Monday, 1 January 2018

यात्रा वृतांत


उत्तर पूर्वी भारत यात्रा वृतांत

पहला दिन- 16 दिसंबर 2017
भारत के उत्तर पूर्वी कोने में पहली बार क़दम रखे हैं,काफी रोमांचित हूँ।बाहर का तापमान 22 डिग्री सेल्सियस है गुवाहाटी में आते ही सबसे पहले कामाख्या देवी के दर्शन को आये हैं।मंदिर के बाहर बहुत सी छोटी दुकानें हैं जहाँ पूजा की सामग्रियों के साथ बांस की बनी टोकरियां,हैंडबैग आदि बहुत सी आकर्षक चीजें बिक्री के लिए रखी हुई हैं।भारत के उत्तर पूर्वी हिस्से में बांस के पेड़ बहुतायत में पाए जाते हैं।मंदिर के बाहर ही भगवा वस्त्रों में बहुत से नौजवान पुजारी जैसे लोग घूम रहे हैं।इन्हीं में से एक पुजारी हमारे साथ चलने लगे हैं एक गाइड की तरह वो हमें मंदिर से सम्बंधित जानकारियां दे रहे हैं। हर प्रसिद्ध मंदिर की भाँति यहाँ भी भक्तों की बहुत लंबी कतार है।यहाँ तक कि वीआईपी एंट्री में भी एक लंबी कतार! हालांकि ये वीआईपी संस्कृति मुझे कभी समझ नहीं आयी,दक्षिण भारत के मंदिरों में इसका असर सबसे ज्यादा है।मंदिर के अहाते में सफ़ेद कबूतरों की काफ़ी तादात है।मंदिर परिसर में हमारे बाईं ओर बलि घर है! जी हाँ! यहाँ आज भी बलि देकर प्राचीन परंपराओं को कायम रखा गया है।मन में अज़ीब से भाव आ रहे हैं।माफ़ी चाहती हूँ माँ ,लेकिन रंग लगे मासूम नन्हे बकरों को देखकर बार बार एक बात दिमाग में आ रही है ...क्या बलि लेना इतना आवश्यक है!
दर्शन के बाद दोपहर लगभग 3.15 पर तेजपुर के लिए रवाना हो रहे हैं।रास्ते भर गाड़ी की खिड़की से असम के ग्रामीण अंचल की झलक देखकर दिनभर की थकान जैसे छूमंतर हो गई।सादा लेकिन खूबसूरत मनोरम दृश्यों नें बचपन की चित्रकारी को पुनर्जीवित कर दिया,एक छोटा सा झोपड़ीनुमा घर,उसके सामने छोटा सा तालाब,आसपास ढेर सारे हरे भरे पेड़,विशेषतः सुपारी का पेड़,मिट्टी की बनी कच्ची पगडंडी.. ये सब कुछ आँखों के सामने है एक स्वप्न की तरह।देखते ही देखते शाम ढल चुकी है,लेकिन समय देखा तो यकीन नहीं हुआ घड़ी सिर्फ दिन के 4 बजा रही है! 5.15 तक अँधेरा पूरी तरह हावी हो चुका है।
दूसरा दिन
तेजपुर से हाथी की सवारी करने सुबह 3.30 पर काजीरंगा की ओर बढ़ रहे हैं।इतना कोहरा कि हाथ को हाथ नज़र न आये।पता नहीं ड्राइवर महोदय के पास कौनसी जादू की छड़ी है,इन्हें सब दिख रहा है हम लोग उल्लू की तरह लगातार नजर सड़क पर गड़ाए बैठे हैं फिर भी कुछ नज़र नहीं आ रहा।खैर,अपनी दक्ष नजरों से घने कोहरे को चीरते हुए ड्राइवर आगे बढ़ रहे हैं।हम ब्रह्मपुत्र नदी के ऊपर से गुजर रहे हैं,कोहरा अपनी चरम सीमा पर है।रास्ते भर भगवन का नाम जपते आये हैं कि हे भगवान पुराने पाप कर्मों का हिसाब आज ही मत करने बैठ जाना!