कहानी
दादू
रघुनाथ प्रसाद...हाँ,यही नाम था उनका।लेकिन परिवार और मुहल्ले के सभी लोग उन्हें दादू कहकर पुकारते।उम्र होगी करीब निन्यानवे साल,शतक में सिर्फ एक वर्ष कम।आँखें धंसकर अंदर तक चली गई थी,बहुत कम लगभग नगण्य दिखाई देता था।अवस्था को देखते हुए पैरों नें भी लगभग साथ छोड़ दिया था,ज्यादातर समय बिस्तर पर लेटे हुए ही बिताना होता था।बस उनके पैरों में जबरदस्त हरकत सिर्फ तभी होती जब मुहल्ले के कुछ शैतान बच्चे जोर से उनके कानों में 'जय श्री राम' चिल्लाकर भाग जाते,और वो बिस्तर के पास रखी अपनी छड़ी को टटोलकर उनके पीछे भागने का प्रयास करते।दरअसल रघुनाथ प्रसाद जी नें जवानी के दिनों में हर वर्ष होने वाली रामलीला में हनुमान का किरदार बड़ी शिद्दत के साथ निभाया,अपने अभिनय के किस्से बड़े ही जायके के साथ मुहल्ले के सभी छोटे बड़े लोगों को सैंकड़ों बार सुना चुके थे।सभी लोगों की जुबान पर उनके किस्से लगभग रटे हुए थे।
उम्र के इस पड़ाव पर वो काफी वृद्ध हो चुके थे लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें परिवार के लोगों से कोई सरोकार नहीं था,परिवार के हर छोटे बड़े निर्णय में उनका जबरदस्त दखल था।दादू नें अपनी अहमियत डंके की चोट पर मनवा रखी थी,अगर गलती से भी उनकी शान में किसी नें गुस्ताख़ी की तो बस उसकी खैर नहीं,दादू का भाषण दो घंटे पहले नहीं रुकता था।घर में तीन बहुएं थी।और नियम बनाया हुआ था कि रोज प्रातः पौं फटने से पहले तीनों बहुएं एक एक कर दादू के चरण स्पर्श करने आये।"आज मंझली बहु नहीं आयी!",दादू नें पूछा।
"दादू आज वो मायके चली गई" बड़े पोते नें कहा।
"ऐसे कैसे चली गई ,बिना हमें बताये,बिना आशीर्वाद लिए?"
"अरे दादू आप सोये हुए थे अपनी दवाई खाकर,इसलिए उठाया नहीं।"पोते ने सफाई देते हुए कहा।
दादू की जीभ समय समय पर विभिन्न तरह के पकवानों की सिफारिश करती।वैसे तो दादू की आँखें लगभग बुझी हुई ही थी लेकिन आसमान में घूमते फिरते बादल उनकी आँखों से बचकर नहीं निकल पाते थे।फिर फरमान जारी किये जाते,"आज तो बेटा पकौड़े का मौसम बन गया है।"
इसी तरह जब भी बहुओं के मायके से कोई आता,चाहे वो नौकर ही क्यों न हो,सबसे ज्यादा दादू ही उत्साहित होते।तुरंत फ़रमान निकाला जाता ,"अरे बहु ,आज तो तेरा भाई आया है,समोसे तो बनने ही चाहिए इस खुशी में।"
और फिर अगले दिन दादू पाखाने के इर्द गिर्द ही नजर आते।
दादू नें शिक्षा के नाम पर सिर्फ 'क' अक्षर लिखना सीखा।विद्यालय में मास्टर जी नें उनके धोती कुर्ता पहनने पर आपत्ति जताई और दादू फिर कभी नहीं गए विद्यालय।दादू अक्सर मुहल्ले के बच्चों से जिरह करते दिख जाते थे।अख़बार के किसी टुकड़े पर अगर उन्हें 'क' जैसी अक्षर आकृति दिख जाती तो उनके चेहरे पर चौड़ी सी मुस्कान फ़ैल जाती।वो 'फ' अक्षर को भी 'क' बताते,उनके दिमाग की सुई बस वहीं अटक जाती और जिद करने लगते कि वो एकदम सही हैं बाकि सब लोगों को कोई ज्ञान नहीं है।
