Wednesday 30 September 2020

शोकमग्न बिजूका

 *शोकमग्न बिजूका*

*विधा- छंदमुक्त*


शोकमग्न बिजूका


इस हफ्ते मनाया गया बेटी दिवस

इसी हफ्ते उस बेटी नें ली अंतिम श्वास

अंत तक लड़ते हुए..!

अखबारों के लिए कुछ खास नया न था,

हर दिन की तरह आज भी वो आया

किसी खुले नल की तरह

लेकिन शब्दों में नशे की जगह

लहू रिसता दिखा..

इस बार ज्यादा मात्रा में!

बेशक अखबारों के लिए आज भी

कुछ नया न था !


रिसता लहू घर घर में 

हर दीवार पर चस्पा हुआ..

मैनें देखा अपनी

लहू तैरती आँखों से..

देखा होगा तुमने भी!!

ठंडी आह से सराबोर निरीह दिन

जैसे पूछ रहा है

कटी जुबान से

'क्या कभी होगी सचमुच की भोर' !

और हम हमेशा की तरह

इशारे समझने में

पूरी तरह नाकामयाब..!


गाँव में खाप नें समेट ली

अपनी खाट..

मामला उनके क्षेत्राधिकार का नहीं

वो तो सीमित है प्रेम तक ही..!

बिजली के खंभे भी खड़े हैं

किसी कंटीले झाड़ की तरह/

आज कोई नहीं आएगा

उन पर संस्कारों में लिपटी

तोहमत लटकाने..!

गधे बैठे हैं किसी कोने में

मुँह लटकाए/

काला रंग भी बहरहाल 

किसी काम का नहीं !

खेतों की मेड़ पर

बिखरी पड़ी है

हैवानियत..

टूटी हुई हड्डियां..

सियारों के समूह नें अभी अभी

चबा कर छोड़ दिया

एक मासूम मेमना..


खेत अब नहीं बुलाते गीत में डूबे

रुनझुन घुँघरुओं को..

हावी होता अँधेरा 

हाथ पकड़ कर खींच लेता है

घुँघरुओं को/

बिखरे घुँघरू कर रहे हैं

पांवों को लहूलुहान

आगे की डगर बेहद कठिन है..!

पगडंडियों में धँसने लगे हैं रास्ते

बचे खुचे विश्वास की तरह..!

खेतों नें कब से छोड़ दिया है

फसल उगाना..

अभी जारी है बड़ी मात्रा में

विषैली खरपतवार का उगना/

खेत की मेड़ को पार कर खरपतवार

पगडंडियों के रास्ते

हर घर की चौखट पर लहरा रही है!

किसी को खबर नहीं..

सिवाय खेत में खड़े बिजूका के..!!

बिजूका शोकमग्न है..!!

-अल्पना नागर

Monday 28 September 2020

बीस बीस की बातें

 बीस बीस की बातें


ये बराबरी का साल है

उन्नीस बीस के फर्क की नहीं

पूरे बीस बीस की बात है..

न एक कम.. न एक ज्यादा!!

बस हिसाब बराबर/

समय ताऊ खड़ा है इस बार

दरवाजे पर

लट्ठ लेकर..!

सीधी हो गई हैं

सबकी पीठ/

जिनके रीढ़ नहीं थी

वो भी उग आयी अचानक !

दुनिया जैसे बंद कमरा

कमरे में इक्कट्ठे ज्ञानी लोग

कर रहे चिंतन मनन

भजन कीर्तन..!

बस ये बंद कमरे तक की

बंद बातें हैं..

कमरा खुलते ही

फिर वही

घुड़दौड़..चूहादौड़/

जलता हुआ दौर..

दिशाभ्रमित

किसी नीरो की बंसी पर मुग्ध लोग

इधर से उधर बेसुध भागते हुए/

ये मामला है जमीं तक का..

अभी सितारों की बात होनी बाकी है

कि नसों में दौड़ रही है

सनसनी/

गर्दिश में डूबने की

बेताबी..!!

बीस बीस अभी कहाँ निपटा !

बहुत से जरूरी काम अभी बाकी हैं,

चुनौतियां तो चलती रहेंगी

अभी निपटाने हैं

ढेर सारे 'चैलेंजेज'..!

माफ करना

तुम्हारे हर जरूरी सवाल से पहले

मेरा एक ही सवाल है..

साल के अंत तक

पता लगाना ही है कि

'रसोड़े में आखिर कौन था..

