Wednesday, 22 February 2017

एक शाम

एक शाम

चलो
मिलते हैं किसी रोज़
उसी जगह
जहाँ मिलते हैं
जमीं और आसमां..
क्षितिज पर
कत्थई क्षणों को
देर तक
निहारते हुऐ
बनायेंगे कुछ घरौंदे
मिट्टी जैसे अरमानों से,
टूट भी जायें अगर
तो ग़म नहीं होगा !
भर लेंगे
बेपनाह समंदर
मुहब्बत का
एक छोटी सी चाय की
प्याली में..
गिनेंगे हर आती जाती
लहर और
धड़कनों को...
चुन कर रख लेंगे
किनारे पड़े शंख
सीप और फेनिल लम्हे..
तुम देखना
मेरी आँखों में
डूबता हुआ सूरज
मैं इंतज़ार करूँगी
चाँदनी उतरने का
ज्वार भाटे सी
घटती बढ़ती सांसों में..
निकल आयेंगे
दूर तलक
लहरों के पीछे पीछे
छोड़ आयेंगे
यादों के निशान
भुरभुरी समय रेत पर..
हो सके तो
उस रोज़
घड़ी की जगह
फुरसत बाँध के आना
कलाई पर...

अल्पना नागर

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