Sunday, 26 July 2020

कशमकश

कशमकश

कशमकश में हूँ कि
तेज तर्रार छुरी बनूँ या
बनी रहूँ पानी सी सरल..!
किस तरह दिखाऊँ
आक्रोश अपना..
छुरी की धार पर या
पानी की धार पर..!!
जरूरी नहीं कि
छुरी ही काटती हो
अन्याय की जड़..
कभी कभी
शांत बहता निश्छल पानी भी
पैदा कर देता है
चार सौ चालीस वॉट वाली
तड़ित शक्ति..!
काट देता है
पत्थर के मुहाने..
बना देता है
बेतरतीब नुकीले पत्थरों को
गोल और चिकना..!
कशमकश में हूँ कि
कैसे बनूँ पानी !
जबकि शरीर का
साठ प्रतिशत भाग पानी है
फिर भी..
क्या सचमुच आसान है
पानी के गढ़ में
पानी बन टिक पाना..!
जबकि डूब चुकी है आधी दुनिया
चुल्लू भर पानी में..!!
कशमकश में हूँ कि
शंखनाद कर दूँ
बुराई के खिलाफ,
या छुप कर बैठ जाऊँ
भीतर कहीं
उसी शंख के खोल में..!
कशमकश में हूँ कि
बनी रहूँ मिट्टी की माधो
और जीती रहूँ
अपराधबोध या
आत्मग्लानि से भरा
बेबस बेफ़िक्र जीवन..
या फिर परवाज दूँ पंखों को
बिखेर दूँ शब्द शब्द
विद्रोह के..
ताकि हो सके अंकुरित
साहस का कोई बीज
उसी मिट्टी की कोख से..!
कशमकश में हूँ कि
मुक्त हो जाऊं
कशमकश से एक दिन
या फिर..
जीती रहूँ
यूँ ही हर दिन
ऊहापोह भरी निर्जीव मौत..!

अल्पना नागर













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