ड्राइवर नें बंगाली भाषा में बहुत मधुर संगीत बजाया हुआ है,यहाँ बांग्ला भाषी लोगों की अधिकता है।अंततः हम आ पहुँचे हैं कांजीरंगा राष्ट्रीय अभ्यारण्य।हाथी सफारी करने को पूरी तरह तैयार।अभी भी कोहरे के कारण काफी अँधेरा है।सुबह के 5.30 बजे हैं।जिस हाथी पर हम सवारी करने जा रहे हैं उसका नाम लकी पूर्णिमा है।हाथी पूरी तरह से प्रशिक्षित हैं इसका अंदाजा सिर्फ ये देखकर लगाया जा सकता है कि सभी हाथी पर्यटकों को फोटो खींचने के लिए तरह तरह के पोज़ दे रहे हैं।काजीरंगा अभ्यारण्य में कुछ दूर बढ़ने पर घनी झाड़ियों में एक गेंडा दिखाई दे रहा है,महावत हाथी को आगे बढ़ने का निर्देश देता है,लकी पूर्णिमा गेंडे के बिल्कुल नज़दीक
आ चुकी है,लेकिन ख़तरा भाँपकर गेंडा वहाँ से रफूचक्कर हो चुका है।कोहरा अभी भी काफी है लेकिन दिन चढ़ने के साथ साथ नज़ारे स्पष्ट होते जा रहे हैं।हाथी की सवारी का अपना एक अलग आनंद है।कोहरे की चादर में ढका जंगल,और बेफ़िक्र घूमते जानवर..सचमुच प्रकृति कमाल की जादूगर है!लकी पूर्णिमा अपनी मस्ती में मगन जंगल की घनी झाड़ियों को पार कर आगे बढ़ती जा रही है।आगे बढ़ने पर जंगल में पानी की एक बड़ी दलदली झील दिखाई देती है,झील के आसपास का सफ़ेद कोहरा और लकड़ी के सूखे पेड़ एक तिलस्म सा रच रहे हैं।एक पल को मैं इस खूबसूरत नज़ारे में खो चुकी हूँ,दृश्य देखकर मुझे इस वक़्त सदाबहार सिने तारिका रेखा और नसीरुद्दीन शाह अभिनीत गाना 'कतरा कतरा बहती है' यूँ ही स्मरण हो आया है।काजीरंगा अभ्यारण्य उतना घना नहीं है जितना पर्यटक कल्पना करते हैं,इसलिए यहाँ हाथी, हिरण और गेंडे के अलावा कुछ नजर नहीं आएगा।स्थानीय ड्राइवर के अनुसार यहाँ घना जंगल भी है जो जंगली जानवरों के लिए सुरक्षित है वहाँ पर्यटकों का प्रवेश निषिद्ध है।काजीरंगा में आगे बढ़ने पर गेंडों का पूरा झुण्ड नजर आ रहा है..हम सब की निगाहें खुली की खुली रह गई हैं,महावत हाथी को और नजदीक ले कर जा रहा है,सचमुच बेहद रोमांचक अनुभव है।महावत के अनुसार गेंडा बहुत ही शांतिप्रिय जीव है,बशर्ते इसे छेड़ा न जाए!जंगल सफ़ारी ख़त्म हो चुकी है,लगभग एक घंटे की यात्रा के बाद हम पुनः अपने स्थान पर आ चुके हैं।
आगे बढ़ते हुए सुबह लगभग 8.30 बजे हम नेशनल ऑर्किड एंड बायो डाइवर्सिटी पार्क पहुँचे हैं।सच बहुत खूबसूरत है।सुबह के समय यहाँ पर्यटकों की भीड़ बिल्कुल नहीं है।पार्क में प्रवेश करते ही हम फूलों के संग्रहालय में पहुंचे हैं जहाँ तरह तरह के चित्ताकर्षक फूलों की विविधता है,जिनमें डान्सिंग लेडी फूल जो देखने में हूबहू भरतनाट्यम करती महिला जैसा प्रतीत होता है,लेडी स्लीपर,ज्वैल प्लांट,ऑर्किड फूल और विभिन्न औषधीय पौधों नें मन मोह लिया है।