Sunday, 27 February 2022

पारिवारिक संबंधों में प्रेम एक भावना

 विषय-पारिवारिक संबंधों में प्रेम एक भावना*



परिवार शब्द सुनते ही एक ख़याल मन में आता है,वो है प्रेम और अपनेपन की ईंट जोड़ जोड़कर बनी हुई मजबूत चारदीवारी जहाँ आप हर तरह से स्वयं को सुरक्षित(शारीरिक,भावनात्मक,आर्थिक तौर पर)महसूस करते हैं।मनुष्य अगर एक सामाजिक प्राणी है तो परिवार उसकी प्राथमिक इकाई है।यही वो पाठशाला है जहाँ जीवन की कठिन से कठिन परिस्थितियों से जूझने का प्रशिक्षण उसे मिलता है,जहाँ से आगामी जीवन की दिशा तय होती है।हम शुरू से ही एक बात पाठ्यपुस्तकों में पढ़ते आ रहे हैं कि सम्पूर्ण पृथ्वी एक कुटुम्ब है।एक ऐसा कुटुम्ब जिसमें अलग अलग विचारधारा संस्कृति वाले सदस्य देश एक दूसरे के हितों का न केवल सम्मान करते हैं अपितु विकास की समान धारा में सम्मिलित करने के लिए सहयोग भी प्रदान करते हैं।इस दृष्टि से देखा जाए तो हम जिसे अपना परिवार मानते हैं वह इसी वृहत समुदाय की लघुतम इकाई है।वह परिवार जिसमें एक विशाल वृक्ष की भांति एक मुखिया होता है जिसकी अनेक शाखाओं पर घर के अन्य सदस्य फलते फूलते हैं।वृक्ष चाहे कितना ही सघन और विशाल हो लेकिन उसकी जड़ें जमीन से ही जुड़ी होती हैं।जड़ों को सींचने का कार्य सिर्फ एक ही चीज करती है वो है प्रेम और अपनेपन का भाव।पूरे वृक्ष का विकास उन्हीं स्नेह सिंचित बूंदों पर निर्भर करता है।प्रेम से पल्लवित वृक्ष जीवन की किन्हीं भी बाधाओं आँधी,तूफान,बारिश या फिर कड़ी धूप को भी सहजता से झेल जाता है।दूसरी ओर अगर परिवार में प्रेम ही न हो तो ईर्ष्या द्वेष की दुराचारी दीमकें नीचे ही नीचे जड़ें खोदकर बड़े से बड़े वृक्ष को भी धराशाही करने में कामयाब हो जाती हैं।

लेकिन वसुधैव कुटुम्बकम की सदियों पुरानी हमारी अवधारणा पर अभी हाल ही में घटित घटना से झटका लगा है।यूक्रेन जैसे छोटे राष्ट्र पर रूस का हमला न केवल निंदनीय है अपितु आगामी भविष्य के लिहाज से भी खतरा है।ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे परिवार का कोई शक्तिशाली सदस्य परिवार के ही दूसरे कमजोर सदस्य को डरा धमका कर अपनी विचारधारा थोपने का प्रयास करे,यही नहीं अगर कोई पड़ोसी या समर्थक शांति के लिए प्रयास करे तो उसे भी भयंकर परिणाम झेलने की धमकी दी जाए।ऐसे में स्वस्थ माहौल की अपेक्षा कैसे की जा सकती है! दुनिया पहले ही युद्ध की विभीषिका अनेक बार झेल चुकी है,विचारधाराएं आतंक का आश्रय लेकर जीत जाती हैं किंतु मानवता पूरी तरह परास्त हो जाती है।भय तनाव व असुरक्षा का माहौल किसी भी स्थिति में सही नहीं कहा जा सकता फिर चाहे वो परिवार जैसी लघु इकाई हो या विश्व समुदाय जैसी वृहद इकाई! परस्पर प्रेम सहयोग व आपसी समझ ही किन्हीं संबंधों को जीवित रखती है अन्यथा बिखरने में देर ही कहाँ लगती है!

हम भारतीय पारिवारिक संबंधों के मामले में धनी माने जाते हैं।हालांकि आधुनिकता नें संयुक्त परिवार की धारणा पर जोरदार प्रहार किया है लेकिन फिर भी बहुत सी जगह ऐसी हैं जहाँ आज भी बड़े परिवार एक ही छत के नीचे प्रेम से रहते हैं।संयुक्त परिवार के अपने फायदे हैं यहाँ जो संस्कार और गुण बच्चों में विकसित होते हैं वो दुनिया की कोई पाठशाला नहीं सिखा सकती।हमने परिवार में संबधों की पूंजी अर्जित की है।हमारे घरों में बचपन से ही रामायण पढ़ाई जाती है,गली मोहल्लों में रामलीला का मंचन किया जाता रहा है।राम के आदर्शों को जीवन में उतारने का हरसंभव प्रयास किया जाता रहा है।धार्मिक साहित्य के माध्यम से त्याग और प्रेम की भावना के बीज बचपन से ही हमारे कोमल मन में अंकुरित होते रहे हैं।यही कारण है कि भारत जैसे देश में पारिवारिक संबंधों की स्थिति अभी उतनी भी बुरी नहीं है।

