अंधा कुआँ
गाँव के आखिरी छोर पर
जिंदा है
एक अंधा कुआँ..
किसी जमाने में
सलामत था उसकी
आँखों का पानी,
उसकी मुंडेर पर
होती थी हँसी ठिठोली
चूड़ियों की दस्तक/
पनिहारिन सी रस्सियां
आती थी..जाती थी..!
वो गवाह था
एक ठाकुर सदी का
जोखू-गंगीे की कुआँ भर
मशक्कत का..!
वो अब भी गवाह है
रुके हुए प्रवाह का
ठहरे हुए गंदले पानी का/
आकाश की ओर ताकती
पोखर की बेचैन
मरणासन्न
छटपटाती मछलियों का..!
वो गवाह है
गाँव की बदली हुई
गर्म हवाओं का..!
सूख चुकी हैं दीवारें
मगर अब भी नम हैं उसकी
संवेदनाएं/
दरारों से झाँकती हरियाली में
हिलोरें मारती स्मृतियां..!
वक्त नें उसे बना दिया
बड़ा सा कचराघर/
उसकी आँखों पर
धकेल दी गई
मनों मिट्टी/
अनुपयोगी वस्तुएं
किसी कब्रगाह की तरह..
गाँव के आखिरी छोर वाला कुआँ
जन्म से अंधा नहीं था..!
अल्पना नागर
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
जी बहुत बहुत शुक्रिया 💐💐
Deleteवाह
ReplyDeleteजी बहुत शुक्रिया 💐
Deleteएक भूले बिसरे से कुँए को आपने जीवन्तता देने की नायाब कोशिश की है। वस्तुतः कुँआ, एक जीवन शैली का द्योतक हुआ करती थी कभी, जो कि अब घर के भीतर नलों तक सिमट गई है। सामाजिक परिवेश का ताना-बाना बुनता हुआ वह कुँआ न जाने क्यों मृतप्राय अवस्था में पड़ा है।
ReplyDeleteएक नए विषय पर प्रभावी रचना हेतु साधुवाद व शुभकामनाएं।
जी बिल्कुल सही कहा आपने।कुआँ वस्तुतः हमारी भूली बिसरी अनमोल धरोहरों में से एक है।वो गाँव में किसी बड़े बुजुर्ग व्यक्ति जैसा हुआ करता था जो अब लुप्तप्रायः है।
Deleteहार्दिक आभार कविता की विस्तृत सटीक समीक्षा के लिए।💐😊