कौन था..!'


-अल्पना नागर




Tuesday 22 September 2020

अंधा कुआँ

 अंधा कुआँ


गाँव के आखिरी छोर पर

जिंदा है

एक अंधा कुआँ..

किसी जमाने में

सलामत था उसकी 

आँखों का पानी,

उसकी मुंडेर पर

होती थी हँसी ठिठोली

चूड़ियों की दस्तक/

पनिहारिन सी रस्सियां 

आती थी..जाती थी..!


वो गवाह था

एक ठाकुर सदी का

जोखू-गंगीे की कुआँ भर 

मशक्कत का..!

वो अब भी गवाह है

रुके हुए प्रवाह का

ठहरे हुए गंदले पानी का/

आकाश की ओर ताकती

पोखर की बेचैन 

मरणासन्न

छटपटाती मछलियों का..!

वो गवाह है

गाँव की बदली हुई

गर्म हवाओं का..!


सूख चुकी हैं दीवारें 

मगर अब भी नम हैं उसकी

संवेदनाएं/

दरारों से झाँकती हरियाली में

हिलोरें मारती स्मृतियां..!

वक्त नें उसे बना दिया

बड़ा सा कचराघर/

उसकी आँखों पर

धकेल दी गई

मनों मिट्टी/

अनुपयोगी वस्तुएं

किसी कब्रगाह की तरह..

गाँव के आखिरी छोर वाला कुआँ

जन्म से अंधा नहीं था..!


अल्पना नागर









जादुई स्लेट

 जादुई स्लेट


हर स्त्री के पास होती है

एक जादुई स्लेट..

स्लेट जिस पर करती है वो

उम्रभर हिसाब

जोड़ बाकी गुणा भाग

बिठाती है गणित

रिश्तों की अबूझ पहेली का..


वो छुपा कर रखती है

अपने सीने के तहखानों में

कच्ची धूप भरी पहली स्लेट का अहसास

नन्ही उँगलियों को घेरती 

स्नेहिल वयस्क हथेलियों का स्पर्श..

सीखने को आतुर

काँपते टेढ़े मेढ़े आखर/


नैहर की देहरी पार कर

एक बार पुनः सीखती है

अक्षर ज्ञान !

सौंपी गई 

नई स्लेट के साथ/

जिस पर खुदी होती है 

पहले से ही

सिंधु लिपि में कोई वर्णमाला !

वो महसूसती है

हिना लगी उँगलियों पर

सख्त हथेलियों का घेराव,

निर्देशों की बारहखड़ी और

लड़खड़ाते आखर..!

वो बार बार लिखती है

कुछ टेढ़ा मेढ़ा,

उलझी रेखाएं/कुछ तारीखें..!

जादुई स्लेट सब जानती है !

उसकी स्मृति में जज्ब होती जाती हैं

तमाम तारीखें और रेखाएं/


अमावस सी स्याह स्लेट पर

उतारती है वो

ग्रह नक्षत्रों से दीप्तिमान आखर..

जिनकी रोशनाई से होता है रोशन

उसके मन का हर एक उजाड़ कोना !

वो रखती हैं साहस

अपने ही लिखे को बार बार

मिटाने का/

और हमें लगता है

ग्रहों की चाल बदल रही है.!!


जादुई स्लेट की मालकिन

हर स्त्री के पास होती है

एक गुप्त नदी..

नदी जिसमें एक एक कर 

प्रवाहित करती है वो

स्लेट से झड़े आखर/

किसी दीपदान श्रृंखला की तरह

उन्हें जाना है

अनंत सागर की ओर

बस एक अनाम लय का सिरा थामकर..!


