Wednesday, 24 June 2020

हरी दूब के सपने

हरी दूब के सपने

इन दिनों
जैसे सपने देख रही हूँ
कलकल बहती नदी का..
निरे रेगिस्तान पर औंधे पड़े हुए
तपती दुपहरी ओढ़
बसंत का स्वांग रच रही हूँ !
दूर दूर तक उड़ती हुई
रेत ही रेत
जैसे उड़ रहा हो
मरुधर के काँधे पर 
धरा उत्तरीय..!
ऐसा नहीं है कि
घुप्प वीरानी छाई है..
कहीं कहीं दिख जाते हैं
'सोशल डिस्टेंसिंग' का
पालन करते हुए
खेजड़ी,कीकर और कैर !
इस बीच
समय को गच्चा दे
लगी हुई हूँ निरंतर कि
कुछ करूँ 'क्रिएटिव'
कहीं खोज लाऊं
भीतर दबी
हरी दूब कोई..!
लेकिन दूब के नाम पर
देखती हूँ
अपनी हथेलियों पर उगी
नागफनी !
खैर!रेगिस्तान में ऐसी
कपोल कल्पित कल्पनाओं को
कोई हक नहीं जन्मने का..!
आसमान जैसे भेज रहा है
बारी बारी से
चाँद और सूरज को कि
खींच लाये
तीनों पहर
अलग अलग कोणों से
हम जैसे शिथिल प्राणियों की
नई नई तस्वीरें..!
वो बाकायदा लगे हुए हैं दिन रात
किसी घुमंतू खोजी पत्रकार की तरह !
ये निरा रेगिस्तान है..
चाहे खींच लो
किसी भी एंगल से तस्वीरें..
चाहे लपेट लो
अपने चारों ओर
घना अँधेरा..
निगेटिव अंत तक 'निगेटिव' ही रहेगा !
उसमें भरे रंग वैसे ही उड़ जायेंगे
जैसे कड़ी धूप में पानी..!
चाहे कहो इसे पागलपन
मेरी आँखों में अभी भी
दिख जायेगी
उड़ती हुई नदी..!
किसे पता
ये मौसम बदल जाये
रेगिस्तान समंदर हो जाये
आत्मीयता के बादल फिर से छाए !
नागफनी हरी दूब बन जाये,
सवांद के बीच कोई
अहम का मास्क न आये..!
मिलेंगे दोस्त
जरूर मिलेंगे
बदल जाने दो मौसम भी
तुम्हारी आत्मीयता की तरह..!
चाय की पुरानी थड़ियों पर
इत्मीनान की चुस्कियों के साथ
जरूर मिलेंगे
लेकिन देखना
कहीं कुछ बदला हुआ न मिले
संवाद की पहल में
चाय न खत्म हो जाये..!
सवाल है
कौन करेगा पहला संवाद
कौनसी लिपि कौनसी भाषा में
लिपिबद्ध होगा
बदलता नया रिश्ता..!
कौन मिटायेगा दूरी के रेगिस्तान !
कौन ढूंढकर लायेगा
सूखी रेत से
आत्मीयता की नदी..!!

अल्पना नागर







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