आलेख
शाकाहार-घास फूस या प्रकृति प्रदत्त उपहार!
दुनिया जिसमें हम रह रहे हैं,आधी से ज्यादा मांसाहार का सेवन कर रही है।चूँकि इंसान इस पृथ्वी ग्रह पर सबसे अधिक बलशाली एंव बुद्धिमान प्राणी है,अतः उसे भोजन का श्रेष्ठ रूप चयन करने का पूर्ण अधिकार है।शुक्र है डायनासोर का अस्तित्व हमारे अस्तित्व में आने से पहले ही नष्ट हो गया अन्यथा या तो हम उन्हें खा गये होते या फिर वो हमें ! हमारे पास भोजन के अन्य विकल्प होने के बावजूद भी हम मांसाहार का चयन करते हैं।इसके पीछे उनके अपने तर्क हैं जैसे शाकाहार घास फूस से अधिक कुछ नहीं,शरीर में ताकत चाहिए तो मांसाहार आवश्यक रूप से अपनाना होगा,त्वचा स्निग्ध रहती है,इसके अलावा एक और तर्क उन समस्त शाकाहारियों के लिए कि कोई भी इंसान पूरी तरह शाकाहारी नहीं हो सकता यदि आप साँस भी लेते हो तो साँस के साथ न जाने कितने जीवाणु कीटाणु अंदर जाते हैं!पशुओं का दूध पीकर हम उनके बच्चों का अधिकार छीन रहे होते हैं आदि आदि।वैसे तर्क वितर्क के लिए सभी स्वतंत्र हैं।अगर मांसाहार पूर्णतः बेदाग है तो क्यों न मानव का मांस शुरू किया जाये वो मानव के लिए और भी अधिक स्वास्थ्यकारी और लाभदायक होगा!लेकिन नहीं..सुनकर ही हृदय की धड़कनें असंयमित होने लगी..मानव का माँस?क्या बकवास है ये !जनाब ये तो संवेदनहीनता का मसला है।चूँकि बेजुबान बोल नहीं सकते अतः ये मसला संवेदनहीनता की सीमा को छू ही नहीं सकता।उन्हें कोई आपत्ति नहीं तो किसी और को क्यों आपत्ति! ये निहायती व्यक्तिगत मसला है,दूर ही रहें तो बेहतर।जनाब क्यों गर्म हुए जा रहे हैं चर्चा ही तो है ठीक लगे तो अहोभाग्य हमारे वरना कोई बात नहीं,आप किसी भी कोण से कमतर साबित नहीं होंगे!
तो बात चल रही थी मांसाहार और संवेदनहीनता की।पुनः लौटते हैं आलेख की ओर।मेरी एक घनिष्ट मित्र है,मांसाहारी है।उसका कहना है कि मुझे मांसाहार बहुत पसंद है क्योंकि वो बहुत चटपटा और स्वादिष्ट होता है,शाकाहार में वो बात कहाँ!लेकिन मैं उसे कटते या बनते हुए नहीं देख सकती।मैंने कहा धन्य हो,बधाई! तुममे अभी संवेदनशीलता बची हुई है,डायनासोर की तरह पूर्णतः विलुप्त नहीं हुई ! वैसे आज घर जाकर कोशिश करना अपने घर की सोफा कुर्सियां या टेबल को तोड़कर खूब मिर्च मसालों के साथ छोंक लगाकर खाना तुम्हें वही स्वाद मिलेगा!
कभी सोचा है सृष्टि में मौजूद हर प्राणी की अपनी जुबान है,अपना परिवेश है,अपना संसार है।निरीह बेजुबान जब मानव उदर भक्षण के लिए तैयार किये जाते है तब क्या क्या गुजरती होगी उनपर,वो अपने प्राण बचाने के लिए कितना प्रयास करते होंगे कितना तड़पते होंगे! उनसे उत्सर्जित होने वाली हर आह,पीड़ा अंतिम समय की कसमसाहट किस कदर उनके रक्त में घुलकर अंततः इंसान के उदर में और फिर उदर से दिमाग में प्रवेश करती होगी।कोई संदेह नहीं आज दुनिया क्यों बर्बर मशीन में परिवर्तित होती जा रही है!