पाश्चात्य देशों में जहाँ मामूली सी बातों पर सार्वजनिक स्थलों पर हिंसा हो जाती है।अवसाद और आधुनिक तंत्र नें मानव मन को इस कदर जकड़ लिया है कि संवेदना के लिये जगह ही शेष नहीं रही।यही कारण है कि पश्चिमी पाठ्यक्रमों में भारतीय संस्कृति से जुड़े अध्याय सम्मिलित किये जा रहे हैं जैन धर्म से परिचय कराया जा रहा है ताकि अहिंसा का मर्म समझ आये,मूलभूत विचारों में सकारात्मक परिवर्तन आएं।

इधर भारत में भी पश्चिम के अंधानुकरण से पारिवारिक संबंधों में प्रेम का स्थान स्वार्थ नें ले लिया है।कुछ ही दशक पूर्व एक छोटे से कैमरे में पूरे परिवार को एकसाथ दिखा पाने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती थी कहने का मतलब परिवार इतने बड़े हुआ करते थे कि कैमरा भी छोटा लगता था।जिस विशेष दिन फ़ोटो खिंचनी होती थी परिवार के सदस्यों की सहभागिता देखते ही बनती थी एक उत्सव जैसा माहौल पूरे घर में छाया होता था।अब आधुनिक तकनीक नें एक से बढ़कर एक सुविधाएं तो दी हैं मगर खुशी को महसूस करने का जोश और उत्साह लगभग छीन लिया है। परिवार बिखर गए हैं।अब तो मुश्किल से त्योहारों पर भी इक्कठा नहीं हुआ जाता।जमाना अब सेल्फी मॉड पर फ़ोटो लेने का है जहाँ खुद को हाइलाइट करने के लिए सम्पूर्ण पृष्टभूमि को धुँधला करना होता है।

अभी कुछ दिनों पूर्व अखबार की एक ख़बर नें सहज ही ध्यान आकर्षित किया।उड़ीसा के आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र में जमाईपाड़ा नामक लगभग पचास घरों का एक गांव बसा है।जैसा कि नाम से ही विदित है ये पूरा गांव जमाई यानी दामाद और बेटी को बसाकर बसाया गया है।परम्पराओं से हटकर अगर कुछ देखने को मिलता है तो कौतूहल मिश्रित हर्ष होता है।बेटियों से स्नेह की पराकाष्ठा यहाँ देखने को मिलती है जहाँ एक पिता ने बेटी को अपने करीब रखने के लिए दामाद को वहीं आसपास जमीन और रोजगार दोनों दिलवा दिए और देखते ही देखते एक पिता से अनेक पिता इस मुहिम में जुड़ते चले गए गांव बन गया।कोई आश्चर्य नहीं कि परंपराएं इंसान के लिए हैं,इंसान परम्पराओं के लिए नहीं!समय और परिस्थिति के हिसाब से परिवर्तन में कोई बुराई नहीं।बेटियां परिवार की मुख्य इकाई होती हैं,उनके आगमन पर ही दो परिवारों की वंशबेल निर्धारित होती है।ऐसे में बेटा और बेटी में भेद न करके दोनों को ही परिवार का मुख्य अंग माना जाए तो बहुत से सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन सहज ही आ सकते हैं।बेटियों को कानूनी तौर पर पिता की सम्पति में अधिकार मिले हुए हैं ये अच्छी शुरुआत है लेकिन इससे पारिवारिक संबधों में टकराव की स्थिति भी देखने में आई है।भाई बहन के सम्बंध जायदाद के बँटवारे की बलि चढ़ चुके हैं।अतः ज्यादातर घरों में बेटियां स्वेच्छा से ही अपना कथित रूप से कानूनी हक त्याग देती हैं ताकि प्रेम का रिश्ता बना रहे।लेकिन जहाँ कानूनी लड़ाई लड़कर सम्पति अर्जित की जाती है वहाँ बेटियों को भी बुजुर्ग माता पिता की शारीरिक आर्थिक व भावनात्मक जरूरतों का खयाल रखना चाहिए।भारत जैसे देश में जहाँ बेटियां विवाह के बाद पराई समझी जाती हैं वहाँ एक पुत्र की तरह माता पिता की देखभाल थोड़ा चुनौती पूर्ण कार्य हो जाता है,कारण बेटी का अपना ससुराल,दामाद का अहम टकराव या समाज का दोहरा दृष्टिकोण कुछ भी हो सकता है।हकीकत यही है कि व्यवहारिक तौर पर सम्पति के समान विभाजन कानून को लागू करने की अपनी चुनौतियां हैं।सबसे पहले जरूरी है पारिवारिक स्तर पर सभी सदस्यों का मानसिक तौर पर मजबूत होना।पुत्र हो या पुत्री उनमें प्रारम्भ से ही किसी तरह का भेदभाव न किया जाए।नींव अच्छी हो तो भवन भी सुंदर बनता है।समान शिक्षा दिलाई जाए ताकि दोनों ही आत्मनिर्भर हो सकें।समान रूप से सम्पति अगर विभाजित की जाती है तो जिम्मेदारी भी समान रूप से वहन की जाए और ये कार्य बोझ मानकर नहीं अपितु सहर्ष नैतिक कर्तव्य मानकर किया जाए तो शायद परिवार में प्रेम की भावना महज औपचारिक विषय न रहे और शीघ्र ही समाज में सकारात्मक बदलाव देखने को मिले।


-अल्पना नागर


No comments:

Post a Comment