अल्पना नागर


Saturday 12 September 2020

गीत संगीत

 लेख

गीत संगीत


सम्पूर्ण जीवन को अगर गीत संगीत की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।इसमें एक निरन्तर प्रवाहमान लय है..इसकी अपनी धुन है राग है..आत्मा को स्पंदित करता मधुर संगीत है।बस जरूरत है तो उसे पहचानने की..उसकी शाश्वत धुन में स्वयं के अस्तित्व को खोजने की..उसकी लय के संग व्यक्तित्व को प्रवाहमान बनाये रखने की।जीवन के हर नए मोड़ पर धुन बदल जाती है।बचपन किसी जैज म्यूजिक सा चंचल और जोशीला होता है।जवानी की सुनहरी धूप ओढ़ते ओढ़ते संगीत की धुन में भी सौम्य गर्माहट आ जाती है,थोड़ा रूमानी हो उठता है जीवन..आसपास की हर चीज तरंगित,मन प्रफुल्लित.. किसी सुकोमल मधुर स्वप्न सा जीवन का वो दौर बेहद संगीतमय होता है।एक धुन सी दौड़ रही होती है अपने आसपास और धीरे धीरे कब आप उस धुन को गुनगुनाते हुए उस संगीत का हिस्सा बन जाते हो पता ही नहीं लग पाता।इसी तरह जीवन के अंतिम पहर में संगीत भी थोड़ा प्रौढ़ हो जाता है।स्वरलहरियों में शास्त्रीय संगीत सी नियमितता आ जाती है।यही जीवन है जिसने भी इस धुन को अपने अंदर से खोज निकाला है निस्संदेह उसका जीवन विभिन्न रागों का सुंदर समुच्चय है।

अक्सर यही होता है संगीत हमारे आसपास किसी इत्र की तरह बिखरा होता है और हम दुनियादारी का रुमाल नाक पर ओढ़ निकल लेते हैं।हमारे पास समय ही नहीं होता कि कुछ देर ठहरकर उस संगीत का आनंद लिया जाए !हर समय एक अनाम सी भागदौड़ हमें घेरा बनाकर घेरे हुए होती है जहाँ चाहकर भी संगीत प्रवेश नहीं कर पाता।

बारिश की घुँघरू बूँदों में धुन है..सुबह की खूबसूरत शुरुआत में धुन है..सूरज का रोज आना और नींद के नगर से जिंदगी को जगाना..रोशनी के छींटों से संसार भर को जगमगाना..चांद का बादलों में लुका छिपी खेलना.. रोज छत पर नई नई कहानियां बुनना..दूर से कहीं आती रेलगाड़ी की सीटी.. गृहिणी की रसोई में स्वाद से भरे कुकर की सीटी की धुन..किसी बच्चे की निश्चल खिलखिलाहट में दौड़ती धुन, डिजिटल दुनिया में बहुप्रतीक्षित किसी संदेश का आना और मन में अचानक उठी एक कुहुक भरी धुन..दूर से आती अज़ान और मंदिर की घंटियों की धुन..विचारों में डूबी रात के सन्नाटे को तोड़ते झींगुरों की धुन..भागती जिंदगी में समय निकाल कर कभी वीकेंड पर किसी जरूरतमंद की मदद के बाद मन से निकली सुकून भरी धुन..!बस धुन ही धुन..जरूरत है तो सिर्फ सुनने की और महसूस करने की।

कभी गौर किया हो तो पियानो में भी काला और सफेद रंग जिंदगी के उतार चढ़ाव भरी धुन को ही दर्शाते हैं।दोनों का साथ होना कितना जरूरी है अन्यथा धुन ठीक से निकलेगी ही नहीं।सुख दुःख भी इसी तरह के लंगोटिया यार हैं एक के बिना दूसरे का कतई गुजारा नहीं..!

कृष्ण की मुरली की धुन के बारे में कौन नहीं जानता।वो जब एकाग्र मन से मुरली बजाते थे तब इंसान तो क्या पशु पक्षी पेड़ पौधे चराचर जगत सभी मुग्ध होकर उनकी धुन में समाहित हो जाते थे।कहा जाता है कि गायें मुरली की धुन सुनकर स्नेह में इतना डूब जाती थी कि दूध स्वतः प्रवाहित होने लगता था।हैरत होती है कि एक साधारण से ग्वाले नें किस तरह अपने व्यक्तित्व में छिपी धुन से सम्पूर्ण जगत को जीत लिया था।दुनिया के तमाम असाधारण लोग किसी न किसी अंदरूनी धुन के धनी होते हैं,उसी राह पर जीवन भर चलते हैं और एक नया कीर्तिमान संसार के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं।ये है संगीत की ताकत..कितनी मधुर सुकोमल..कितनी शक्तिशाली ! इसी तरह तानसेन के बारे में कहा जाता है।उनके दीपक राग के असर से असंख्य दीपक स्वतः प्रज्वलित हो उठते थे।बारिश होना शुरू हो जाती थी।ये सभी किवदंतियां है या हक़ीकत लेकिन इतना तो सत्य है कि संगीत में सकारात्मक परिवर्तन की अद्भुत ताकत होती है।एक प्रयोग के माध्यम से ये सिद्ध भी किया गया था..संगीत के असर से पानी की संरचना में बहुत ही खूबसूरत सा पैटर्न बना हुआ दिखाई दिया..यक़ीनन ये अद्भुत प्रयोग था..! हमारे शरीर का लगभग साठ प्रतिशत पानी ही होता है तो सोच कर देखिए मधुर संगीत का हमारे शरीर में मौजूद पानी पर कितना गहरा असर होता होगा।यही कारण है कि अच्छा संगीत हमारे बुरे से बुरे मूड को भी बदलने में सक्षम होता है।बस फिर सोच क्या रहे हैं..हो जाइए संगीतमय आज से ही !

