Thursday, 20 September 2018

कहानी- एक थे चचा

कहानी
एक थे चचा

इस शहर को देखता हूँ तो लगता है बहुत जल्दी में है,हर वक़्त भागमभाग..सांस लेने की भी फुर्सत नहीं..खैर,शहर कब से सांस लेने लगे! शहर का दम तो चींटी की तरह रेंगती गाड़ियों से हर वक़्त निकलने वाले धुँए नें ही निकाल दिया होगा।अब तो बेचारा हर शहर निष्प्राण जॉम्बी की तरह चलता फिरता दिखाई देता है जिसमें कोई भावना,आत्मा या संवेदना नहीं,सच ही तो है !शहर में कदम रखते ही दिल दिमाग सब पर शहरी धूल परत चढ़ जाती है,तभी तो सड़क पर चाहे कोई बेसुध होकर आखिरी सांस ले रहा हो,या फिर किसी बुजुर्ग को चाकू की नोक पर लूटा जा रहा हो,सब आँखों पर अदृश्य पट्टी बांधकर निकल जाते हैं,किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।
"क्या यार ये रोज का ट्रैफिक और रेंगती हुई जिंदगी!"मन ही मन कसमसाते हुए मैंने कहा।
ऐसे दमघोंटू माहौल में रोज एक बुजुर्ग को बड़ी ही तल्लीनता के साथ ट्रैफिक को नियंत्रित करते देखना किसी अजूबे से कम नहीं लगता।जी हां! इस रास्ते से होकर रोज़ गुजरता हूँ,इस भीड़भरे इलाके में सबसे ज़्यादा ट्रैफिक होता है विशेष रूप से सुबह के वक्त जब ऑफिस का समय होता है।ऐसे में ये बुज़ुर्ग महाशय एक भी दिन नागा किये बिना अपनी ड्यूटी निभाते हैं,सर्दी गर्मी बरसात कोई भी मौसम इन्हें अपना फ़र्ज़ निभाने से रोक नहीं पाता।इनके एक हाथ के इशारे से ही सारा ट्रैफिक नियंत्रित हो जाता है,रोज आने जाने वाले इन्हें जानने लगे हैं और पूरे अनुशासन के साथ नियमों की पालना करते हैं,सिर्फ अंजान लोग ही ट्रैफिक नियम तोड़ कर इन्हें अनदेखा कर निकल जाते हैं।सफ़ेद धुली हुई वर्दी,नाक पर चश्मा..सौम्य मुस्कान के साथ चेहरे पर बढ़ती उम्र की निशानियां अब साफ़ झलकने लगी हैं,लेकिन क्या मजाल माथे पर एक शिकन तक उभर आये!गले में एक सीटी के साथ पहचान पत्र उनके रोज़ के इस कार्य को वैध दर्जा देते हैं।देखने में तो वो बुजुर्ग सत्तर से ज्यादा के नजर आते हैं,इस हिसाब से तो इन्हें अब तक रिटायर हो जाना चाहिए था..फिर ये रोज़ वर्दी पहनकर क्यों आते हैं! पता नहीं ऐसे कितने सवाल लाल बत्ती होने पर जेहन में आते।ऐसी ही एक सुबह पुराने किसी मित्र के साथ ऑफिस जा रहा था तभी लाल बत्ती होने पर मित्र को वही बुजुर्ग नजर आये,गाड़ी का शीशा नीचे कर मित्र नें उन्हें आवाज लगाई..
"चचा, कैसे हो?सब खैरियत!"
"हां बेटा, सब बढ़िया,तुम बहुत दिन बाद दिखाई दिए।"
"बस चचा, शहर में ही दूसरे विभाग में तबादला हो गया है।अब मेरा रास्ता भी बदल गया है।आज तो किसी काम से गुजर रहा था सोचा आपकी ख़बर ही लेता चलूँ।"
"भगवान तुम्हें खूब बरकत दे,खुश रहो।"वही चिरपरिचित मुस्कान बुजुर्ग के चेहरे पर फ़ैल गई।
हरी बत्ती का इशारा हो चुका था।गाड़ियों का हुजूम फिर से अपनी अपनी राह निकल पड़ा था,पर मेरा मन वहीं रह गया था,बार बार उन बुज़ुर्ग का ख्याल और उनसे जुड़े कई सवाल दिमाग में आ रहे थे जिनका जवाब शायद मेरे मित्र के पास था।
"तू जानता है इन्हें?"
