Saturday, 12 September 2020

किनारे पड़ी कश्ती

 किनारे पड़ी कश्ती


किसी जमाने में 

हुआ करती थी वो

फुर्तीली/

जैसे पहन रखे हो

पैरों में चीते के नाखून..!


करती रही यात्राएं

समंदर के मानचित्र पर/

अपने लिए नहीं वरन

खुद पर सवार जिम्मेदारियों के लिए,

धीरे धीरे धुंधला गई चमक

वक़्त की धूप में..

किनारे आ गई कश्ती

स्वैच्छिक अवकाश लिए/


स्मृतियों की साँकल से बंधी

कश्ती देखती है

अपनी बूढ़ी आँखों से

हिलोरें मारती लहरों का नर्तन/

आती जाती सांस सी

लहरों के थपेड़े

स्मरण कराते हैं

समंदर से हुई तमाम

पिछली गुफ़्तगू की/


एक एक कर जमा हैं उसमें

यादों की टहनियों से गिरे

सूखे पत्ते

और थोड़ी सी रेत/

रेत अभी भी गीली है

नमी बाकी है..

अटके हुए हैं अभी

उस गीली रेत में

जीवन का स्मरण कराते

सीप और शंख के अवशेष/

वैसे ही जैसे अटक जाती हैं

उड़ती पतंगें

ठूँठ हुए किसी पेड़ की

सूखी टहनियों पर/


ये तो रवायत है दुनिया की,

कौन पूछता है

किनारे पड़ी कश्तियों को/

फिर भी आते हैं सैलानी..

सेल्फी के लिए कहाँ मिलेगी

इससे बेहतरीन

एंटीक जगह !


अल्पना नागर

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