कमाल की बात है मानव की शारीरिक संरचना,दाँतों की बनावट एंव पाचन तंत्र तक शाकाहार की वकालत करती है लेकिन हम तमाम दलीलों को दरकिनार कर खुद अपने वकील बन रहे हैं अभी सारी दुनिया में जड़ें जमा चुके कोविड उन्नीस के भयावह प्रतिरूप को देखकर इसके उद्गम एंव स्त्रोत को लेकर बहस छिड़ी हुई है,तमाम तरह के कयास लगाये जा रहे हैं।उन कयासों में से एक मानव का मांसाहार के प्रति अतिशय लगाव भी सम्मिलित है।कहा जा रहा है कि पड़ोसी देश चीन में चमगादड़ का सूप पीने से इसकी उत्पत्ति हुई।खैर ये सिर्फ एक अनुमान है।हक़ीकत तो इससे भी भयावह हो सकती है!अभी कुछ दिन पहले सोशल मीडिया की कृपा से चीन के इस मांसाहार प्रेम का एक और रूप उजागर हुआ।ज्ञात हुआ कि वहाँ जीवित जानवरों को खाकर इंसान नें जानवर को भी पीछे छोड़ दिया।जीवित ऑक्टोपस से लेकर चूहे,बिल्ली,कुत्ते और भी न जाने कौन कौन सी प्रजातियां,इंसान नें कुछ भी नहीं छोड़ा।हद तो तब हुई जब सोशल मीडिया पर ही एक बहुत ही विचलित कर देने वाली वायरल फोटो देखी जिसमें एक थाली में नवजात शिशु को ही पका कर परोस दिया गया था! मुझे याद है ये दृश्य देखने के बाद बहुत दिन तक मुझे अजीब से दुःस्वप्न आने लगे थे,बहुत समय तक अत्यधिक विचलित रही थी। मैं नहीं जानती वो फोटो असल थी या नकली लेकिन क्रूरता की पराकाष्ठा थी।थाईलैंड आदि देशों में सड़कों पर ठेले पर आपको जीवित जानवर तड़पते हुए लटके दिखाई दे सकते हैं।जैसे ही कोई ग्राहक आता है तुरंत उस जीव को उतारकर गरमागरम तेल में तल दिया जाता है।लीजिये तैयार है स्वादिष्ट भोजन ! ये भयावह दृश्य वहाँ बेहद आम है।
कोरोना काल में चूँकि हम सभी विकट स्थिति में उलझ गए हैं अतः पड़ोसी देश की इन हरकतों पर भृकुटियां तन जाना स्वाभाविक है।हम लोग जमकर उनकी असंवेदनशीलता को कोस रहे हैं लेकिन क्या कभी महसूस किया कि कोई भी जीव जीवित खाया जाए या मारकर कुछ समय पश्चात खाया जाए,इसमें ज्यादा फर्क नहीं है।जीव आखिर जीव है।उसे इंसानी जीभ के स्वाद की खातिर अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है वो चाहे हमारे यहाँ रोज खाया जाने वाला चिकन हो या पड़ोसी देश में खाया जा रहा कोई जीवित ऑक्टोपस !
अभी कुछ दिन पहले की बात है।एक परिचित से फोन पर संवाद के दौरान उनकी व्यथा ज्ञात हुई।कोरोना काल में तालाबंदी के कारण मांसाहार लेने में उन्हें अच्छी खासी मशक्कत करनी पड़ी।कहीं दूर दराज से जुगाड़ करके 'हाइजीनिक' चिकन का किसी तरह प्रबन्ध किया।इसी तरह मछली खरीदने में भी लाइन में लगकर 'सोशल डिस्टेंसिंग' का पालन करते हुए आख़िरकार वो मछली खरीद पाने में सफल हुए।पर ये क्या ! मछलियों नें पेट में जाकर विद्रोह कर दिया जैसे कि आपत्ति जता रही हों,भई इस आपदा में तो हमें बख्श देते! मछलियां और चिकन महंगा पड़ गया।कई दिन तक एडमिट रहना पड़ा अस्पताल में।प्राण जाए पर मांसाहार न जाये !
