उड़ी पतंग
वो चाहें तो उड़ा सकती हैं पतंग
ब्रह्मांड के उस पार तक..
बांध सकती हैं अपनी डोर के सिरे पर
समस्त ग्रह नक्षत्रों को
एक पंक्ति में/
बशर्ते उन्हें थमाई न जाये
सिर्फ चरखी हर बार !
जब थामती हैं लड़कियां डोर को
अपनी उँगलियों में
वो खुद बन जाती हैं पतंग/
वो लहराती हैं..
गोते खाती हैं..
लड़ाती है उल्टी हवाओं से पंजा
ये लड़ाका लड़कियां
नहीं थामना चाहती
हाथों में सिर्फ चरखी !
वो होना चाहती हैं आसमान
पतंग के बहाने से/
वो रश्क़ नहीं करती आसमान में
बराबर उड़ती दूसरी पतंगों से
न ही वो रखती हैं कोई तमन्ना
उन्हें काटने की/
आगे निकलने की..!
वो खुश हैं तो बस
आसमान की खुली सैर पर
शरद की ठंडी हवाओं में घुली
हसरतों की चटख धूप संग/
वो नहीं चाहती कि
ताउम्र उसके मन के आंगन में
लगा रहे एक ढेर
कटी हुई पतंगों का..
जब बुलाये उसे आसमान
अपना हिस्सा होने को/
वो व्यस्त रहे
उलझी हुई डोरियों का ढेर
सुलझाने में..
वो बिल्कुल नहीं चाहती..!
- अल्पना नागर
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