एक स्थानीय गाइड हमें पौधों की विस्तार से जानकारी दे रहा है।पार्क में आगे बढ़ने पर एक फोटो गैलरी है जहाँ आसाम की मुख्य धरोहरों की तस्वीरें लगी है,साथ ही पुराने लकड़ी से बने बर्तन,आसाम की विरासत को बयां करते विभिन्न धातुओं के गहनें, पुराने सिक्के,नोट आदि सहेज कर रखे हुए हैं,पास ही कपड़े बुनने के करघे लगे हैं।विभिन्न प्रकार के चावल भी देखने को मिले।एक कैक्टस गार्डन है जहाँ कैक्टस की ढेरों प्रजातियां हैं।पार्क में एक खूबसूरत सा तालाब है जहाँ बोटिंग भी कराई जाती है,तरह तरह की मछलियां पास से देखने को मिल जाती हैं,यह बिल्कुल रोचक अनुभव है।पार्क में एक छोटा सा स्टॉल है जहाँ विभिन्न फलों का ताजा रस प्यारी सी मुस्कान के साथ पर्यटकों को दिया जाता है,अनन्नास,स्टार फल,नींबू,फालसा और भी कई तरह के फल रखे हुए है।स्थानीय लोग बहुत ही मिलनसार एंव विनम्र हैं, यहाँ आगंतुकों के स्वागत के लिए आसामी संस्कृति को दर्शाते हुए बेहद लुभावने नृत्य व गायन का प्रबंध भी है।आसाम के बिहू नृत्य में यहाँ के कलाकारों नें हमें भी नृत्य के लिए आमंत्रित किया है।संगीत इतना मधुर है कि पाँव स्वतः ही नृत्य के लिए थिरकने लगे हैं।कभी न विस्मृत होने वाला पल है।निपुण कलाकारों के साथ तस्वीरें लेकर हम पार्क में आगे बढ़ रहे हैं।आगे औषधीय पौधों की एक विशाल श्रृंखला है,जिसमें तुलसी,संजीवनी बूटी,रेशम बनाने वाले कीड़े,शंखपुष्पी,काली मिर्च,लेमन ग्रास,हर्बल लिपस्टिक का पौधा,एक किस्म का इत्र जो पौधे पर लगे कीड़े से उत्पन्न होता है ,प्रमुख है।एक स्थानीय गाइड हमें विस्तार से औषधीय गुणों का विवरण दे रही है।पार्क बहुत ही आकर्षक व दर्शनीय है।
तीसरा दिन - अरुणाचल प्रदेश
तेजपुर से सुबह 8.45 पर हम बोमडिला की तरफ बढ़ रहे हैं।बोमडिला अरुणाचल प्रदेश का प्रमुख शहर है।अरुणाचल यानि 'उगते हुए सूर्य का प्रदेश'।जी हां,बिल्कुल सत्य है,अरुणाचल प्रदेश में सूर्य देव बहुत जल्दी दर्शन देते हैं साथ ही अस्त भी जल्दी हो जाते हैं।यात्रा के दौरान रास्ते भर घरों के बाहर सुपारी के पेड़ों की प्रचुरता दिखाई दे रही है।आगे बढ़ते हुए हम नामेरी फॉरेस्ट से गुजर रहे हैं,पेड़ों की प्रचुरता मंत्रमुग्ध करने वाली है।सड़क के दोनों ओर बस घने पेड़,ताज़ी हवा,आँखों को सुकून देते ये पल एक यादगार सफर के गवाह हैं।
भालुकपोंग में प्रवेश के साथ ही अरुणाचल प्रदेश शुरू हो जाता है।साथ ही मोबाईल का नेटवर्क भी जा चुका है।रास्ते भर छोटे बड़े झरने और नदियों नें मन को जैसे बांध लिया है।सड़क किनारे छोटी छोटी दुकाने हैं जहाँ पारदर्शी डिब्बों में बांस के पौधे के छोटे टुकड़ों के काटकर भरा गया है जिसका प्रयोग स्थानीय लोग खाने में करते हैं।