एक तरफ अगर दुनिया में परमाणु आयुध है तो दूसरी तरफ संगीत की सकारात्मक हलचल है।निस्संदेह हम आज बारूद के ढेर पर बैठे हैं लेकिन उस बारूद को स्नेह भरी ऊर्जा में परिवर्तित करने की अगर किसी में सामर्थ्य है तो वह सिर्फ संगीत है..संगीत जीवन बदल सकता है..विचारों का दूषित प्रवाह बदल सकता है..संगीत सही मायनों में कभी न खत्म होने वाली शाश्वत ऊर्जा है।


स्वरचित,मौलिक

अल्पना नागर

किनारे पड़ी कश्ती

 किनारे पड़ी कश्ती


किसी जमाने में 

हुआ करती थी वो

फुर्तीली/

जैसे पहन रखे हो

पैरों में चीते के नाखून..!


करती रही यात्राएं

समंदर के मानचित्र पर/

अपने लिए नहीं वरन

खुद पर सवार जिम्मेदारियों के लिए,

धीरे धीरे धुंधला गई चमक

वक़्त की धूप में..

किनारे आ गई कश्ती

स्वैच्छिक अवकाश लिए/


स्मृतियों की साँकल से बंधी

कश्ती देखती है

अपनी बूढ़ी आँखों से

हिलोरें मारती लहरों का नर्तन/

आती जाती सांस सी

लहरों के थपेड़े

स्मरण कराते हैं

समंदर से हुई तमाम

पिछली गुफ़्तगू की/


एक एक कर जमा हैं उसमें

यादों की टहनियों से गिरे

सूखे पत्ते

और थोड़ी सी रेत/

रेत अभी भी गीली है

नमी बाकी है..

अटके हुए हैं अभी

उस गीली रेत में

जीवन का स्मरण कराते

सीप और शंख के अवशेष/

वैसे ही जैसे अटक जाती हैं

उड़ती पतंगें

ठूँठ हुए किसी पेड़ की

सूखी टहनियों पर/


ये तो रवायत है दुनिया की,

कौन पूछता है

किनारे पड़ी कश्तियों को/

फिर भी आते हैं सैलानी..

सेल्फी के लिए कहाँ मिलेगी

इससे बेहतरीन

एंटीक जगह !


अल्पना नागर

Wednesday 9 September 2020

खबरों की खिड़की

 खबरों की खिड़की


खबरों की खिड़की पर

बैठा है एक कौआ

एकदम निठल्ला..!

दिनभर निहारता है राह

कि मिल जाये एक अदना खबर,

इन दिनों बेहद व्यस्त है

इतना कि रात में भी चैन नहीं/


छिल गया है बेचारा गला

कांव कांव की अनथक ध्वनि से

लेकिन फिर भी जारी है

कार्य के प्रति उसकी लगन

और अदम्य उत्साह..!

उत्साह इतना कि

पंजो में जैसे लग गई हो

कोई स्थाई 'स्प्रिंग' !!

बार बार उछलता है अपनी जगह पर

आँखों में आ जाती है 

सुनहरी चमक/

जब भी दिखती है कोई ख़बर..


हमने पाला हुआ है उसे

हमारी ही खिड़की पर रहता है वो

इन दिनों अहर्निश..

हमें मधुर लगती है

उसकी परिश्रम में डूबी ध्वनि,

जैसे यही है..बस यही है अब

राष्ट्रीय संगीत !

हम मन ही मन मुग्ध है

तालियां पीटते हैं 

उसकी उतार चढ़ाव भरी

निरंतर ध्वनि पर/

सारा ध्यान केंद्रित है

बस उसी पर..