एक रोज़ दादू अपने कमरे से बाहर नहीं आये,और न ही खाना खाया,सब नें बहुत मनाया,काफी दिमाग़ दौड़ाया कि कहीं कोई भूल चूक तो नहीं हुई जिससे दादू नाराज़ हैं।अंत में दादू नें राज से पर्दा उठाते हुए कहा कि "नाती की शादी है,सभी नें एक से बढ़कर एक कपड़ों की खरीददारी की है लेकिन मेरे लिए ? मेरे लिए सूती कुर्ता?अभी इतना बूढ़ा भी नहीं हुआ हूँ।मुझे अपने इकलौते नाती की शादी के लिए सिल्क का कुर्ता चाहिए बस।"दादू के फ़रमान से सभी का मुँह एक पल के लिए बस खुला ही रह गया।आनन् फानन में बढ़िया किस्म का सिल्क कुर्ता लाया गया।तभी दादू नें अपना उपवास खोला।
उस रोज़ दादू का सौवां जन्मदिन था।ऋषि पंचमी का दिन था।दादू सुबह से ही उत्साहित नजऱ आ रहे थे।बढ़िया तरीके से एकदम कड़क प्रेस किया हुआ झक सफ़ेद कुर्ता पहना।बालों में डाई भी करवाई।भई आज फ़ोटो भी तो खिंचनी थी!अपनी छड़ी उठाकर धीरे धीरे लगभग रेंगते हुए चलने का प्रयास किया।घर भर के तीन चार चक्कर लगा चुके थे दादू लेकिन ये क्या सभी अपने काम में इतने व्यस्त !,किसी को दादू की तरफ झांकने की भी फुर्सत नहीं! दादू नें बच्चों को बुलाया,अपने कुर्ते की जेब से पान के फ्लेवर वाली टॉफी निकाल के दी,ये टॉफियां दादू सिर्फ अवसर विशेष पर ही बच्चों को बांटते थे।बच्चे पूछने लगे,"दादू दादू आज क्या है?बताओ न।"
"कुछ नहीं बस ऐसे ही"।अनमने मन से दादू नें कहा।
थककर दादू अपने कमरे में चले आये।शाम को छोले भटूरे की गंध नें जब दादू के नथुनों को छेड़ा तो दादू मन मसोस कर रह गए।
"सुंगध पक्का पड़ोस से ही आ रही है,मेरे घर में तो किसी को खबर भी नहीं कि आज मेरा सौवां जन्मदिन है,हुंह..।"दादू नें मन ही मन सोचा।
"बाबूजी चलिये,सब इंतज़ार कर रहे हैं।"
"क्यों भला?"
"खुद ही देख लीजिए चलकर।"
चौक में पहुँचते ही ढेर सारे गुब्बारे,और जन्मदिन के स्टिकर्स देखकर दादू की धुंधली आँखें भी ख़ुशी से छलक उठी।सामने एक बड़ा सा केक रखा था,दादू नें बड़े ही चाव के साथ पहली बार केक काटा।लेकिन तभी दादू का चेहरा उतर गया।और दादू बड़ी ही मासूमियत से बोले,"अगर तुम्हारी दादी संध्या आज जीवित होती तो आज के दिन खीर जरूर बनती।"
फिर क्या था,घर की बहुएं फटाफट खीर बनाने में जुट गई।आधे घंटे के अंदर अंदर दादू के लिए विशेष रूप से खीर बनाई गई।
मधुमेह के रोगी दादू अपनी मनपसंद शुगर फ्री खीर खाकर फूले नहीं समाये।
यूँ तो परिवार का हर सदस्य दादू का पूरा ख्याल रखता लेकिन कभी कभी किसी कारणवश अगर सदस्य व्यस्त हो जाते या दादू की तरफ ध्यान नहीं जा पाता तो वे किसी न किसी तरह ध्यान आकर्षित करवाकर ही रहते।
एक रोज़ इसी तरह रविवार की सुबह सब लोग अपने अपने बकाया कामों को निपटाने में व्यस्त थे,दोपहर तक दादू की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं गया।अचानक ही दादू नें सहारे के लिए अपनी छड़ी उठाई और सब लोगों से पूछना शुरू कर दिया,"देखना जरा बेटा, मुझे लग रहा है मेरे दाएं हाथ में सूजन है,शरीर भी तप रहा है।"