सर्पिलाकार सड़कों से गुजरते हुए गाड़ी सावधानी से धीरे धीरे आगे बढ़ रही है।भूस्खलन की वजह से भारी मात्रा में पहाड़ियों से छोटे बड़े पत्थर निकले हुए हैं।यहाँ बांस के पेड़ों के प्रचुरता है।जैसे जैसे ऊँचाई पर बढ़ते जा रहे हैं,चीड़ के खूबसूरत पेड़ नजर आने लगते हैं,सीधे मुस्कुराते हुए आत्मविश्वास से लबरेज़ चीड़ मानों आकाश को निमंत्रण दे रहे हैं,लगता है आकाश के उस पार की दुनिया से इनका गहरा संबंध है,ये खूबसूरत पेड़ बारिश को बुलाते हैं और खिलखिलाती नदियां और भी हसीं हो उठती हैं।पहाड़ों पर प्रकृति नें अपने सारे रंग उड़ेल दिए हैं कभी सुर्ख़ लाल फूलों से सजी वादियां तो कभी बसंती रंग से घिरी पहाड़ियां अपलक निहारने को मजबूर कर रही हैं।
बोमडिला पहुँच चुके हैं।ठंडक का अहसास यहाँ चरम सीमा पर है।पानी हड्डियों को कँपा देने तक ठंडा है।पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से यहाँ बिजली की बहुत कमी है।रात को लॉज की बालकनी से चाँद की प्राकृतिक रोशनी में शहर बहुत खूबसूरत नज़र आ रहा है,पास ही कहीं म्यूजिक कॉन्सर्ट हो रहा है,जहाँ से आ रहा हल्का हल्का संगीत रात के शांत वातावरण में खुशबू की तरह घुल रहा है।जहाँ हम ठहरे हैं वहाँ पास ही एक बौद्ध मठ है,अंदर जाने पर ठहरी हुई शांति का आभास हुआ।बौद्ध धर्म की एक विशेषता जो मुझे बहुत पसंद है वो ये कि यह धर्म बहुत लचीला है किसी तरह की कोई कठोर पाबंदी नहीं।हर धर्म के लोग यहाँ आते हैं।हिमाचल के धर्मशाला स्थित मठ से विपरीत यहाँ सादगी नज़र आयी।धर्मशाला मठ में बौद्ध संतों की तस्वीर के आगे आधुनिक जीवनशैली से सम्बंधित सभी खाद्य सामग्रियां रखी हुई थी,जो स्वयं में एक रोचक अनुभव था।खैर! हम लौटते हैं पुनः बोमडिला मठ की ओर।मठ के पास ही गुरुकुल जैसा स्थान है जहाँ शाम के समय बौद्ध वेशभूषा में कुछ बच्चे खेलते हुए दिखाई दिए।हमने आगे बढ़कर उनसे मित्रता करनी चाही लेकिन वो शायद अजनबी लोगों को देखकर घबरा गए।कुछ ही देर में बच्चे वहाँ से लगभग गायब हो चुके हैं।बोमडिला एक छोटा सा शहर है जिसे यहाँ का फैशन सिटी भी माना जाता है,यहाँ पहुंचकर शहरी संस्कृति का आभास हुआ,लड़के लड़कियां खूबसूरत आधुनिक परिधानों में दिखाई दे रहे हैं।
चौथा दिन(बोमडिला से तवांग)