"हां,ये हरिलाल जी हैं,प्यार से लोग इन्हें चचा कहकर बुलाते हैं।"
" काफी मेहनती हैं,मैं रोज इन्हें देखता हूँ,उम्र के इस पड़ाव पर इतना काम करते देख थोड़ा बुरा जरूर लगता है..इनका परिवार नहीं है क्या!"
मेरे मन में उमड़ घुमड़ रहे सवालों को मेरा दोस्त पहचान गया था।
"हम्म,चचा हैं ही इतने प्यारे..कभी काम से जी नहीं चुराया तभी तो रिटायर होने के बाद भी यहाँ रोज अपना फर्ज निभाने आते हैं।"
"कैसा फ़र्ज! तू कुछ बताएगा भी?"
"बताता हूँ बाबा,सारी बात आज ही करेगा,किसी दिन घर पर बुला..बहुत दिन हुए तुझसे गुफ़्तगू किये।"
"अरे हां यार,तू आज शाम ही आजा घर..कल वैसे भी छुट्टी है।"
"तो ठीक है मिलते हैं शाम को।मेरी मंज़िल भी आ गई,यहीं उतार दे।"
मित्र के उतरने के बाद मुझे अपने उतावलेपन पर बहुत आश्चर्य हुआ,ये क्या होता जा रहा है मुझे..आखिर वो चचा मेरे क्या लगते हैं,मैं क्यों उनके बारे में जानने को मरा जा रहा हूँ...उनकी रोज की मुस्कराहट नें क्या मुझे खरीद लिया है! अज़ीब बात है यहाँ जान पहचान के लोग दिखाई पड़ने पर अंजान की तरह निकल जाते हैं जैसे कभी मिले ही नहीं और एक ये बुजुर्ग 'चचा' हैं जो हर परिस्थिति में सबसे मुस्कुरा कर मिलते हैं! कुछ तो बात थी उनमें ,मेरे लिए भी वो अजनबी ही थे,जाने पहचाने से अज़नबी! जिन्हें देखकर गाँव की चौपाल और बूढ़ा बरगद अनायास ही स्मरण हो आता है,पर किसी अनजान के प्रति इतनी जिज्ञासा और सहानुभूति,ये तो सरासर अन्याय है शहरी संस्कृति के विरुद्ध!
खैर,अब मित्र को न्यौता दे ही दिया तो ठीक है थोड़ी गपशप ही हो जायेगी।
घड़ी में शाम के छह बज रहे थे,मैं पांच बजे से ही ड्राइंग रूम के सोफ़े पर बैठा हुआ बार बार घड़ी की तरफ देख रहा था।पता नहीं कैसे श्रीमती जी को मेरे चेहरे पर लिखी हर बात पढ़ने में निपुणता हासिल थी।मैं फिर भी अपनी उद्विग्नता छिपाने के लिए मासिक पत्रिका पढ़ने का उपक्रम कर रहा था।
"पापा ये देखो मैंने पेंटिंग बनाई।"छोटे बेटे नें चहकते हुए कहा।
"हम्म,अच्छी है।"
"पापा, सिर्फ अच्छी!"
"अरे हां बेटा,तुम बाहर जाकर खेलो,परेशान मत करो।"मैंने लगभग झल्लाते हुए कहा।
"पापा ,हम इस संडे फिल्म देखने जाने वाले हैं न,आपने प्रॉमिस किया था।"बेटी चिंकी नें कहा।
"नहीं,इस सन्डे बहुत काम हैं,अगली बार जायेंगे।"मैंने बेटी को इस बार भी टाल दिया।पता नहीं कितने महीनों से उसे फ़िल्म दिखाने की बात को टाल रहा था।
"कोई आने वाला है क्या जी?"श्रीमती जी नें सीधे सवाल दागा।
"हां,वो हरीश है न मेरा दोस्त..आज शाम उसे बुलाया है,बहुत दिन हो गए थे मिले।"
"ये तो अच्छी बात है,रात का खाना भी यहीं खा लेंगे।मैं तैयारी कर लेती हूँ।"
"अरे तुम तकलीफ मत करो,बड़ा स्वाभिमानी है वो,बमुश्किल चाय नाश्ता करेगा,मैं जानता हूँ उसे,इसीलिए तुम्हें बताया नहीं था।"
दरवाज़े पर बजी घंटी नें दोनों का ध्यान खींचा।
हरीश ही था।हमने बीते दिनों की बहुत सारी बातें की,खूब ठहाके लगाये।
"और बताओ निर्मल..गाँव जाना हो पाता है अभी?"
