Wednesday, 30 September 2020

शोकमग्न बिजूका

 *शोकमग्न बिजूका*

*विधा- छंदमुक्त*


शोकमग्न बिजूका


इस हफ्ते मनाया गया बेटी दिवस

इसी हफ्ते उस बेटी नें ली अंतिम श्वास

अंत तक लड़ते हुए..!

अखबारों के लिए कुछ खास नया न था,

हर दिन की तरह आज भी वो आया

किसी खुले नल की तरह

लेकिन शब्दों में नशे की जगह

लहू रिसता दिखा..

इस बार ज्यादा मात्रा में!

बेशक अखबारों के लिए आज भी

कुछ नया न था !


रिसता लहू घर घर में 

हर दीवार पर चस्पा हुआ..

मैनें देखा अपनी

लहू तैरती आँखों से..

देखा होगा तुमने भी!!

ठंडी आह से सराबोर निरीह दिन

जैसे पूछ रहा है

कटी जुबान से

'क्या कभी होगी सचमुच की भोर' !

और हम हमेशा की तरह

इशारे समझने में

पूरी तरह नाकामयाब..!


गाँव में खाप नें समेट ली

अपनी खाट..

मामला उनके क्षेत्राधिकार का नहीं

वो तो सीमित है प्रेम तक ही..!

बिजली के खंभे भी खड़े हैं

किसी कंटीले झाड़ की तरह/

आज कोई नहीं आएगा

उन पर संस्कारों में लिपटी

तोहमत लटकाने..!

गधे बैठे हैं किसी कोने में

मुँह लटकाए/

काला रंग भी बहरहाल 

किसी काम का नहीं !

खेतों की मेड़ पर

बिखरी पड़ी है

हैवानियत..

टूटी हुई हड्डियां..

सियारों के समूह नें अभी अभी

चबा कर छोड़ दिया

एक मासूम मेमना..


खेत अब नहीं बुलाते गीत में डूबे

रुनझुन घुँघरुओं को..

हावी होता अँधेरा 

हाथ पकड़ कर खींच लेता है

घुँघरुओं को/

बिखरे घुँघरू कर रहे हैं

पांवों को लहूलुहान

आगे की डगर बेहद कठिन है..!

पगडंडियों में धँसने लगे हैं रास्ते

बचे खुचे विश्वास की तरह..!

खेतों नें कब से छोड़ दिया है

फसल उगाना..

अभी जारी है बड़ी मात्रा में

विषैली खरपतवार का उगना/

खेत की मेड़ को पार कर खरपतवार

पगडंडियों के रास्ते

हर घर की चौखट पर लहरा रही है!

किसी को खबर नहीं..

सिवाय खेत में खड़े बिजूका के..!!

बिजूका शोकमग्न है..!!

-अल्पना नागर

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