Sunday, 7 February 2021

कविता- आग

 आग


आग जानती है

जब तक चिंगारियां हैं

वजूद जिंदा है/

चिंगारी ख़त्म.. वजूद ख़त्म !

आग संघर्ष करती है

संपूर्ण रूप परिवर्तित हुए जाने तक/

राख में बदलकर 

पुनः पुनः आग बन फैल जाने तक..

वो संघर्ष करती है !


आग को बेसिरपैर कहने वाले

दरअसल अंजान है

उसकी तासीर औ मिज़ाज से/

कौन करेगा यक़ीन !

माचिस के घर में

चुपचाप सोई पड़ी

एक मामूली तीली

भरी होगी 

अनगिनत क्रांति स्वप्नों से..!


कौन करेगा यक़ीन !

अब तक

धान सेकने वाली 

जीवन उत्सव की जननी आग

अपने ही अस्तित्व को देगी चुनौती!!


बदहवास आग ढूंढ रही है आज

उन दो चकमक पत्थरों को

जिनकी रगड़ से 

शुरू हुआ था कभी

तथाकथित सभ्य मानव जीवन..!!

वो पत्थर जो आज व्यस्त हैं

बेवज़ह उछलने में/

टकराने में..

निशाना साधने और

सभ्यता को

लहूलुहान करने में..!!


-अल्पना नागर

7-2-2021



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