"नहीं ,जब से माँ बाबूजी गुज़रे हैं गाँव जाना ही नहीं हो पाया।कुछ तो शहर की भागदौड़ नें रोक रखा है और कुछ बच्चों की पढ़ाई नें।"
मैं किसी तरह अपनी झेंप मिटाने का प्रयास कर रहा था।गाँव मेरी कमजोरी था,मेरी जिंदगी,मेरा बचपन सब कुछ..शहर तो आ गया था नौकरी के पीछे पीछे लेकिन सालों तक मेरा अंतर्मन मुझे कचोटता रहा,गांव का जिक्र आते ही समय जैसे थम जाता था,आँखें कुछ धुंधली हो जाती।कभी कभी जी चाहता कि गांव की सारी स्मृतियां,गलियां,बरगद का पेड़,रात को टिमटिम तारों से जगमगाता खुला आसमान,वो कच्चे रास्ते की सुगंध,खट्टी इमली का स्वाद,वो सारे मौसम जो सिर्फ गांव में होने पर ही अनुभव किये जा सकते हैं..सबको एक पोटली में समेट कर हमेशा हमेशा के लिए अपने पास ले आऊं।लेकिन कुछ सपनों की कसक ताउम्र रहती है,गांव भी उन्हीं में से एक है,ये कोई सुपरमार्केट का सामान नहीं जिसे क्रेडिट कार्ड के एक स्वाइप से खरीद कर लाया जा सके।
"कहाँ खो गया निर्मल?"हरीश के शब्दों नें मुझे तंद्रा से जगाया।
"कहीं नहीं,मैं दरअसल उन बुजुर्ग के बारे में सोच रहा था,क्या कहकर बुलाते हैं सब उन्हें..हाँ, याद आया 'चचा',सुबह ही तो बताया था तूने।"
"अरे हाँ,तू पूछ रहा था सुबह उनके बारे में,मैं उस वक्त थोड़ा जल्दी में था,अब इत्मीनान से बताता हूँ।"
"बहुत कम लोग होते हैं आज के ज़माने में जिन्हें खुद से ज्यादा दूसरों के हित की पड़ी होती है,चचा उन्हीं में से एक हैं,निस्वार्थ..निश्छल हृदय।तुझे जानकर हैरानी होगी चचा नें ट्रैफिक कंट्रोल का काम लगभग पैंतीस सालों से संभाला हुआ है।पहले उन्हें इस काम के लिए थोड़ा बहुत वेतन मिलता था लेकिन रिटायर होने की उम्र के बाद वो भी बंद हो गया,फिर भी चचा स्वेच्छा से अपने उसी जोश और लगन के साथ ये काम निरंतर कर रहे हैं।रोज सुबह आठ से दस बजे तक और शाम छह से नौ बजे तक वो काम करते हैं पूर्णतः अवैतनिक।"
"हरीश,उनका परिवार तो होगा न!"
"परिवार था।"
"था मतलब..अब नहीं है..!"
