Wednesday, 10 June 2020

अकेलापन- अनुनाद या विषाद !

आलेख
अकेलापन -अनुनाद या विषाद !

दुनिया अपनी ही मौज में चल रही होती है,बेबाक..खिलंदड़..लगातार.. कभी चमचमाते मॉल्स में,कभी डिस्क में,कभी थियेटर,कभी कॉफी शॉप,रेस्टोरेंट्स,कभी शादी ब्याह का भांगड़ा,कभी कोई पार्टी,कभी कोई उत्सव..कभी किट्टी.. कभी ऊटी..कभी इस शहर कभी उस गली हर जगह भीड़ ही भीड़,बेपरवाह..खुद में सिमटी हुई बेतरतीब कि तभी एक घोषणा होती है..मौज मस्ती की समय सीमा समाप्त,कृपया कुछ दिन शांति से घर बैठे! ये क्या! ये कैसे हो गया?भई, हमें तो आदत ही नहीं यूँ अकेले अकेले घर बैठने की! हमें तो तफरीह करनी है हर दिन दोस्तों के साथ,परिचितों के साथ,नाते रिश्तेदारों के साथ,कुछ भी करेंगे पर घर नहीं बैठेंगे।वर्तमान स्थिति यही बन रही है।अकेलेपन को हम जिस हिकारत से देखते हैं उसे देखकर तो यही लगता है कि दुनिया में इससे बुरी कोई चीज नहीं!अकेला इंसान जहाँ कहीं भी दिख जाता है लोग अपना कंधा लेकर पहुँच जाते हैं,तरह तरह की बातें बनाई जाती हैं कि "हाय फलां औरत अकेली हो गई है..फलां की अभी तक शादी नहीं हुई,कैसे उम्र कटेगी, कैसे जियेगी अकेली,परिवार वाले कमाई खा रहे हैं बेटी की,फलां औरत सिंगल मदर है,तलाकशुदा है पता नहीं क्या मजा आता है अकेले रहने में,अभिमानी है पक्का..देखा,अजीब इंसान है न कहीं आता है न जाता है अकेले अकेले रहता है!"लीजिये आपको कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं आपका चरित्र प्रमाणपत्र बन चुका है।समाज इसी चीज का नाम है।अकेलेपन को नकारात्मकता के साथ जोड़कर देखा जाता है।जबकि सच्चाई इसके विपरीत है।अगर हम गौर करें तो दुनिया के तमाम रचनात्मक काम अकेलेपन की स्थिति में ही संभव हो पाए हैं।यहाँ तक कि ईश्वर से जुड़ने के लिए भी हमें एकांत ही चाहिए होता है।अध्यात्म की उच्चतर अवस्था तक पहुंचने के लिए आपको मन रूपी मंदिर में कुछ क्षण अकेले बिताने होंगे।भले ही आप भीड़ से भरे विशाल मंदिर के प्रांगण में खड़े हो लेकिन ईश्वर से मिलने के लिए उसे देखने के लिए आपको बाहरी दुनिया की तरफ से आँखे बंद करनी होगी कुछ क्षण एकांत के सुरक्षित रखने होंगे।यही स्थिति स्वयं के साथ है।हमनें स्वयं को बाहरी भीड़, रस्मों रिवाजों में इतना व्यस्त कर लिया कि जिंदगी की दस्तक सुनाई देनी बंद हो गई।अपने आसपास आभासी दुनिया के मित्रों का इतना विशाल समूह खड़ा कर लिया कि गुम ही हो गए,समय कब हमें टाटा बाय बाय करके चला गया और हम देखते रहे,हमने खुद से मिलना जुलना ही बंद कर दिया!
समाज जिसे मानसिक बीमारी या अवसाद की संज्ञा देता है दरअसल वो हमारा आंतरिक अकेलापन नहीं है वो बाह्य स्थिति है जो समय समय पर बाहरी कारणों से उपस्थित होती है।मसलन व्यापार में भारी भरकम नुकसान, आर्थिक स्थिति का एकदम खस्ताहाल हो जाना,किसी प्रिय का दुनिया छोड़कर चले जाना,या किसी प्रिय से लंबे समय से अनबन,कार्यक्षेत्र में बारम्बार विफलता का सामना करना आदि कारण होते हैं जिनकी वजह से मानसिक बीमारी झेलनी पड़ती है,डॉक्टर के चक्कर लगाने पड़ते हैं।लेकिन आंतरिक एकांत बिल्कुल अलग स्थिति है उसे बीमारी कहना सर्वथा अनुचित होगा।एकांत को हम चुनते हैं स्वेच्छा से,ये हमपर थोपा हुआ नहीं होता।आंतरिक एकांत शांत बहती हुई नदी सा है,चुपचाप अपनी धुन में बहता हुआ,मन के सूखे कोनों को हरित करता हुआ,उत्साह की लहरों में भिगोता हुआ।एकांत हमें स्वयं से मिलने का मौका देता है,स्वयं को जानने समझने का मौका देता है।अकेलेपन के लिए ये आवश्यक नहीं कि आप बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग थलग हो जाओ,किसी प्रिय के साथ भी एकांत की नदी में डुबकी लगाई जा सकती है वो आपका हाथ पकड़कर आपके उज्ज्वल स्वरूप से मिलाने में मददगार भी हो सकता है।जरूरत है तो सही चुनाव की,कोलाहल से स्वयं को मुक्त करने की।कई बार भीड़ में होकर भी आप अकेले हो सकते हैं, ये मनःस्थिति है कोई बीमारी नहीं।जो लोग अकेले इंसान पर तरस खाते हैं वो दरअसल उसे पूरी तरह समझ नहीं पाते ये मात्र समझ का फेर है।हो सकता है वो आनंद की उच्चतर स्थिति को जी रहा हो।कभी समंदर के किनारे बैठकर मन में उठती लहरों से संवाद किया है?