"नहीं बाबूजी,तापमान तो एकदम ठीक है,और सूजन भी नहीं है,आप आराम कीजिये।"बेटे नें हाथ छू कर कहा।
दादू नें बेटे से लेकर पोते पोतियों घर के माली और नौकर तक से पूछ डाला लेकिन सभी का एक ही जवाब।
"किसी को मेरी कोई फ़िक्र नहीं,लगता है अब मैं फालतू का कबाड़ हो गया हूँ जिसकी किसी को कोई ज़रूरत नहीं।"दादू भावुक हो उठे।
तभी सबसे बड़ी वाली पोती नें दादू को देखा और कहा "हाँ दादू सूजन तो है हाथ में और आपका सर भी तप रहा है,लाइए मैं दवाई लगा देती हूं।"
पोती थोड़ी देर दादू के पास बैठी ,दादू से दो चार मन की बातें भी कर ली।सर पर हल्का सा बाम लगा दिया।
पास ही खड़ी बहु नें आश्चर्य से पुछा,"क्यों री छुटकी, ऐसा कौनसा बुखार आ गया था दादू को जो सिर्फ तुझे ही दिखाई दिया,हम सब नें अच्छी तरह चेक तो किया था, कुछ नहीं है दादू को।"
"हाँ,जानती हूँ चाची, दादू एकदम ठीक हैं,पर उन्हें दवाई से ज्यादा स्नेह और अपनेपन की जरुरत थी।आज सभी बहुत ज्यादा व्यस्त हो गए थे।और आप तो जानती हैं,हमारे दादू एकदम बच्चों की तरह हैं।"पोती नें मुस्कुराते हुए कहा।
तो ऐसे थे दादू उर्फ़ रघुनाथ प्रसाद जी।
प्रेमचंद जी की प्रसिद्ध कहानी 'बूढी काकी' की एक उक्ति यहाँ याद आ रही है , "बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है।"
अल्पना नागर©
दादू
रघुनाथ प्रसाद...हाँ,यही नाम था उनका।लेकिन परिवार और मुहल्ले के सभी लोग उन्हें दादू कहकर पुकारते।उम्र होगी करीब निन्यानवे साल,शतक में सिर्फ एक वर्ष कम।आँखें धंसकर अंदर तक चली गई थी,बहुत कम लगभग नगण्य दिखाई देता था।अवस्था को देखते हुए पैरों नें भी लगभग साथ छोड़ दिया था,ज्यादातर समय बिस्तर पर लेटे हुए ही बिताना होता था।बस उनके पैरों में जबरदस्त हरकत सिर्फ तभी होती जब मुहल्ले के कुछ शैतान बच्चे जोर से उनके कानों में 'जय श्री राम' चिल्लाकर भाग जाते,और वो बिस्तर के पास रखी अपनी छड़ी को टटोलकर उनके पीछे भागने का प्रयास करते।दरअसल रघुनाथ प्रसाद जी नें जवानी के दिनों में हर वर्ष होने वाली रामलीला में हनुमान का किरदार बड़ी शिद्दत के साथ निभाया,अपने अभिनय के किस्से बड़े ही जायके के साथ मुहल्ले के सभी छोटे बड़े लोगों को सैंकड़ों बार सुना चुके थे।सभी लोगों की जुबान पर उनके किस्से लगभग रटे हुए थे।
उम्र के इस पड़ाव पर वो काफी वृद्ध हो चुके थे लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें परिवार के लोगों से कोई सरोकार नहीं था,परिवार के हर छोटे बड़े निर्णय में उनका जबरदस्त दखल था।दादू नें अपनी अहमियत डंके की चोट पर मनवा रखी थी,अगर गलती से भी उनकी शान में किसी नें गुस्ताख़ी की तो बस उसकी खैर नहीं,दादू का भाषण दो घंटे पहले नहीं रुकता था।घर में तीन बहुएं थी।और नियम बनाया हुआ था कि रोज प्रातः पौं फटने से पहले तीनों बहुएं एक एक कर दादू के चरण स्पर्श करने आये।"आज मंझली बहु नहीं आयी!",दादू नें पूछा।
"दादू आज वो मायके चली गई" बड़े पोते नें कहा।
"ऐसे कैसे चली गई ,बिना हमें बताये,बिना आशीर्वाद लिए?"
