ
यूँ तो बेहद साधारण हूँ
किन्तु धुरी हूँ
जीवन की..
समस्त यत्नों की
एकमात्र संगम स्थली..!
मेरे शरीर के काले निशान
बयां करते हैं
मेरे संघर्ष की कहानी..
किस तरह
पसीने से गूँथकर
अग्नि परीक्षा के बाद
योग्य होती हूँ कि
बन सकूँ
किसी के मुँह का
निवाला..!
मुझे पाने की ख़ातिर
दुनिया दो ध्रुवों में बँट गई है
एक वो दुनिया जिसने
पेट को पीठ पर बांध लिया
फिर भी नहीं कर पाती
मेरा जुगाड़ !
दूसरी वो जिसने
निकाल फेंकी है पीठ से
रीढ़ की हड्डी,.
फिर भी तृप्ति नहीं हो पाई !
मेरा जन्म हुआ
भूख के साथ..
लेकिन अफ़सोस
मुझे जितना खाया गया
भूख उतनी ही बढ़ती गई..!
किसी को मिल जाती हूँ
बैठे बिठाए
नाश्ते की टेबल पर
चांदी के चम्मच के साथ
और कहलाती हूँ
मक्खन लगी
डबल रोटी..!
किसी की एड़ियां
घिस जाती हैं
मेरे सूखे टिक्कड़ तक
पहुँचने में..!
मैं रोटी हूँ
गोल दुनिया की
किस्मत का
गोल पहिया..
मेरे इर्द गिर्द ही
बुने जाते हैं
समस्त घटनाक्रम !
इतिहास गवाह है,
आज भी
मुझ नाचीज़ पर
नजरें गड़ी होती हैं
ऊदबिलाव बिचौलियों की..!
फूल के कुप्पा हो जाती हूँ
जब भी आती हूँ
अखबारों में,
किसी पंचवर्षीय अभियान सी
सेल्फी फोटो के संग..!
भले ही साधारण हूँ
मगर कीमत बहुत है मेरी
मैं रोटी हूँ..
सफेदपोश वादों की
खरी खोटी हूँ..!

अल्पना नागर

Thursday 2 July 2020

प्रिय आम

प्रिय आम

प्रिय आम !
शुक्रिया कि
जीवन के
भीषण तपते दिनों में
तुम आते हो
सुनहरी रंगत लिए..!
शुक्रिया
ये बताने के लिए कि
खुशबूदार और
रसीली होती है जिंदगी
बस तरीका आना चाहिए
उसे डूबकर
महसूस करने का..!
कभी जब देखती हूँ
गीली जमीन में
चूसकर फेंकी
कोई उपेक्षित गुठली
और उसमें अंकुरित होते
नन्हे पौध को
तो याद आता है
वाकई !!
क्या सचमुच आसान है
गुठली हो जाना?
मैंने सुना है यहाँ
निर्धारित हैं
गुठलियों के दाम भी..
आज से नहीं
कई युगों से..!
खैर,फिर भी..
प्यारे आम !
मुझे खुशी होती है
जब देखती हूँ तुम्हारे
अंतस में छिपी स्त्रीजात गुठली
और व्यक्तित्व में उपजी 
स्नेहिल मधुरता..!
जानना चाहती हूँ,
तुम गुठली की बदौलत हो
या गुठली तुम्हारी...!
खैर,
कभी साझा करना
वो गुर कि
किस तरह 'आम' होते हुए भी
बना जा सकता है 'खास'..!
कैसे तय किया
आम से 'राजा' तक का सफर..!
बताना कभी..
क्या सचमुच इसके लिए
दरकिनार करना पड़ता है
स्वयं को 
'आम' दुनिया से.. !!

अल्पना नागर

माटी

माटी

हम कुम्हार हैं
अपनी माटी के..!
समय चाक पर गढ़ते हैं
ताउम्र खुद को,
माटी के चयन से लेकर
पानी के समुचित मिश्रण तक
रखनी होती है
प्रतिक्षण सावधानी..
थपकी लगानी होती है
भीतर से
आत्मचिंतन की..
कहाँ होता है आसान
व्यक्तित्व को गढ़ना !
जरा सी चूक
और रह जाता है
अधपका जीवन..
पड़ जाती है दरार
समूचे अस्तित्व में !
कच्चे से पक्का होना
एक क्षण का
बदलाव नहीं...
मिट्टी के ढेले से
घड़े तक की यात्रा
सोपान है परिवर्तन का..
यूँ ही नहीं होता
निमार्ण समय का,
गुजरना होता है
अग्नि स्नान की प्रकिया से..!
भरना होता है स्वयं को आकंठ
परहित उदात्त मधुर जल से
यही स्वभाव है
मिट्टी का..
यही जीवन है !

अल्पना नागर

Wednesday 1 July 2020

जुलाई

जुलाई

काश कि जुलाई में
बरसाती ओढ़ खड़ी हो
मखमली अहसास वाली 
फरवरी..!
काश कि आसमान में
करीब आ जाएं
'सोशल डिस्टेंसिंग' लिए
छितरे हुए बादल और
बरस पड़े उनमें 
छुपी हुई आत्मीयता..!
खुले नल बादलों के
बहा ले जाएं
उन्नीस बीस का कचरा..!
फिर से दिखे
इठलाती हुई
कागज की नाव कोई,
खिड़कियों से झाँके
खोया हुआ बचपन ..!
कि निकाल फेंके
डर और हिचक की
जमी हुई पॉलीथिन
रुक न पाए इस बार
बहता हुआ पानी कोई !
काश कि जुलाई में
खुल जाए बंद कपाट
अविश्वास के..!
फिर आये
कोई अतिथि द्वार पर,
चाय की महक में
घुल जाए
अदरक सी 
पुरानी यादें,
कैरम वाले ठहाके
कुछ बेईमानियां लूडो सी..
चलो इस बार भूल जाये
अंकों का गणित,
सांप सीढ़ी सी उलझने..!
याद अगर रखें तो
सिर्फ जुलाई
और आसमान की
बदलियां..!

अल्पना नागर