किनारे पड़ी कश्ती
किसी जमाने में
हुआ करती थी वो
फुर्तीली/
जैसे पहन रखे हो
पैरों में चीते के नाखून..!
करती रही यात्राएं
समंदर के मानचित्र पर/
अपने लिए नहीं वरन
खुद पर सवार जिम्मेदारियों के लिए,
धीरे धीरे धुंधला गई चमक
वक़्त की धूप में..
किनारे आ गई कश्ती
स्वैच्छिक अवकाश लिए/
स्मृतियों की साँकल से बंधी
कश्ती देखती है
अपनी बूढ़ी आँखों से
हिलोरें मारती लहरों का नर्तन/
आती जाती सांस सी
लहरों के थपेड़े
स्मरण कराते हैं
समंदर से हुई तमाम
पिछली गुफ़्तगू की/
एक एक कर जमा हैं उसमें
यादों की टहनियों से गिरे
सूखे पत्ते
और थोड़ी सी रेत/
रेत अभी भी गीली है
नमी बाकी है..
अटके हुए हैं अभी
उस गीली रेत में
जीवन का स्मरण कराते
सीप और शंख के अवशेष/
वैसे ही जैसे अटक जाती हैं
उड़ती पतंगें
ठूँठ हुए किसी पेड़ की
सूखी टहनियों पर/
ये तो रवायत है दुनिया की,
कौन पूछता है
किनारे पड़ी कश्तियों को/
फिर भी आते हैं सैलानी..
सेल्फी के लिए कहाँ मिलेगी
इससे बेहतरीन
एंटीक जगह !
अल्पना नागर
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