कल्पना कीजिये..अजी कर लीजिए इसपर कोई टैक्स नहीं है ..थोड़ी देर के लिए आँख बंद कर विचार कीजिये।हम इंसान अपनी श्रेष्ठता का मुकुट पहनकर सभ्यता के जंगलों में विचरण कर रहे हैं..अपनी ही धुन में बेपरवाह कि तभी हमारी आँखों के सामने कोई पहाड़ आ खड़ा होता है,हम नजर उठाकर देखने का प्रयास करते हैं तो पता लगता है वो पहाड़ कोई विशाल जंतु है जिसके बारे में हमें पहले कोई जानकारी नहीं थी और पलक झपकते ही देखते ही देखते उन जंतुओं का विशाल समूह आ खड़ा होता है।चारों ओर वो भयानक जंतु और हम किसी चींटी की तरह आंतकित हो जान बचाने को इधर से उधर भागने का प्रयास कर रहे हैं।अगला दृश्य है, वो जंतु अपने मनोरंजन के लिए या फिर अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए हम जैसे 'निरीह' बेबस इंसानों को उठा उठा कर खाना शुरू कर देते हैं।एक एक कर हम सभी उनके बनाये 'स्टोरेज' में आगामी प्रयोग के लिए कैद कर दिए जाते हैं।या फिर..कल्पना कीजिये..किसी मूवी के दृश्य की तरह सचमुच किसी अन्य ग्रह से बेहद भयावह प्राणी आकर अपनी हुकूमत हम पर चलाना शुरू कर दें,हमें अपनी क्षुधा शांति के लिए भोजन की तरह प्रयुक्त करें और हम किसी लाचार की तरह कुछ कर न पाने की स्थिति में आ जाएं! सोचकर हँसी आ रही होगी न ! भला ऐसा भी हो सकता है क्या? हम सर्वश्रेष्ठ हैं और हमेशा रहेंगे! ये काम तो केवल हम ही कर सकते हैं! जनाब कुछ भी हो सकता है,दुनिया गोल है और हम इसी गोल दुनिया का इतिहास भी हैं और भूगोल भी! हम कितने श्रेष्ठ हैं इसका पता तो चल ही चुका होगा।हमारे इस मिथ्या वहम को तोड़ने के लिए एक छोटा सा वायरस ही काफी है! अब सवाल ये है क्या हमारे साथ हमारे ग्रह पर निवास कर रहे हमारे जैविक पारिस्थितिकी तंत्र को सुचारू रूप से चलाने में योगदान देने वाले अन्य जीवों को जीने का अधिकार नहीं है?क्या उनकी अपनी कोई दुनिया नहीं है या फिर वो पैदा ही सिर्फ इसलिए होते हैं कि हमारी उदर की क्षुधा को शांत कर सकें।कहने वाले तो ये तक कहते हैं कि अगर हमने इन जीवों का भक्षण नहीं किया तो ये जीव पूरी पृथ्वी पर इतने ज्यादा हो जायेंगे कि मानव सभ्यता ही विलुप्त हो जायेगी।उन जीवों का भक्षण करके वो इस सभ्यता को बचाने का अभूतपूर्व कार्य कर रहे हैं!आह,सभ्यता की इतनी परवाह ! कुछ काम प्रकृति के लिए भी छोड़ दें।संतुलन बिठाने का काम उससे बेहतर कौन कर सकता है! हमनें तो अब तक असंतुलन में ही योगदान दिया है।इसमें कोई दो राय नहीं।
दिवंगत फिल्म अभिनेता इरफ़ान खान पठान परिवार में पैदा होने के बावजूद बचपन से ही शाकाहारी थे।एक इंटरव्यू के दौरान इरफ़ान खान नें खुलासा किया कि किस तरह उनका शाकाहारी होना कट्टरपंथियों की दृष्टि में अधार्मिक कार्य बन गया था,उन्हें अपने मुस्लिम समुदाय से आलोचनाएं झेलनी पड़ी।कई बार ये बात समझ से बाहर हो जाती है क्या तथाकथित धर्म गुरुओं का इंसान के खानपान के चुनाव पर भी अंतरिम अधिकार होना चाहिए? हैरानगी होती है।
अभी पिछले वर्ष पूर्वोत्तर भारत की यात्रा के दौरान असम के कामाख्या देवी मंदिर में जाने का अवसर मिला।मंदिर का विशाल परिसर वहाँ घूम रहे कबूतरों के कारण और भी अधिक आकर्षक दिखाई दे रहा था।बाद में ज्ञात हुआ कि यहाँ कबूतरों की भी बलि दी जाती है।मादा जानवरों को छोड़कर अन्य जानवरों को बलि के लिए प्रयुक्त किया जाता है।रक्त में भीगे कपड़े को माता का प्रसाद मानकर भक्तों को दिया जाता है।संपूर्ण यात्रा में मेरे मन मष्तिष्क में यही बात घूमती रही कि क्या ये सब अति आवश्यक है! अगर बलि देने इतना ही आवश्यक है तो क्या धर्म के लिए सांकेतिक बलि का विकल्प नहीं रखा जा सकता! खैर इस विषय में ज्यादा कुछ कहना उचित नहीं होगा।
जहाँ एक तरफ क्रूरता की सारी हदें पार हो रही हैं वहीं दूसरी ओर भारत जैसे देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो मांसाहार के बारे में सोचना भी आचरण के विरुद्ध और अमानवीय कृत्य समझता है।वस्तुतः संपूर्ण विश्व में भी बहुत से लोग पूर्णतः शाकाहारी हो चुके हैं।कारण जो भी हो,चाहे वो स्वास्थ्य से सम्बंधित हो,वजन नियंत्रित करने का प्रयास भर हो,धर्म की पालना हो,अंतरात्मा की पुकार हो या पर्यावरण और प्रकृति के प्रति चेतना हो..जो भी हो ये संपूर्ण चराचर जगत एंव मानवता के हित में है।
Alpana nagar
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