मैं बिकाऊ हूँ
सही सुना आपने
मैं बिकता हूँ
आजकल हर जगह
दिखता हूँ..
धर्म से लेकर ईमान तक
घुसपैठ है मेरी..
भाजी तरकारी बिकते सुना होगा
अब कोख भी बिकती है
आरामपसंद
पैसों के बाजार में..!
जो चमड़ी को बना डाले
झक्क सफ़ेद,
वो सफ़ेद झूठ भी
बिकता है खुले आम..!
जी हाँ, मैं बिकाऊ हूँ
पैसा फेंको
तमाशा देखो..
मेरा स्थाई निवास है
फाइलों में,
टेबल की दराज में,
गुलाबी रंगत वाले नोट में,
डिग्रियों की बंदरबांट में,
वादों में,
अभियानों में,
नेताजी के वोट में..!
मुझे खरीद लो
मैं बिकाऊ हूँ
तुलने को तैयार हूँ
न्याय के टेढ़े तराजू में..
मजहबी जलसों में
धरना वाली भीड़ में..!
दंगो में
उपद्रवों में
इंसानियत के ढकोसलों में,
धूमिल हुई कलम में,
चीखते चिल्लाते नारों में,
बाबा की दाढ़ी में
अटके पड़े तिनके में..!
फैशन में..
कैलेंडर में..
कैलेंडर गर्ल वाली
नग्न तस्वीरों में..!
रेड लाइट एरिया की
घुटन भरी मजबूरी में..!
मैं बिकाऊ हूँ
मेरी अपनी शर्तें हैं
द्रव्य प्रधान हूँ,
जहाँ द्रव्य ज्यादा
वहीं पर मेरा दबदबा ज्यादा..!
द्रव्य देखकर द्रवित होना
कमजोरी है मेरी !
आप सोच रहे होंगे
आखिर कितनी बड़ी होगी
मेरी बिकाऊ जेब !
गहराई तो इतनी कि
महासागर शर्मा जाए ..!
मगर जनाब
मैं बिकाऊ हूँ
अगर खरीद सको तो
बताऊँ अपना रहस्य..!
मैं वो बाल्टी हूँ
जिसमें अनगिनत छिद्र हैं
वो कमीज हूँ
जिसकी जेब फटी है !
मैं सत्य की वो मूरत हूँ
जिसपर चढ़ा हुआ है
झूठ का चमकदार
मुलम्मा..!
इससे ज्यादा जानना है तो
पूछो उस मकड़ी से
जो रहती है दिन रात
गाँधीजी की तस्वीर के पीछे..!
मैं ईमान का
काला चश्मा लगाए
घूमता हूँ
खुलेआम
सभ्यता के बाजार में..!
अब भला
पहचान पाओगे मुझे !!
अल्पना नागर
सही सुना आपने
मैं बिकता हूँ
आजकल हर जगह
दिखता हूँ..
धर्म से लेकर ईमान तक
घुसपैठ है मेरी..
भाजी तरकारी बिकते सुना होगा
अब कोख भी बिकती है
आरामपसंद
पैसों के बाजार में..!
जो चमड़ी को बना डाले
झक्क सफ़ेद,
वो सफ़ेद झूठ भी
बिकता है खुले आम..!
जी हाँ, मैं बिकाऊ हूँ
पैसा फेंको
तमाशा देखो..
मेरा स्थाई निवास है
फाइलों में,
टेबल की दराज में,
गुलाबी रंगत वाले नोट में,
डिग्रियों की बंदरबांट में,
वादों में,
अभियानों में,
नेताजी के वोट में..!
मुझे खरीद लो
मैं बिकाऊ हूँ
तुलने को तैयार हूँ
न्याय के टेढ़े तराजू में..
मजहबी जलसों में
धरना वाली भीड़ में..!
दंगो में
उपद्रवों में
इंसानियत के ढकोसलों में,
धूमिल हुई कलम में,
चीखते चिल्लाते नारों में,
बाबा की दाढ़ी में
अटके पड़े तिनके में..!
फैशन में..
कैलेंडर में..
कैलेंडर गर्ल वाली
नग्न तस्वीरों में..!
रेड लाइट एरिया की
घुटन भरी मजबूरी में..!
मैं बिकाऊ हूँ
मेरी अपनी शर्तें हैं
द्रव्य प्रधान हूँ,
जहाँ द्रव्य ज्यादा
वहीं पर मेरा दबदबा ज्यादा..!
द्रव्य देखकर द्रवित होना
कमजोरी है मेरी !
आप सोच रहे होंगे
आखिर कितनी बड़ी होगी
मेरी बिकाऊ जेब !
गहराई तो इतनी कि
महासागर शर्मा जाए ..!
मगर जनाब
मैं बिकाऊ हूँ
अगर खरीद सको तो
बताऊँ अपना रहस्य..!
मैं वो बाल्टी हूँ
जिसमें अनगिनत छिद्र हैं
वो कमीज हूँ
जिसकी जेब फटी है !
मैं सत्य की वो मूरत हूँ
जिसपर चढ़ा हुआ है
झूठ का चमकदार
मुलम्मा..!
इससे ज्यादा जानना है तो
पूछो उस मकड़ी से
जो रहती है दिन रात
गाँधीजी की तस्वीर के पीछे..!
मैं ईमान का
काला चश्मा लगाए
घूमता हूँ
खुलेआम
सभ्यता के बाजार में..!
अब भला
पहचान पाओगे मुझे !!
अल्पना नागर
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3764 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत सुंदर प्रस्तुति।सभी लिंक एक से बढ़कर एक हैं।मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए हृदय से आभार।
Deleteब्लॉग फौलोवर ( चिट्ठा अनुसरणकर्ता) बटन उपलब्ध करायें। सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteजी आभार 💐
Deleteवाह !बेहतरीन अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार 😊💐
ReplyDelete