ये पलाश के खिलने का समय है
साजिशन धरती की पीठ पर
उभर आये हैं नीले निशां
आदतन पेड़ों नें गिरा दिया है
जर्द पत्तों का पीला कम्बल..!
किसी नें खोल दिया है
सुराहियों में कैद हवा का ढक्कन
बौराई हवा मुक्त हो गई
मानो कुलांचे भरती
दूर जंगल में हिरनी कोई..!
दूर कहीं सूनी पड़ी है शाख
ये गुलमोहर के आराम का समय है..!
उसी के नज़दीक
बस चंद पेड़ों की दूरी पर
कोई है जो टिका हुआ है शाख से अब भी/
मेरी हैरानगी को भांपते हुए
हौले से हवा बुदबुदाई..
"ये दहकते अंगार
रात की डाली पर
टिमटिमाते तारों का झुरमुट हैं
जो दिन के उजाले में
पलाश बन इठलाते हैं..!!"
जी हाँ, यही हैं वो
जो वक़्त की साजिशों को
हर बार झुठलाते हैं..!
देखना,अभी और चटख होगी
धूप की हल्दी/
अभी और निखरेगा रंग धरा का
ये पलाश के खिलने का समय है..!!
-अल्पना नागर
12 मार्च 2021
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