Tuesday, 22 September 2020

अंधा कुआँ

 अंधा कुआँ


गाँव के आखिरी छोर पर

जिंदा है

एक अंधा कुआँ..

किसी जमाने में

सलामत था उसकी 

आँखों का पानी,

उसकी मुंडेर पर

होती थी हँसी ठिठोली

चूड़ियों की दस्तक/

पनिहारिन सी रस्सियां 

आती थी..जाती थी..!


वो गवाह था

एक ठाकुर सदी का

जोखू-गंगीे की कुआँ भर 

मशक्कत का..!

वो अब भी गवाह है

रुके हुए प्रवाह का

ठहरे हुए गंदले पानी का/

आकाश की ओर ताकती

पोखर की बेचैन 

मरणासन्न

छटपटाती मछलियों का..!

वो गवाह है

गाँव की बदली हुई

गर्म हवाओं का..!


सूख चुकी हैं दीवारें 

मगर अब भी नम हैं उसकी

संवेदनाएं/

दरारों से झाँकती हरियाली में

हिलोरें मारती स्मृतियां..!

वक्त नें उसे बना दिया

बड़ा सा कचराघर/

उसकी आँखों पर

धकेल दी गई

मनों मिट्टी/

अनुपयोगी वस्तुएं

किसी कब्रगाह की तरह..

गाँव के आखिरी छोर वाला कुआँ

जन्म से अंधा नहीं था..!


अल्पना नागर









6 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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    1. जी बहुत बहुत शुक्रिया 💐💐

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  2. Replies
    1. जी बहुत शुक्रिया 💐

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  3. एक भूले बिसरे से कुँए को आपने जीवन्तता देने की नायाब कोशिश की है। वस्तुतः कुँआ, एक जीवन शैली का द्योतक हुआ करती थी कभी, जो कि अब घर के भीतर नलों तक सिमट गई है। सामाजिक परिवेश का ताना-बाना बुनता हुआ वह कुँआ न जाने क्यों मृतप्राय अवस्था में पड़ा है।
    एक नए विषय पर प्रभावी रचना हेतु साधुवाद व शुभकामनाएं।

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    1. जी बिल्कुल सही कहा आपने।कुआँ वस्तुतः हमारी भूली बिसरी अनमोल धरोहरों में से एक है।वो गाँव में किसी बड़े बुजुर्ग व्यक्ति जैसा हुआ करता था जो अब लुप्तप्रायः है।
      हार्दिक आभार कविता की विस्तृत सटीक समीक्षा के लिए।💐😊

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