Thursday, 11 June 2020

वो जीवन्मृत

वो जीवन्मृत

पिता की गोद से छिटककर
वो निकल पड़ी थी
बहुत दूर
अपने सपनों के दूधिया पंख फैलाकर
सब कुछ कितना नया
कितना अलौकिक!
वो आज आजाद थी,
बेरोकटोक,
बेखयाली में आगे बढ़ती हुई..
उसकी कमर के मोड़
नृत्य की मुद्रा में
बेताब थे अपना हुनर दिखाने को,
उसकी अपनी गति थी
लय था,
उत्साह था,
भानू औ शशि की अनगिनत किरणें
गीत गाती थी
उसकी प्रशंसा के,
और देखते ही देखते
चमक उठती थी उसकी
दूधिया देह
जैसे जड़ दिए हों किसी नें
बेशकीमती जवाहरात
यत्र तत्र सर्वत्र,
नई आज़ादी के जश्न में वो
कर चुकी थी विस्मृत
अपने प्रिय पिता की चेतावनी को भी!
वो बढ़ती गई
अपनी धुन में,
अब वो पूर्णतः आजाद थी
अपने पिता की गोद से...
अपने सपनों के राजकुमार की
तलाश में थिरक रहे थे उसके कदम,
अंततः राजकुमार मिला!
अब इंद्रधनुषी सपनों में
भीगने लगे थे उसके
दूधिया डैने,
राजकुमार नें बाँध लिया था
उसकी अल्हड़ता को
अपने मोहपाश में,
राजकुमार नें कहा-
"देखो,तुम्हारे बंधकर रहने में ही
भलाई है सब की,
इसी में विकास है सबका
प्रिये!त्याग करना होगा तुम्हे..!"
मजबूर थी वो,
याद आती रही उसे
अपने पिता की सुरक्षित गोद,
आजाद होने की जद्दोजहद में
उसके शरीर का एक हिस्सा
बह चला था
एक नई दुनिया की तलाश में
नई दुनिया
दूर से चमकती हुई
उसे खींच रही थी अपनी ओर,
उसके चेहरे का तेज़
लौटने लगा था,
प्रवाहित होने लगा था उसमें
एक बार पुनः नया जीवन,
वो बेख़बर
हिस्सा होने जा रही थी
उस नई दुनिया का,
वो देख नहीं पाई
उसका स्वार्थी चेहरा,
नई दुनिया नें उसको
बना दिया अपनी
प्रयोगस्थली,
अब वो हो चुकी थी
बदरंग
ठीक उसी तरह
जैसे तेज़ाब से विकृत हुआ
किसी सुन्दर स्त्री का चेहरा!
वो नहीं समझ पा रही थी कि
कैसे उगल रही हैं आज
उसकी अपनी सांसें
जहर !
वही सांसें जो कभी आधार होती थी
प्राणिमात्र के जीवन का,
वो बहा रही है
अपनी दुर्दशा पर
आँसू
और हमें लगता है
बाढ़ आ गई !
जी,हां! वो कोई और नहीं
एक नदी है,
जीवन्मृत
जीवित मृतप्रायः नदी!
दूर खड़ा हिमपिता
प्रत्यक्षदर्शी है,
विचलित है हिमालय
अपनी आत्मजा की
दुर्दशा पर
और हमें लगता है
ग्लेशियर पिघल रहे हैं..!

अल्पना नागर




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