नहीं यार कोई नहीं बचा।चचा का एक बेटा,पुत्रवधु,एक पोती सब उस रोज एक हादसे में काल के गर्त में समा गए।आज से लगभग दस साल पहले चचा का इकलौता बेटा अपनी पत्नी और बच्ची के साथ स्कूटर पर कहीं जा रहे थे,रात का समय था,एक नशे में धुत्त ट्रक वाले नें लाल बत्ती तोड़कर स्कूटर को टक्कर मार दी।घटनास्थल पर ही चचा की पुत्रवधू और पोती चल बसे।उनके बेटे को भी गंभीर चोट आई थी,लहूलुहान हालत में तीनों बहुत समय तक सड़क पर ही मूर्छित पड़े रहे।ज्यादा खून बह जाने की वजह से चचा का बेटा भी बच नहीं पाया।चचा नें अपनी सारी जमापूंजी बेटे के इलाज में खर्च कर दी फिर भी बचा नहीं पाए।"
मैं सुन्न होकर हरीश की सारी बातें सुन रहा था।अख़बार में रोज ऐसे हादसे पढ़ता हूँ लेकिन हादसों से किसी की जिंदगी इस हद तक प्रभावित होती है इस बात का अंदाजा शायद मुझे उसी रोज लगा।
"अब उनकी आजीविका कैसे चलती होगी?"मेरे मुँह में जमे शब्द किसी तरह पिघल कर बाहर आ रहे थे।
"बस कर लेते हैं किसी तरह गुजर बसर।हादसे से पहले उनकी अपनी एक दुकान थी किराने की।लेकिन बेटे के वेंटिलेटर का खर्च उठाने के लिए वो भी बेचनी पड़ी।अब वो ट्रैफिक की ड्यूटी ख़त्म कर किसी मैकेनिक की दूकान में काम करते हैं,जो भी मिलता है उसी से अपना काम चलाते हैं।"
हरीश की बात सुनकर मन में बहुत बेचैनी हुई।चचा के प्रति मन ही मन नतमस्तक हुआ।जिंदगी को जीने के सबके ढंग अलग अलग हैं,किसी को सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करके सुकून मिलता है तो कोई सब कुछ होते हुए भी हर वक़्त शिकायत से भरा रहता है,जैसे मैं! जानबूझकर उदासी को प्रतिदिन न्यौता देता कोई मुझसे सीखे,जिंदगी का कैनवास स्वयं में खूबसूरत है लेकिन उसमें नकारात्मक सोच के छींटे डालकर मैंने उसे कितना बदरंग कर दिया था।आज का ये वाकया सुनकर मुझे खुद पर बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई।मैंने खुद को अक्रियता के ऐसे चक्रव्यूह में फंसा लिया था जहाँ से निकल पाना मुश्किल था।
"तुझे पता है ,चचा को इस कार्य के लिए बहुत से नामी लोगों ने सम्मानित भी किया है,एक रोज तो किसी मिनिस्टर नें गाड़ी रोककर चचा को गले लगाया और किसी प्रोग्राम में बुलाकर सम्मानित भी किया।उसी दिन चचा को एक आई कार्ड भी जारी किया गया।चचा ये सब पाकर फूले नहीं समाये।एक अलग ही चमक होती है उनके चेहरे पर जब वो भरी भीड़ में अपनी ड्यूटी निभाते हैं।वो हर आने जाने वालों में अपना परिवार देखते हैं।वो नहीं चाहते कि किसी और की जिंदगी सड़क दुर्घटना की वजह से ख़राब हो जाये।और एक बात जो उन्हें खास बनाती है वो बहुत आत्म सम्मान वाले व्यक्ति हैं,कुछ लोगों ने उन्हें रुपयों की मदद पेश की लेकिन उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया।वो किसी लालच की वजह से नहीं बल्कि सुकून के लिए ये काम करते हैं।उम्र के इस पड़ाव पर वो खुद अपनी वर्दी धोते हैं,प्रेस करते हैं,अपने लिए खाना बनाते हैं,उनका कहना है कि जब तक काम कर रहे हैं सक्रिय रहते हैं,जिस दिन काम छोड़ देंगे तो सीधा खाट पकड़ लेंगे।कितने अलग हैं हमारे चचा!"
हरीश की बातों में मुझे जैसे जीवन का सार मिलता नजर आ रहा था।मैं खुद में एक अलग ही ऊर्जा और सकारात्मक बदलाव को महसूस कर रहा था।
"अच्छा निर्मल, अब चलता हूँ।तुम्हारी भाभी और बच्चों को आज डिनर पर ले जाने का प्लान है,राह देख रहे होंगे।फिर मिलूंगा।"
"हाँ बाबा,अब तो मैं भी नहीं रोक सकता।अच्छा सुन,तेरे पास चचा का रहने का पता मिल जायेगा?"पता नहीं क्यों मैं जाते जाते उससे ये पूछ बैठा!