कुछ और अब कहाँ सुनने वाला है !


अति उत्साह में जब बिगड़ने लगता है

उसके 'स्प्रिंग' लगे पंजों का संतुलन/

हम दौड़कर जाते हैं

खिड़की की ओर

उसे प्यार से पुचकारते हैं

'कहीं लगी तो नहीं जनाब !'/

कहकर बिठा देते हैं पुनः वहीं

खबरों की खिड़की पर

यथोचित सम्मान के साथ/


फिर जाते हैं हम अपनी खाने की टेबल पर

बिछाते हैं एक सभ्य कपड़ा

परोसते हैं एक एक कर

कौए द्वारा आयातित खबरें/

अभी पेट नहीं भरा लेकिन,

कुछ तो कमी है!!

हम देखते हैं पुनः 

उसी खिड़की की तरफ

याचना भरी दृष्टि लिए/


कौआ बहुत समझदार है

वो ले आता है फटाफट

चटपटे अचार का एक डिब्बा/

अपने नाजुक पंजों में भरकर

हम लेते हैं बलैया

उसके अदम्य साहस और उत्साह की/

फिर पुनः व्यस्त हो जाते हैं

अचार का आनंद लेने में

अचार के खत्म होने के बाद भी

चूसते रहते हैं

गुठलियां और छिलका/

उसमें अनुभूत होता है 'परमानंद' !


खिड़की का एकछत्र मालिक

कौआ दूर से देखता है

समस्त परिदृश्य/

उसने लगा दिया है एक बोर्ड

खिड़की के बाहर

'ताजा हवा का प्रवेश निषिद्ध है..'!


अल्पना नागर




Sunday 6 September 2020

तीसमारखाँ

 बाल कहानी

तीसमारखाँ


पुराने समय की बात है।बहुत दूर एक छोटा सा गाँव था।गाँव का नाम खुशहालपुर था।गाँव के लोग बड़े ही सीधे और मेहनती थे।सभी मिल जुल कर खुश रहते थे।लेकिन एक समस्या थी।खुशहालपुर की खुशियों को नजर लग गई थी।एक डाकू नें गाँव में लंबे समय से घुसपैठ की हुई थी।डाकू देखने में लंबा चौड़ा,घनी मूँछों वाला रौबीला आदमी था।देखने में ही बड़ा खूँखार नजर आता था।एक शानदार घोड़ा भी था उसके पास जिसपर बैठकर वो पूरे गाँव का जायजा लिया करता था।गाँव के लोग सीधे सादे थे वो डाकू से किसी तरह का कोई पंगा नहीं चाहते थे अतः उसके आते ही सभी अपने अपने घरों में मुर्गियों की तरह दुबक कर बैठ जाते थे।जितने समय डाकू गाँव के चक्कर लगाता था उतने समय कोई भी बाहर नहीं निकलता था,उनकी सांस डर के मारे हलक में ही अटकी होती थी।घनघोर सन्नाटा छाया होता था।

डाकू के पास एक बड़ी सी बंदूक भी थी जिसे हमेशा वो शान के साथ अपने कंधे पर लटकाकर रखता था।गाँव के लोगों नें कभी बंदूक देखी तक नहीं थी वो बड़े ही शांतिप्रिय खुशमिजाज लोग थे अतः उनका बंदूक जैसे जानलेवा हथियार से डरना स्वाभाविक था।डाकू नें अपने बारे में बड़े ही शान से गांववासियों को बताया हुआ था कि किस तरह उसने अब तक तीस लोगों को यूँही खेल खेल में मारा हुआ है।किसी की जान लेना उसके बांए हाथ का खेल है अतः अगर किसी को अपनी और परिवार की जान प्यारी है तो वो जब भी गाँव का चक्कर लगाने आये, चुपचाप अपने घर के बाहर अनाज और धन रख दे,लेकिन ध्यान रहे इस बीच कोई नजर उठाकर उसकी आँखों में आंखें डालकर न देखे अन्यथा परिणाम घातक होगा।

गाँव वासी बहुत अधिक डरे हुए थे अतः बिना किसी विरोध के वो अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई का एक हिस्सा नियत समय पर चुपचाप अपने घर के आगे रख देते थे।शुरुआत में डाकू महीने में दो बार आता था लेकिन अब वो जल्दी जल्दी आने लगा।कभी भी आ जाता था कोई नियत समय नहीं था।गाँव वालों के लिए भूखा मरने की नौबत आ गई।फिर भी वो जान बचाने के चक्कर में डाकू के आगे घुटने टेकने पर मजबूर थे।चूंकि डाकू नें अब तक तीस लोगों की जान ले ली थी अतः वो तीसमारखाँ के नाम से जाना जाने लगा।डाकू के दिन मजे से कट रहे थे।

