आकाश
(1)◆
दूर तक फैला राख का समंदर
आकाश किसी धूणी रमाये अघोरी सा
खड़ा है एक टांग पर
बरसों से...!
(2)◆◆
इन दिनों
हैरान है आकाश
अपने साँवले अधरों पर/
जैसे पीता हो
दिन की तीस सिगरेट
सब कुछ धुआँ करने को..!
(3)◆◆◆
आकाश के दामन में हैं
ढेरों पुलिंदे
शिकायतों के..
कोई धुँधला परदा है बीच में कि
नहीं पहुंचती कोई प्रार्थना ठीक से/
आकाश किससे कहे
उसका दम घुटता है..!!
(4)◆◆◆◆
धुआँ चाहे बारूद का हो या
हो निजी स्वार्थों का..
आकाश झेलता है/
वो जमकर बरसता है
हालातों पर..
उसे भी जिद है
रोज नया सूरज उगाने की..!
(5)◆◆◆◆◆
जब छूटने लगती है
हाथों से डोर/
आकाश सिमट कर
आ जाता है
मन के आँगन में
किसी नीली पतंग सा
हौले हौले..!
(6)◆◆◆◆◆◆
बालकनी भर दुनिया में
आकाश की उपस्थिति
जैसे होना किसी मित्र का
स्थाई रूप से/
मन की टेबल पर
मूक संवाद और
एक निस्सीम भाव
चाय के प्याले में उतरते जाना
किसी हमख़याल सा..!
(7)◆◆◆◆◆◆◆
उसे पता है
शून्य होकर भी
हुआ जा सकता है
निस्सीम..!
(8)◆◆◆◆◆◆◆◆
वो उसकी एक मुस्कान पर
बिछा देता है
खुद को/
जमीं हँसती है
आकाश सजदा करता है..!
क्षितिज पर रचती है
कत्थई मेहंदी..!
-अल्पना नागर
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