"पता? यार अभी तो नहीं है मेरे पास पर मैं तुझे पूछकर भेज दूंगा वाट्सएप पर।"
हरीश जा चुका था।
"माधवी,सुनो तो..जल्दी तैयार हो जाओ,बच्चों को भी तैयार कर लो।हम आज फिल्म देखने जायेंगे।"
माधवी अवाक खड़ी देखने लगी,शादी के इतने सालों बाद आज निर्मल नें खुद बाहर जाने का प्रस्ताव रखा।और वो स्वतःस्फूर्त विचार था,मित्र हरीश की देखा देखी नहीं था।
आज मुझे शहर सांस लेता दिखाई दे रहा था,रास्ते में जगह जगह फूलों की क्यारियों से एकदम ताज़ा महक महसूस हुई,रात की ओस में पेट्रोल की घुली गंध के बावजूद एक अलग ही अपनापन लगा जैसे शहर मुझे अर्से बाद गले लगाने को आतुर हो।रास्ते में लाल बत्ती पर सामान बेचने वालों पर पहली बार खिन्नता महसूस नहीं हुई,बल्कि ख़ुशी ख़ुशी बच्चों के लिए दो गुब्बारे भी ख़रीदे और माधवी के लिए गुलाब का फूल।इस बदलाव में कुछ तो बात थी,एक नयापन, जैसे जिंदगी नें अर्से बाद करवट ली हो।मैं खुश था,बहुत खुश..साथ ही मेरा परिवार भी।
जिंदगी के फीके रंग अब गहरे रंगों में तब्दील होने लगे थे।हर दिन एक नया सूरज मेरी खिड़की से अंदर आने को आतुर था।मैंने खुद को और जिंदगी को गले लगाना सीख लिया था।
अब ऑफिस जाते वक्त चचा को देखना और एक हल्की सी मुस्कान का आदान प्रदान करना रोज का नियम बन गया था।उन्हें देखकर पूरा दिन ऊर्जा से भरपूर होकर बीतता।मैं मन ही मन उनका शुक्रगुजार था।अब उन्हें रोज देखना ठीक वैसा ही नियम हो गया था जैसे कोई आस्थावान व्यक्ति मंदिर जाकर अपने आराध्य को देखता है।सच ही तो है,मेरे लिए तो चचा सचमुच मेरी जिंदगी में आराध्य बन गए थे।कभी शब्दों के माध्यम से कोई बातचीत नहीं हुई लेकिन हाँ मुस्कान का एक अटूट रिश्ता हम दोनों के बीच सेतु का कार्य करता था।चचा को भी शायद मेरी मन की स्थिति का आभास हो चला था।वो कभी भी मुझे अनदेखा नहीं करते थे।जिंदगी की गाड़ी अपने ट्रेक पर आराम से दौड़ रही थी कि तभी कुछ रुकावट महसूस हुई।मेरी नजरें बहुत दिन से अपने आराध्य यानि चचा को खोज रही थी लेकिन चचा कुछ दिनों से नजऱ नहीं आ रहे थे।किसी अनहोनी की आशंका से मन बैठा जा रहा था।लगभग एक हफ्ता बीत गया।क्या करूँ..किससे पता करूँ! कुछ समझ नहीं आ रहा था।तभी मुझे ध्यान आया कि हरीश नें एक बार मेरे कहने पर चचा का पता भेजा था।मैं मन ही मन उस दिन का शुक्रिया अदा कर रहा था जब मैंने अनायास ही चचा का पता पूछ लिया था।इस बार खुद को रोक नहीं पाया।और ऑफिस से जल्दी छुट्टी लेकर दिए गए पते पर मेरे कदम स्वतः मुड़ गए।एक अनकहा रिश्ता बन गया था उनसे जिसे मेरे और चचा ने सिवा कोई नहीं समझ सकता था।शहर की भीड़ भरी गलियों में जहाँ पड़ोसी को पड़ोसी की खबर से कोई ताल्लुक नहीं रहता मैं एक अनजान चचा से मिलने जा रहा था वो भी पूरी व्यग्रता और आत्मीयता के भाव के साथ जो सच्चे थे।शायद आज सभ्य शहरी संस्कृति पर गाँव की अपरिष्कृत मिट्टी का असर हावी हो रहा था।मुझे आँगन का बूढ़ा बरगद बाहें फैला अपनी ओर बुला रहा था और मैं बस बरबस खिंचा चला जा रहा था।