"अरे दादू आप सोये हुए थे अपनी दवाई खाकर,इसलिए उठाया नहीं।"पोते ने सफाई देते हुए कहा।
दादू की जीभ समय समय पर विभिन्न तरह के पकवानों की सिफारिश करती।वैसे तो दादू की आँखें लगभग बुझी हुई ही थी लेकिन आसमान में घूमते फिरते बादल उनकी आँखों से बचकर नहीं निकल पाते थे।फिर फरमान जारी किये जाते,"आज तो बेटा पकौड़े का मौसम बन गया है।"
इसी तरह जब भी बहुओं के मायके से कोई आता,चाहे वो नौकर ही क्यों न हो,सबसे ज्यादा दादू ही उत्साहित होते।तुरंत फ़रमान निकाला जाता ,"अरे बहु ,आज तो तेरा भाई आया है,समोसे तो बनने ही चाहिए इस खुशी में।"
और फिर अगले दिन दादू पाखाने के इर्द गिर्द ही नजर आते।
दादू नें शिक्षा के नाम पर सिर्फ 'क' अक्षर लिखना सीखा।विद्यालय में मास्टर जी नें उनके धोती कुर्ता पहनने पर आपत्ति जताई और दादू फिर कभी नहीं गए विद्यालय।दादू अक्सर मुहल्ले के बच्चों से जिरह करते दिख जाते थे।अख़बार के किसी टुकड़े पर अगर उन्हें 'क' जैसी अक्षर आकृति दिख जाती तो उनके चेहरे पर चौड़ी सी मुस्कान फ़ैल जाती।वो 'फ' अक्षर को भी 'क' बताते,उनके दिमाग की सुई बस वहीं अटक जाती और जिद करने लगते कि वो एकदम सही हैं बाकि सब लोगों को कोई ज्ञान नहीं है।
एक रोज़ दादू अपने कमरे से बाहर नहीं आये,और न ही खाना खाया,सब नें बहुत मनाया,काफी दिमाग़ दौड़ाया कि कहीं कोई भूल चूक तो नहीं हुई जिससे दादू नाराज़ हैं।अंत में दादू नें राज से पर्दा उठाते हुए कहा कि "नाती की शादी है,सभी नें एक से बढ़कर एक कपड़ों की खरीददारी की है लेकिन मेरे लिए ? मेरे लिए सूती कुर्ता?अभी इतना बूढ़ा भी नहीं हुआ हूँ।मुझे अपने इकलौते नाती की शादी के लिए सिल्क का कुर्ता चाहिए बस।"दादू के फ़रमान से सभी का मुँह एक पल के लिए बस खुला ही रह गया।आनन् फानन में बढ़िया किस्म का सिल्क कुर्ता लाया गया।तभी दादू नें अपना उपवास खोला।
उस रोज़ दादू का सौवां जन्मदिन था।ऋषि पंचमी का दिन था।दादू सुबह से ही उत्साहित नजऱ आ रहे थे।बढ़िया तरीके से एकदम कड़क प्रेस किया हुआ झक सफ़ेद कुर्ता पहना।बालों में डाई भी करवाई।भई आज फ़ोटो भी तो खिंचनी थी!अपनी छड़ी उठाकर धीरे धीरे लगभग रेंगते हुए चलने का प्रयास किया।घर भर के तीन चार चक्कर लगा चुके थे दादू लेकिन ये क्या सभी अपने काम में इतने व्यस्त !,किसी को दादू की तरफ झांकने की भी फुर्सत नहीं! दादू नें बच्चों को बुलाया,अपने कुर्ते की जेब से पान के फ्लेवर वाली टॉफी निकाल के दी,ये टॉफियां दादू सिर्फ अवसर विशेष पर ही बच्चों को बांटते थे।बच्चे पूछने लगे,"दादू दादू आज क्या है?बताओ न।"
"कुछ नहीं बस ऐसे ही"।अनमने मन से दादू नें कहा।
थककर दादू अपने कमरे में चले आये।शाम को छोले भटूरे की गंध नें जब दादू के नथुनों को छेड़ा तो दादू मन मसोस कर रह गए।
"सुंगध पक्का पड़ोस से ही आ रही है,मेरे घर में तो किसी को खबर भी नहीं कि आज मेरा सौवां जन्मदिन है,हुंह..।"दादू नें मन ही मन सोचा।
"बाबूजी चलिये,सब इंतज़ार कर रहे हैं।"
"क्यों भला?"