उसी गाँव में कुछ युवा बच्चों का एक समूह था जो बुद्धिमान थे और डाकू के इस मनमाने रवैये से बहुत अधिक आक्रोश में थे।युवा बच्चे प्रतिभावान थे किंतु उनमें भी वही समस्या थी वो भी अन्य गाँव वासियों की तरह डरपोक किस्म के थे फिर भी वो तरह तरह की योजनाएं बनाते रहते थे कि किस तरह डाकू को गाँव से भगाया जाए।एक लड़का जिसका नाम धीरज था वो सभी को डाकू से सामना करने के लिए प्रोत्साहित करता रहता।

एक बार धीरज नें अपने समूह के अन्य मित्रों से कहा कि अब बहुत हो गया।डाकू के आतंक की वजह से गाँव में जीना मुश्किल हो गया है।अतः समय आ गया है कि तीसमारखाँ को गाँव से भाग दिया जाए।

"लेकिन ये होगा कैसे..?देखते नहीं उसके पास बड़ी सी बंदूक है.."।एक मित्र नें समस्या की ओर इशारा किया।

" यही तो दिक्कत है..हमें योजना बनानी होगी मित्र..कैसा हो अगर हम उसकी बंदूक को ही उससे छीन लें..! वो एक है और हम पाँच..क्यों..!"धीरज नें उत्साह से कहा।" इस बार जैसे ही तीसमारखाँ गाँव का चक्कर लगाने आएगा हम लोग इक्कठे होकर उसके सामने खड़े हो जाएंगे..फिर उसका पैर खींचकर घोड़े से उतारेंगे और फिर.."

"और फिर उसी के घोड़े से उसका पैर बांधकर उसे गाँव के पीपल पर उल्टा लटका देंगे..।" अन्य मित्र नें बीच में ही टोककर कहा।

" विचार तो अच्छा है पर कर पाएंगे ऐसा..?"

"देखते हैं..इस बार पूरी हिम्मत से सामना करेंगे।कुछ तो समाधान अवश्य निकलेगा।" धीरज नें कहा।

जल्दी ही वो दिन भी आ गया।डाकू गाँव का चक्कर लगाने पहुंचा।धीरज और उसके मित्र भी इस बार हिम्मत करके डाकू के सामने पहुँच गए।वो ठीक उसके घोड़े के सामने घेरा बनाकर खड़े थे।तीसमारखाँ को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ।उसने इशारे से कहा..

"ए लड़कों क्या बात है..रास्ता रोक कर क्यों खड़े हो..मरने से डर नहीं लगता..?" बंदूक को कंधे से उतरते हुए डाकू नें कहा।

उसकी रौबदार कड़क आवाज़ और घनी मूँछे देखकर ही धीरज और उसके मित्रों के पैर काँपने लगे ऊपर से उसने बंदूक भी कंधे से उतार ली थी।

"हु हुजूर..क.. कुछ नहीं..हम्म तो बस यूँही आ गए थे..।"समूह के सबसे डरपोक लड़के नें मुँह खोला।

"यूँही का क्या मतलब है..अब तैयार हो जाओ सब मरने के लिए.."।तीसमारखाँ नें बंदूक तानते हुए कहा।

"अरे हुजूर कैसी बात करते हो..हम तो आपके चेले बनने आये हैं ।हमें बस कुछ नहीं चाहिए।अपनी शरण में ले लो।" धीरज नें बिगड़ी बात संभालते हुए कहा।

"ठीक है..एक काम करो।मेरे पीछे पीछे आते जाओ।ये घरों के आगे जो भी धन और सामान रखा है उसे इक्कठा करते जाओ।ध्यान रहे एक पैसे की भी हेराफेरी की तो उड़ा दूंगा बंदूक से..समझे..!" कड़क आवाज में डाकू नें कहा।

