Monday, 20 July 2020

कविता

स्त्री और टोकनी

सुनो,
मैं वो नहीं हूँ
जिसे पढ़ते आये हो तुम
किताबों में अक्षर अक्षर..!
'साँवली सूरत..
फेनिल सी चमकती दंत पंक्तियां
बालों में खोंसती फूल पत्तियां..
नीम की अटारी पर चढ़
सूरज की बिंदी माथे लगाती..
झूम झूमकर कजरी गाती
वन कन्या कोई..!'
ये सब किसने लिखा
मैं नहीं जानती..
सभ्यता की इबारत लिखता
कोई किताबी कवि था शायद..!
अगर जानना चाहते हो
सचमुच मेरे बारे में तो
निकलना होगा
किताबों से बाहर..
आना होगा तुम्हें
नगर से कोसों दूर
किसी दूर दराज़ के वीराने गाँव में,
गाँव जहाँ
उम्मीदों की जमीन पर
पड़ी हुई हैं अनगिनत पपड़ियां..
जहाँ विकास आता है
वातानुकूलित चमचमाती गाड़ी में
चंद वादों के उमस भरे छींटे गिराकर
चला जाता है..!
तुम आना
मैं दिख जाऊँगी
घर की देहरी पर
जर्जर हुए दरवाजों के पल्ले थामे,
जिम्मेदारियों की टोकनी बन
माथे पर बोझ सजाए हुए,
टोकनी जो भरी जाती है रोज
और रोज होती है खाली..
कभी भरा जाता है पानी
तो कभी ठूँस दिए जाते हैं
रद्दी कपड़े और कबाड़..!
कभी कलश बनाकर
रखा जाता है
मंदिर देवरों में,
तो कभी कोने पड़ी होती है
पूर्णतः उपेक्षित,
जगह जगह मोच लगी हुई..
किसी कबाड़ी के
आने की प्रतीक्षा में
दिन गिनती हुई कि
कब आये कोई
मोल भाव करने वाला
वजन और बनावट देखकर
कीमत लगाने वाला..
और कब वो बन जाये
किसी और उपेक्षित कोने की शोभा !
खैर,
मेरी उम्र को देखकर
चौंकना मत..!
यहाँ बचपन जैसी कोई चीज
होती ही नहीं..!
पैदा होते ही
डाल दी जाती हैं पैरों में
भारी भरकम
गृहस्थी की बेड़ियाँ..
मेरे उलझे हुए बालों में
उलझी हुई हैं
सैंकड़ों कहानियां
'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' की
परीकथाओं जैसी..!
मैंने सुना है
शहर में
कागज कलम से
लिखी जाती है
तकदीरें..
कैसी होती होगी कलम !
चूल्हे की फूँकनी जैसी लम्बी या
मेरे हाथों की
चूड़ियों जैसी गोल मटोल..!
सुनो बाबू,
गाँव आते वक्त
लेते आना मेरे लिए भी
तक़दीर वाली कलम..
मैं भी चाहती हूँ लिखना,
इससे पहले कि
भरभरा कर ध्वस्त हो जाएं
जर्जर हुए दरवाज़े
और दब कर नष्ट हो जाए उनमें
एक हद की प्रतीक्षा करती
उम्मीद की देहरी..
इससे पहले कि
कुचली जाऊँ साबुत,
मैं देहरी लांघना चाहती हूँ..!

अल्पना नागर









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