कभी लहरों में उतरकर रचनात्मकता के सीप या शंख मोती चुने हैं! कभी शाम के धुंधलके में अकेले बैठकर पंछियों का कलरव सुना है,अपने अंदर छुपे अनंत आसमान में संभावनाओं की उन्मुक्त उड़ान भरी है! कभी घंटों चाँद के तले बैठ उसकी दूधिया रौशनी में नहाए हो!कभी यूँ ही..बस यूँ ही खिड़की के नजदीक बैठ बारिश की टिपिक टिपिक धुन में खुद को डुबाया है! अगर नहीं तो आप कभी अकेलेपन से मिले ही नहीं या फिर कभी मिलने का प्रयास ही नहीं किया क्योंकि ज्यादातर समय आप भीड़ के इर्द गिर्द होते हैं सुबह से रात तक लगातार व्यस्त..बेहद व्यस्त।इतना व्यस्त होकर भी हम अंदर ही अंदर कब तन्हाई पाल बैठते हैं हमें पता ही नहीं लगता और कब वो बीमारी के रूप में हमारे सामने आती है,हम यकायक चौंक जाते हैं।जो खुद से मिलते रहते हैं उन्हें तन्हाई जैसा कुछ महसूस हो ही नहीं सकता।इस फर्क को समझना बेहद आसान है।अपने आप में मगन बच्चे की उन्मुक्त हँसी जैसा ही है अकेलापन भी।
एक परिचित मित्र है..बहुत होनहार है..आर्थिक रूप से स्वतंत्र है।विचारों में बेहद आधुनिक,लेकिन एक समस्या है जिस समाज में वो रहती है वो बहुत पिछड़ा है।उसने बहुत ही कम उम्र में ज्यादातर उपलब्धियां हासिल कर ली जिसकी चाह एक सामान्य व्यक्ति को होती है वो सब उसे मिला लेकिन फिर भी वो इतनी स्वतंत्र नहीं कि अकेली कहीं घूमकर आ सके।उसकी दिली तमन्ना है पहाड़ो को छू कर आये,देवदार के पेड़ों को करीब से देखे कुछ पल खुद के साथ बिताए।उसने परिवार से इजाजत चाही,नहीं मिली।एक तो अविवाहित ऊपर से लड़की! हाय राम! आस पड़ोसी रिश्तेदार क्या सोचेंगे ! वो समाज के तयशुदा फ्रेम से बाहर नहीं आ सकती।वैसे उम्मीद भी यही थी।उसे विश्वास नहीं कि विवाह पश्चात भी कोई उसे कहीं लेकर जायेगा क्योंकि वो अपने समाज को जानती है।ये कहानी हर लड़की की है,हर समाज की है।
अकेलेपन का मतलब उदासी नहीं है।लेकिन बहुत बार ऐसा होता है एक औरत विशेषरूप से तलाकशुदा या विधवा जब तक समाज के बने बनाये ढर्रे पर चलती है वो ठीक है..भले ही उस वक्त रिश्तों की भीड़ में भी कृत्रिम मुस्कुराहट के साथ फोटो खिंचाती हो,उसके अंदर पनप रही तन्हाई या उदासी किसी को नजर नहीं आएगी क्योंकि वो समाज के साथ है।लेकिन अगर उसने अपने आप से मिलना शुरू कर दिया या खुश रहने लगी,कभी खुद को आईने में निहारकर लिपस्टिक लगा ली तो लोगों की आँखों में कैक्टस उगने लगते हैं।'पति नहीं है फिर भी पता नहीं किसके लिए सजती संवरती है..अरे वो फलां औरत नें तो हद ही कर दी परिवार नहीं है पति नहीं है फिर भी फर्राटे से चार पहिया गाड़ी घुमाती फिरती है !अकेली औरतों के लिए इस तरह की फ़िकरेबाजी आम है हमारे समाज में।
फ़िलहाल इन सब अवधारणाओं पर विराम लगाने के लिए हमें ईश्वर प्रदत्त कुछ समय मिला है,मज़बूरी में ही सही हम स्वयं को एक जगह सीमित करके अपनी असीमित संभावनाएं तलाश सकते हैं।चूँकि हम स्वयं उस दौर से गुजर हैं अतः बेहतर तरीके से विचार कर सकते हैं,खुद को बेहद करीब से जान सकते हैं।समाज के तयशुदा फ्रेम से बाहर आ सकते हैं,कुछ पल ही सही ,स्वयं के दृष्टिकोण को परिवर्तित करने का प्रयास कर सकते हैं।अपनी ऊर्जा को रचनात्मक कार्यों में लगा सकते हैं।अकेलेपन की आंतरिक और बाह्य स्थितियों पर विचार कर सकते हैं।आपके परिचित मित्र जो अब तब एकांत प्रिय थे लेकिन आपकी दृष्टि में किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित थे उनके प्रति सकारात्मक सोच विकसित कर सकते हैं।ईश्वर को शुक्रिया अदा कर सकते हैं जिसने समय जैसा कीमती तोहफा आपको इनायत किया,एक अभूतपूर्व आइना आपको दिया जिसमें स्वयं को निहारकर शेष जिंदगी के प्रति नजरिया बदला जा सके।शुक्रिया जिंदगी! शुक्रिया एकांत!

Alpana nagar

3 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11.6.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3729 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय, कृपया मुझे चर्चा मंच से अवगत कराएं, हो सके तो लिंक भेजकर कृतार्थ करें।

      सादर
      अल्पना नागर

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  2. जी बहुत बहुत आभार आदरणीय।

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