"ज जी हुजूर..।" लड़खड़ाती आवाज में लड़कों नें कहा।

शर्म से उन लड़कों की निगाहें झुकी थी।वो क्या करने आये थे और क्या कर रहे हैं सोचकर उनका आक्रोश ज्वालामुखी की तरह अंदर ही अंदर भभक रहा था।अब उन्हें बुद्धिमता से काम लेना था।क्योंकि हिम्मत और ताकत जवाब दे चुकी थी।यह एक बेहतरीन अवसर था।तीसमारखाँ के समीप रहकर उसकी कमजोरियों को जानने का।

समय बीतता गया।तीसमारखाँ को अब उसके डाकूगिरी वाले काम में मदद के लिए युवा हाथ भी मिल गए थे।तीसमारखाँ की एक विशेषता थी वो अपनी बंदूक को किसी की हालत में अपने से अलग नहीं रखता था।रात को सोते समय भी बंदूक उसके हाथ के नीचे होती थी जिसे निकालना कोई आसान कार्य नहीं था।

धीरज और उसके मित्रों के लिए डाकू को पराजित करना एक सपना मात्र रह गया था।

एक दिन डाकू बहुत तेज बीमार पड़ा।बीमारी की हालत में भी वो अपनी बंदूक को अपने से अलग नहीं करता था।लेकिन एक रोज हालत बहुत खराब होने पर लड़कों को अवसर मिल गया।अब सिर्फ हिम्मत जुटाने की देर थी।मंजिल सामने खड़ी थी।गाँव वालों की सारी मुश्किलें हल होने का सुनहरा अवसर उनके सामने था।

धीरज नें अपने मित्रों से कहा कि उसकी बंदूक लेने का काम मैं करूँगा तुम लोग बस दरवाजे पर खड़े हो जाना ताकि वो कहीं जा न पाए।और क्योंकि वो बीमार है इसलिए हम उसे घोड़े से पैर बांधकर खींचने या पीपल पर लटकाने जैसा कोई काम नहीं करेंगे।ये गलत होगा।

योजना के अनुसार धीरज नें डाकू के करीब जाकर उसकी बंदूक उससे छीन ली।चूंकि डाकू की शारीरिक क्षमता लगभग खत्म हो गई थी अतः बंदूक लेने का वो विरोध नहीं कर पाया।

धीरज नें पहली बार अपने हाथ में लेकर बंदूक को देखा।" तो क्या यही वो चीज है जिसने इतने समय से हम गाँव वालों की नींद उड़ा रखी है.."।धीरज नें मन ही मन सोचते हुए कहा।

धीरज नें बंदूक को छत की तरफ मुँह करते हुए चलाने का प्रयास किया।लेकिन ये क्या..बंदूक चली ही नहीं..!! धीरज नें पूरा प्रयास किया उसे चलाने का लेकिन बंदूक नहीं चली।उसने डाकू की तरफ बंदूक का मुँह किया और कारण पूछा।

डाकू की हालत जैसे काटो तो खून नहीं।लगा जैसे पोल खुल गई अब क्या करेगा..! उसने धीरज को बहुत ही दबी हुई आवाज में बताया कि बंदूक में कोई गोली नहीं है और न ही कभी थी।उसने अब तक किसी एक मक्खी तक को नहीं मारा है तीस लोग तो दूर की बात है।वो दूर के किसी गाँव में एक सेठ के यहाँ नौकरी करता था,सेठ उसे बहुत मारता था जिससे परेशान होकर एक दिन वो उसकी बंदूक और घोड़ा उठाकर भाग आया।और गाँव में आकर लोगों को शेखी बघार कर डाकू बन गया।

धीरज और उसके मित्रों का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया।उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि अब तक वो लोग बेवकूफ बनते आ रहे थे।अगर जरा सी हिम्मत दिखाई होती तो खुशहाल पुर गाँव कभी बदहाल नहीं होता।खैर अब क्या हो सकता था!

तीसमारखाँ नें धीरज और उसके मित्रों से कहा कि वो ये बात गाँव में किसी को न बताएं वरना बहुत किरकिरी होगी।उसने बताया कि वो अब कभी भी जिंदगी में किसी को परेशान नहीं करेगा।गांववालों की हमेशा मदद करेगा।साथ ही जो भी धन उसने गाँव वासियों से लिया है उसे लौटा देगा।

