पतझड़
न जाने क्यों मगर
लुभाता है मुझे
पतझड़ का यूँ चले आना
चुपके से वसंत के अधरों पर
अपनी उँगली रख देना..
कुछ क्षण का ठहराव और
नेह का हवा में
किसी चिर परिचित गंध सा घुल जाना..!
शाखों से गिरे
लाल,पीले,भूरे पत्ते
जैसे होली खेलते
एकसाथ कई नटखट बच्चे!
मानो बिखेर दी हो किसी नें
पूरी ताकत से
गुलाल भरी थाली
धरती के सीने पर..!
बेतरतीब रंग
बेसाख़्ता पतझड़
और कुछ नहीं..
आधार हैं
आकार लेते
हरित वसंत का...!
कभी गौर से सुना है?
कदमों तले आये
सूखे पत्तों का संगीत !
मानो मना रहे हों जश्न
स्वयं के बेहद करीब होने का..!
अजीब है मगर सच है
जीवन में आया हर पतझड़
स्वयं के उतना ही करीब ले आता है..!
झड़ते हुए हर पत्ते के नीचे
स्थान शेष है
नई कोंपल के लिए
नई शुरुआत के लिए !
विलग हुए जीर्ण पत्ते
किसी अबोध शिशु से
दुबक जाते हैं
धरती के आंचल में गहरे कहीं..
क्या देखी है अन्य कोई जगह
इससे अधिक आरामदायक
इससे अधिक सुरक्षित..?
पत्तों का गिरना मात्र एक लघु विराम है
मृत्यु के गर्भ में जैसे जीवन का विधान है..!
-अल्पना नागर
8 मार्च 2021
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