"खुद ही देख लीजिए चलकर।"
चौक में पहुँचते ही ढेर सारे गुब्बारे,और जन्मदिन के स्टिकर्स देखकर दादू की धुंधली आँखें भी ख़ुशी से छलक उठी।सामने एक बड़ा सा केक रखा था,दादू नें बड़े ही चाव के साथ पहली बार केक काटा।लेकिन तभी दादू का चेहरा उतर गया।और दादू बड़ी ही मासूमियत से बोले,"अगर तुम्हारी दादी संध्या आज जीवित होती तो आज के दिन खीर जरूर बनती।"
फिर क्या था,घर की बहुएं फटाफट खीर बनाने में जुट गई।आधे घंटे के अंदर अंदर दादू के लिए विशेष रूप से खीर बनाई गई।
मधुमेह के रोगी दादू अपनी मनपसंद शुगर फ्री खीर खाकर फूले नहीं समाये।
यूँ तो परिवार का हर सदस्य दादू का पूरा ख्याल रखता लेकिन कभी कभी किसी कारणवश अगर सदस्य व्यस्त हो जाते या दादू की तरफ ध्यान नहीं जा पाता तो वे किसी न किसी तरह ध्यान आकर्षित करवाकर ही रहते।
एक रोज़ इसी तरह रविवार की सुबह सब लोग अपने अपने बकाया कामों को निपटाने में व्यस्त थे,दोपहर तक दादू की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं गया।अचानक ही दादू नें सहारे के लिए अपनी छड़ी उठाई और सब लोगों से पूछना शुरू कर दिया,"देखना जरा बेटा, मुझे लग रहा है मेरे दाएं हाथ में सूजन है,शरीर भी तप रहा है।"
"नहीं बाबूजी,तापमान तो एकदम ठीक है,और सूजन भी नहीं है,आप आराम कीजिये।"बेटे नें हाथ छू कर कहा।
दादू नें बेटे से लेकर पोते पोतियों घर के माली और नौकर तक से पूछ डाला लेकिन सभी का एक ही जवाब।
"किसी को मेरी कोई फ़िक्र नहीं,लगता है अब मैं फालतू का कबाड़ हो गया हूँ जिसकी किसी को कोई ज़रूरत नहीं।"दादू भावुक हो उठे।
तभी सबसे बड़ी वाली पोती नें दादू को देखा और कहा "हाँ दादू सूजन तो है हाथ में और आपका सर भी तप रहा है,लाइए मैं दवाई लगा देती हूं।"
पोती थोड़ी देर दादू के पास बैठी ,दादू से दो चार मन की बातें भी कर ली।सर पर हल्का सा बाम लगा दिया।
पास ही खड़ी बहु नें आश्चर्य से पुछा,"क्यों री छुटकी, ऐसा कौनसा बुखार आ गया था दादू को जो सिर्फ तुझे ही दिखाई दिया,हम सब नें अच्छी तरह चेक तो किया था, कुछ नहीं है दादू को।"
"हाँ,जानती हूँ चाची, दादू एकदम ठीक हैं,पर उन्हें दवाई से ज्यादा स्नेह और अपनेपन की जरुरत थी।आज सभी बहुत ज्यादा व्यस्त हो गए थे।और आप तो जानती हैं,हमारे दादू एकदम बच्चों की तरह हैं।"पोती नें मुस्कुराते हुए कहा।
तो ऐसे थे दादू उर्फ़ रघुनाथ प्रसाद जी।
प्रेमचंद जी की प्रसिद्ध कहानी 'बूढी काकी' की एक उक्ति यहाँ याद आ रही है , "बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है।"
अल्पना नागर©
बेहद शानदार
ReplyDeleteAankho me aansu aur shabdo me prem
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