मिज़ाज
दिन एक उजली रेत का किनारा
चहक़दमी करते लोग
छोड़ते जाते स्मृतियों के निशान..
कोई बनाता घरौंदा
तो कोई करता प्रयास
भुरभुरे दिन को मुट्ठी में भरने का/
मगर दिन को आदत नहीं
एक जगह ठहरने की
वो फिसलता जाता है
रेत-दर-रेत
लम्हा-दर-लम्हा..!
उजली रेत के उस पार
समंदर सी गहरी है स्याह रात
निःशब्द नीरव रहस्यों से भरी रात/
रात की गोद में सर रखकर
सुकून से लेटती हैं स्वप्न लहरें..
एक मौन संवाद बहता है
दोनों के दरमियां..!
रात खुद नहीं सोती
थपकियां देकर सुलाती है
स्वप्न लहरों को/
लहरें नींद में चलकर
किनारे आती हैं
और छोड़ जाती हैं
दिन की ड्योढ़ी पर
शंख,सीप और ढेरों कहानियां/
कहानियां जिन्हें
सूरज निकलने पर
चुनता है दिन और
बिखर जाता है शब्द शब्द
झिलमिल किसी चादर सा..!
स्वप्न लहरें खाली हाथ नहीं लौटती
बहा ले आती हैं
सदी की बेचैनियां,आशाएं,अपेक्षाएं
पीछे छूटते स्मृति चिह्न और
स्थाई घरौंदों के भ्रम..!
दोनों प्रतीत होते हैं
एक दूसरे से सर्वथा भिन्न
मगर मिज़ाज एक ही है/
भुरभुरे दिन की भाँति
समंदर रात भी ठहरती नहीं..
रिसती जाती है अंजुरी से बूँद-बूँद
लम्हा-लम्हा..!
-अल्पना नागर
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