Thursday, 14 January 2021

उड़ी पतंग

 उड़ी पतंग


वो चाहें तो उड़ा सकती हैं पतंग

ब्रह्मांड के उस पार तक..

बांध सकती हैं अपनी डोर के सिरे पर

समस्त ग्रह नक्षत्रों को

एक पंक्ति में/

बशर्ते उन्हें थमाई न जाये

सिर्फ चरखी हर बार !


जब थामती हैं लड़कियां डोर को

अपनी उँगलियों में

वो खुद बन जाती हैं पतंग/

वो लहराती हैं..

गोते खाती हैं..

लड़ाती है उल्टी हवाओं से पंजा

ये लड़ाका लड़कियां

नहीं थामना चाहती

हाथों में सिर्फ चरखी !

वो होना चाहती हैं आसमान

पतंग के बहाने से/


वो रश्क़ नहीं करती आसमान में 

बराबर उड़ती दूसरी पतंगों से

न ही वो रखती हैं कोई तमन्ना

उन्हें काटने की/

आगे निकलने की..!


वो खुश हैं तो बस

आसमान की खुली सैर पर

शरद की ठंडी हवाओं में घुली

हसरतों की चटख धूप संग/

वो नहीं चाहती कि

ताउम्र उसके मन के आंगन में

लगा रहे एक ढेर

कटी हुई पतंगों का..

जब बुलाये उसे आसमान

अपना हिस्सा होने को/

वो व्यस्त रहे

उलझी हुई डोरियों का ढेर 

सुलझाने में..

वो बिल्कुल नहीं चाहती..!


- अल्पना नागर

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