कौन सा घर
आमतौर पर घर जिसे हम सपनों का आशियाना भी कहते हैं,इंसान की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक माना जाता है।कहा भी जाता है रोटी,कपड़ा और मकान इन तीन शब्दों को जोड़े रखने का नाम जिंदगी है।ईंट पत्थरों से जुड़कर रहने लायक आवास बनाने में समूचा जीवन लग जाता है और उसे 'घर' बनाने में विशुद्ध अपनापन और कुटुंब की निस्वार्थ भावना का होना जरूरी हो जाता है अन्यथा 'घर' टूटकर सिर्फ मकान रह जाता है।
लेकिन क्या कभी सोचा है जिस घर को हम इतने प्यार और अपनेपन के साथ हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनाते हैं वो सचमुच हमारा है भी या नहीं..! दरअसल मकानमालिक होते हुए भी हम आजीवन एक मामूली किरायेदार हैं जिसे एक न एक दिन मकान खाली करना है।बात भले ही दार्शनिक लगे किन्तु कटु सत्य है जिसे हम जानते हुए भी स्वीकार नहीं कर पाते और जीवन भर तरह तरह की उलझनों में फंसते चले जाते हैं।
इस समूचे ब्रह्मांड में अनेकानेक ग्रहों उपग्रहों और आकाशगंगा के बीच हमारी पृथ्वी पेंसिल की नोक से भी मामूली आकार की है।ये विडंबना है कि उसी पृथ्वी पर हम आजीवन घर तलाशते हैं,रिश्ते नातों को धता बता मामूली जमीन के टुकड़ों की ख़ातिर कानूनी लड़ाई लड़ते हैं।
ये पृथ्वी का अटूट धैर्य ही है जिसने मनुष्य द्वारा अंतरतम केंद्र तक खोद दिए जाने के बावजूद इंसानी सभ्यता को अक्षुण्ण बनाये रखा,शायद इसीलिए इसे धारिणी की उपमा दी गई है।
लियो टॉल्सटॉय की विश्व प्रसिद्ध कहानी 'हाउ मच लैंड डज़ ऐ मैन रिक्वायर' में इसी तरह का संदेश दिया गया है।इंसान को अंत में सिर्फ छह गज जमीन के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए वो भी उसकी कब्र के लिए।यहाँ इस कहानी का जिक्र करके सांसारिक नश्वरता को इंगित करना भर नहीं है अपितु ये बताना है कि जितना भी अनमोल समय है उसे हर क्षण जी भर के जिया जाए,भविष्य की व्यर्थ चिंता में पड़कर जमीन ज़ायदाद के पीछे दौड़कर हम जीवित होते हुए भी साक्षात मृत्यु का वरण करते हैं।
सच बात यही है कि हमारा अपना कोई घर नहीं होता और न ही कोई पता स्थाई होता है जो कुछ भी वर्तमान में है वही जीवन है वही घर है।
स्त्रियों के मन मे अनेक बार ये प्रश्न जरूर आता है आखिर वो कौनसा घर है जिसे वो अपना माने..पीहर पक्ष जहाँ उसने अपने जीवन की शुरुआत की..या फिर ससुराल पक्ष जहाँ उसे एक बार पुनः नई शुरुआत करनी है,नए सिरे से चीजों को समझना है अंगीकार करना है।स्त्री चाहे कितनी भी कोशिश करे वो आजीवन दोनों घरों के बीच फंसी रहती है वो भी खुशी खुशी स्वेच्छा से।कई बार यूँ भी होता है उसे दोनों तरफ से दुत्कार के सिवा कुछ नहीं मिलता।पीहर पक्ष विवाह के बाद अपने कर्तव्य से इतिश्री कर जिम्मेदारियों से स्वयं को विमुक्त कर लेता है दूसरी तरफ ससुराल पक्ष भी उसे पराया समझ रूखा व्यवहार करता है ऐसे में एक स्त्री घर की देहरी जैसी हो जाती है जिससे गुजरते तो सभी हैं लेकिन उसे घर का हिस्सा नहीं मानते।वर्तमान में काफी हद तक परिस्थितियों में बदलाव आया है।अब स्त्रियों को 'अपना घर' संबंधित प्रश्न पर इतनी अधिक मानसिक यातना नहीं झेलनी होती।फिर भी दोनों ही परिस्थितियों में स्त्री सहृदय रहती है ,दोनों घरों को अपना मानती है और खुले हृदय से प्रेम और अपनापन लुटाती है।उसके होने से दोनों घरों में चहक और रौनक बनी रहती है।
मनुष्य भी अगर समूची पृथ्वी को अपना घर मानकर जीवनयापन करे तो शायद मसले इतने अधिक न हों।एक छोटे से घर में हमनें इतनी अधिक दीवारें और सीमाएं बना दी हैं इतने अधिक बँटवारे और कौम खड़ी कर दी हैं कि घर एक उलझे हुए जंजाल के अतिरिक्त कुछ नजर नहीं आता।उलझनों नें वास्तविक उद्देश्य को पूर्णतः विस्मृत करा दिया है।
अगर अभी भी आप यही सोचकर व्यथित हो रहे हैं कि समूचे जीवन में एक छोटा सा मकान तक खड़ा नहीं कर पाया तो एक बार पुनः विचार करें।
अल्पना नागर
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