एक बेहद मामूली चारदीवारी में चचा लेटे हुए थे।जर्जर होती दीवारें और टिन की बनी छत चचा की स्थिति का हाल बयां कर रही थी।सुविधा के नाम पर एक पुराना मटका,चरमराती चारपाई,एक दीवार घड़ी दिखाई दिए।सब कुछ एकदम साफ सुथरा और करीने से रखा हुआ।कमरे के एक कोने में अखबार बिछा कर चचा नें अपने मैडल और सम्मान पत्र रखे हुए थे,लकड़ी की एक जर्जर खूंटी पर चचा की वर्दी और पहचान पत्र भी टंगे हुए थे।मैंने कमरे में घुसते ही एक झलक में सिंहावलोकन कर लिया था।
"कौन है बाहर?" चचा नें अपना चश्मा टटोलते हुए कहा।
"मैं हूँ चचा.. हम रोज लाल बत्ती पर मिलते हैं..नहीं नहीं आप उठने का तक्कल्लुफ़ मत कीजिये।मैं आपके पास आ जाता हूँ।"चचा की हालत बहुत बिगड़ गई थी,उनकी आवाज में कंपन मिश्रित होने लगा था।
"अरे बेटा तुम..तुम वही हो न नीली गाड़ी वाले?"चचा नें चश्मा पहनते हुए कहा।
"हां चचा, आपने पहचान लिया।आप आ नहीं रहे बहुत दिन से तो फ़िक्र होने लगी थी।"
"बेटा अब थोड़े दिन ही रह गए हैं लगता है।कुछ रोज पहले अचानक ही दिल का दौरा पड़ा और मैंने खटिया पकड़ ली।कमबख्त अब तो ये मुझे लेकर ही जायेगी।" बोलते हुए चचा मुस्कुराने लगे।"
"नहीं चचा आप जल्द ही दुरुस्त हो जायेंगे।हम नालायकों को आपके अनुशासन की आदत हो चली है,आपके बिना सब अधूरा हो जायेगा।" चचा की हालत देखकर मेरी आवाज में एक अनजानी घबराहट झलकने लगी थी।
"बेटा मैं तो हमेशा वहीं मिलूंगा चाहे रहूँ या न रहूँ।आदतें एक बार बन जाने के बाद मुश्किल से जाती हैं।शरीर है..अब ये भी कितने दिन साथ देगा!पुरे अठत्तर साल का हो गया हूँ।"
"चचा यहाँ कोई नहीं है आपकी देखरेख के लिए..चलिये ..मेरे साथ घर चलिये।मैं आपको बिल्कुल ठीक कर दूंगा।"मैं शायद बरगद के विशाल वृक्ष को जमीन से उखाड़कर अपने घर ले जाने का प्रयास कर रहा था।
"बेटा तुम्हारा अपनापन समझ सकता हूँ पर अब इस ठिकाने को छोड़कर कहीं और जाने का दिल ही नहीं करता।शायद यहीं मुझे मुक्ति मिलेगी।"
"पर चचा.. आपकी तबियत बहुत ख़राब है,मान जाइये न।"
चचा की आँखें दीवार की खूंटी पर टंगी वर्दी को एकटक निहार रही थी।
"चचा.. आप सुन रहे हैं?चचा..?
चचा के चेहरे पर शांत निश्छल भाव थे,एक हल्की सी मुस्कुराहट अभी भी उनके मुखमंडल पर दिव्य तेज की तरह सुशोभित हो रही थी।
मैंने हाथ छूकर देखा।श्वास की गति रुक चुकी थी।चचा जा चुके थे।

अल्पना नागर





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