जादुई स्लेट
हर स्त्री के पास होती है
एक जादुई स्लेट..
स्लेट जिस पर करती है वो
उम्रभर हिसाब
जोड़ बाकी गुणा भाग
बिठाती है गणित
रिश्तों की अबूझ पहेली का..
वो छुपा कर रखती है
अपने सीने के तहखानों में
कच्ची धूप भरी पहली स्लेट का अहसास
नन्ही उँगलियों को घेरती
स्नेहिल वयस्क हथेलियों का स्पर्श..
सीखने को आतुर
काँपते टेढ़े मेढ़े आखर/
नैहर की देहरी पार कर
एक बार पुनः सीखती है
अक्षर ज्ञान !
सौंपी गई
नई स्लेट के साथ/
जिस पर खुदी होती है
पहले से ही
सिंधु लिपि में कोई वर्णमाला !
वो महसूसती है
हिना लगी उँगलियों पर
सख्त हथेलियों का घेराव,
निर्देशों की बारहखड़ी और
लड़खड़ाते आखर..!
वो बार बार लिखती है
कुछ टेढ़ा मेढ़ा,
उलझी रेखाएं/कुछ तारीखें..!
जादुई स्लेट सब जानती है !
उसकी स्मृति में जज्ब होती जाती हैं
तमाम तारीखें और रेखाएं/
अमावस सी स्याह स्लेट पर
उतारती है वो
ग्रह नक्षत्रों से दीप्तिमान आखर..
जिनकी रोशनाई से होता है रोशन
उसके मन का हर एक उजाड़ कोना !
वो रखती हैं साहस
अपने ही लिखे को बार बार
मिटाने का/
और हमें लगता है
ग्रहों की चाल बदल रही है.!!
जादुई स्लेट की मालकिन
हर स्त्री के पास होती है
एक गुप्त नदी..
नदी जिसमें एक एक कर
प्रवाहित करती है वो
स्लेट से झड़े आखर/
किसी दीपदान श्रृंखला की तरह
उन्हें जाना है
अनंत सागर की ओर
बस एक अनाम लय का सिरा थामकर..!
अल्पना नागर
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