Sunday, 2 May 2021

कहीं कोई गतिरोध नहीं

 कहीं कोई गतिरोध नहीं!


सामान्य है सब

हालात से लेकर जज़्बात

कहीं कोई गतिरोध नहीं !

वही मटमैला आसमान

वही सूरज का रोज का संघर्ष

कि निकल आये किसी दिन

गहरी चुप्पी से पसरे घुप्प धुएँ को चीरकर/

देखे अपना प्रतिबिम्ब 

चमकते बेफ़िक्र चेहरों में..

मगर वो जान चुका है

ये मात्र दिवास्वप्न है..!!


धुआँ आखिर धुआँ है

क्या फर्क पड़ता है

कहीं से भी उठे..!!

चाहे दंगों से उठे या उठे

हमारी निष्क्रियता से/

हम सुरक्षित हैं

अपने 'एयर प्यूरीफाइड' घरों में

हम सुरक्षित हैं

दोहरे आवृत चेहरों को 

'डबल मास्क' से ओढे..!

मगर फिर भी जाने क्यूँ

इस बार ये धुआँ कुछ अलग है

तमाम सुरक्षा चक्रों को भेदता हुआ

भर गया है नथुनों में

फेंफड़ों में..!

जल रहे हैं जिस्म

जल रही हैं उम्मीदें/

मगर आँखों को अब नहीं होती जलन

न ही ये बरसती हैं पहले की तरह

चाहे कितना ही धुआँ पसरा हो आसपास!


एक अदृश्य चक्रवात से

उड़ गई है एक ही झटके में

जाने कितने भरोसों की

'आभासी' छत..!

अब जो भी करना है

खुद को करना है

खुद को सहना है..!!


धुएँ से टपक रही है

अवसरवादिता

जिसे लपकने को दौड़ रहे हैं

जाने कितने ही हाथ..

खोखले सिलेंडर थामे

अजीब सी मैराथन का हिस्सा बनने

भाग रहे हैं एकसाथ कई नीरो

माहौल में घुल गया है

बाँसुरी का रुदन..

धू धू कर जल रहा है रोम/

और वेंटिलेटर पर दम तोड़ रही हैं

भीड़तंत्र की उम्मीदें..!

हम देख रहे हैं

अब तक

सब कुछ सामान्य है

हालात से लेकर जज़्बात

कहीं कोई गतिरोध नहीं..!!


-अल्पना नागर

2/5/2021









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