Tuesday, 14 July 2020

रोटी

*रोटी की आत्मकथा*

मैं रोटी हूँ
समय चाक पर
गोल घूमती
आदिम कोई कहानी..!
गोल मटोल चाँद जितनी पुरानी
यकीनन चाँद ही समझिए,
कभी पूरा कभी अधूरा..
फिर भी अगर समझ नहीं आता
दूरी,व्यास और त्रिज्या का गणित तो
किसी खेतिहर किसान या
मजदूर से पूछ आइए..!
मैं रोटी हूँ
यूँ तो बेहद साधारण हूँ
किन्तु धुरी हूँ
जीवन की..
समस्त यत्नों की
एकमात्र संगम स्थली..!
मेरे शरीर के काले निशान
बयां करते हैं
मेरे संघर्ष की कहानी..
किस तरह
पसीने से गूँथकर
अग्नि परीक्षा के बाद
योग्य होती हूँ कि
बन सकूँ
किसी के मुँह का
निवाला..!
मुझे पाने की ख़ातिर
दुनिया दो ध्रुवों में बँट गई है
एक वो दुनिया जिसने
पेट को पीठ पर बांध लिया
फिर भी नहीं कर पाती
मेरा जुगाड़ !
दूसरी वो जिसने
निकाल फेंकी है पीठ से
रीढ़ की हड्डी,.
फिर भी तृप्ति नहीं हो पाई !
मेरा जन्म हुआ
भूख के साथ..
लेकिन अफ़सोस
मुझे जितना खाया गया
भूख उतनी ही बढ़ती गई..!
किसी को मिल जाती हूँ
बैठे बिठाए
नाश्ते की टेबल पर
चांदी के चम्मच के साथ
और कहलाती हूँ
मक्खन लगी
डबल रोटी..!
किसी की एड़ियां
घिस जाती हैं
मेरे सूखे टिक्कड़ तक
पहुँचने में..!
मैं रोटी हूँ
गोल दुनिया की
किस्मत का
गोल पहिया..
मेरे इर्द गिर्द ही
बुने जाते हैं
समस्त घटनाक्रम !
इतिहास गवाह है,
आज भी
मुझ नाचीज़ पर
नजरें गड़ी होती हैं
ऊदबिलाव बिचौलियों की..!
फूल के कुप्पा हो जाती हूँ
जब भी आती हूँ
अखबारों में,
किसी पंचवर्षीय अभियान सी
सेल्फी फोटो के संग..!
भले ही साधारण हूँ
मगर कीमत बहुत है मेरी
मैं रोटी हूँ..
सफेदपोश वादों की
खरी खोटी हूँ..!

अल्पना नागर

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