धीरज और उसके मित्रों नें तीसमारखाँ की बात मान ली।उसका बीमारी में पूरा खयाल रखा।पूरी तरह स्वस्थ करने के लिए धीरज और उसके मित्रों नें काफी प्रयास किये।डाकू तीसमारखाँ अब पूरी तरह से बदल गया था।उसने देखा कि किस तरह उन बच्चों नें सब कुछ जानने के बाद भी बीमारी से उबरने में उसकी मदद की।उसकी आँखों में पश्चाताप के आँसू थे।तीसमारखाँ नें अपना हुलिया ठीक किया।घनी डरावनी मूँछों को साफकर सभ्य नागरिक की तरह वो बच्चों के सामने आया।बच्चे खुशी से झूम उठे।अब गाँव में तीसमारखाँ नें लोगों की मदद करना शुरू कर दिया।मेहनत करके पेट भरने लगा।गाँव एक बार फिर से खुशहालपुर हो गया।


अल्पना नागर

शिक्षक

 शिक्षक


एक शिक्षक

तैयार करता है

कच्ची जमीन..

संभावना की मिट्टीयुक्त

थोड़ी नम जगह 

ताकि हो सके अंकुरण आसान/


वो बंजर जमीन पर भी

बहाता है अपना पसीना

निरंतर करता है

निराई गुड़ाई..

वक्त के साथ होती जाती हैं

बंजर जमीन भी उर्वर/

लचकदार और हरित..


वो जानता है

कहाँ और कौनसी मिट्टी में

मौजूद हैं उर्वर गुण

खनिज तत्व और उससे भी बढ़कर

अंकुरण की तड़प..!

एक शिक्षक जानता है..

वो बस सींचता है

उस तड़प को

अपने अथक प्रयासों के पानी से..

एक शिक्षक बस इतना ही करता है !


वो पुनः लग जाता है

किसी अन्य जमीन की देखरेख में/

एक अरसे बाद जब गुजरता है 

उन्हीं रास्तों से तो

देखता है अपनी सिंचित

लहलहाती फसल को..

उसकी खुरदुरी हथेलियों से

झांकने लगते हैं

अनगिनत सूरजमुखी/

शून्य आकाश के वक्ष पर

एक शिक्षक उगाता है

अनेक सूरज

ठीक वहाँ जहाँ

स्थाई रात का बसेरा हो/

एक शिक्षक बस इतना ही करता है..!


अल्पना नागर



Friday 4 September 2020

बार्बी डॉल

 बार्बी डॉल


वो कहते हैं तुम्हे

बार्बी डॉल

सजी संवरी/

प्यारी सी स्नेहिल गुड़िया

सब कुछ ठीक है

तुम्हे कोई शिकायत नहीं

अच्छी बात है !

होनी भी नहीं चाहिए..

गुड़िया भी कभी शिकायत करती हैं !!


तुम प्यारी हो

जमाने से कदमताल करती

'अल्ट्रा मॉडर्न' हो..

लेकिन हो तो तुम गुड़िया ही..!

तुममें पहले से डाले गए हैं

कुछ 'प्रोग्राम्स' 

अपने हिसाब से/

'वैल कंट्रोल्ड'...

इसके इतर जाना संभव न होगा

तुम्हारे लिए..है न !!


ये जो चिकना रास्ता 

मुहैया कराया गया है तुम्हे

रैम्प है..शानदार चमकता हुआ रैम्प..

चारों ओर रोशनियां

आवाजों से घिरा तुम्हारा वजूद..

जहाँ करना है तुम्हे

मूक प्रदर्शन..

अपनी आवाज को म्यूट करके !

इस चिकने रास्ते पर चलने की

आदत है तुम्हे/

बिना लड़खड़ाए

नियंत्रित सधे कदमों से/

लेकिन हर बढ़ा हुआ कदम

धकेल देता है तुम्हे

पीछे की ओर..!


फर्क सिर्फ इतना है

इस रैम्प पर तुम आती हो

उजाले से अंधेरे की ओर..

अंधेरे में बजती तालियां

चेहरे रहित लोग

और तुम

उसी अंधेरे का एक हिस्सा मात्र !


किसी रोज खत्म हो जाएगी 

तुम्हारी चमक

साथ ही हो जाएगी

बैटरी डाउन/

उस रोज क्या करोगी..!

सोचा है कभी !!

कैसे सोचोगी..! गुड़िया जो हो..!


इससे पहले कि हो जाये

सब खत्म/

ढूंढो अपने अंदर छिपे

'कंट्रोल बटन' को..

और निकल आओ

गुड़िया से बाहर !

उजाला तुम्हारी प्रतीक्षा में है..


अल्पना नागर