अगले दिन सुबह 6 बजे हम बोमडिला से सेला पास जाने के लिए रवाना हो रहे हैं।बोमडिला से तवांग की यात्रा लगभग 8 घंटे है।लंबे सफर के लिए जरुरत का खाने पीने का सामना लेकर हम आगे बढ़ रहे हैं।रास्ते में खूबसूरत दृश्यों नें मन को बाँध लिया।उत्तर पूर्व भारत प्राकृतिक सुंदरता से भरा हुआ है,लेकिन रास्ते में बड़े ट्रकों की आवाजाही और उनसे निकलने वाला डीज़ल युक्त काला धुंआ अरुणाचल की ख़ूबसूरती में काले धब्बे की तरह लग रहा है।सेला पास पहुँचने पर हमारी उम्मीद के विपरीत चटख धूप निकली हुई है।दिल्ली के प्रदूषण युक्त धुंधले आसमान की तुलना में यहाँ का आसमान बिल्कुल नीला और साफ़ है।सेला पास पर ही एक खूबसूरत झील है जो ठण्ड में पूरी तरह जम चुकी है।यहाँ आसपास पहाड़ियों पर नीचे तक हल्की बर्फ़ छाई हुई है।
सेला पास नाम के पीछे भी एक वास्तविक कहानी है।कहा जाता है कि 1962 में जब चीनी सैनिकों ने भारत पर आक्रमण कर दिया था तब एक भारतीय सैनिक जिनका नाम जसवंत सिंह रावत था, उन्होंने पूरी बहादुरी के साथ लगातार बहत्तर घंटे दुश्मन सेना का मुकाबला किया था, उसी दौरान सेला और नूरा नाम की दो स्थानीय युवतियों नें जसवंत सिंह की भरपूर मदद की,उनके खाने पीने से लेकर बंकर में बंदूक लाने तक में सहायता पहुंचाई।चीनी सैनिकों का एक बम सेला नाम की युवती के पास आकर फटा जिससे उसकी मृत्य हो गई थी,उसी शहादत के परिणामस्वरूप तवांग स्थित मार्ग का नाम सेला पास रखा गया है।
रास्ते में जसवंत मेमोरियल गढ़ आया है।जसवंत जी के बारे में काफी पढ़ा व सुना था आज उस स्थान पर पहुंचकर मन श्रद्धा से नतमस्तक हो गया है।1962 में भारत चीन के युद्ध के समय सैनिक जसवंत नें जिस बहादुरी के साथ 72 घंटों तक अकेले चीनी सेना का मुकाबला किया वह रोंगटे खड़े करने वाला है,यह हमारे बहादुर सैनिकों का ही योगदान है कि कोई भी पड़ोसी देश भारत की ओर आँख उठाकर देखने से पहले कई बार सोचते हैं। माना जाता है कि जसवंत गढ़ में आज भी एक कमरा शहीद जसवंत जी के लिए सुरक्षित है जहाँ हर रोज़ नाश्ता रखा जाता है,बिस्तर तैयार किया जाता है,जानकारों के मुताबिक प्रातः बिस्तर पर सिलवटें दिखाई देती हैं।हमारे साथ जो ड्राइवर हैं उनका कहना है कि चीन नें काफी तकनीक विकसित कर ली है,उनकी बनाई सड़कों पर किसी रसायन के प्रभाव की वजह से बर्फ़ बिल्कुल भी नहीं जमती जबकि भारतीय सैनिकों को दुश्मन से भिड़ने से पहले आंतरिक तौर पर कई समस्याओं से जूझना पड़ता है जैसे बर्फ की अधिकता, सड़क की कनेक्टिविटी का अभाव, रास्ते में प्राकृतिक आपदाओं के परिणामस्वरूप भूस्खलन आदि का होना।
आगे बढ़ने पर रास्ते में नूरानांग प्रपात के लिए रुके हैं।इसे बोंग बोंग या जंग झरना भी कहा जाता है।यह लगभग 100 मीटर की ऊंचाई से गिरकर तवांग नदी में मिल जाता है।बोमडिला और तवांग को जोड़ने वाली सड़क से यहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है।इसकी खूबसूरती को शब्दों में वर्णन करना मुश्किल है।इतनी ऊंचाई से गिरते दूधिया झरने को देखकर एक पल के लिए ख़ुशी से चीख निकल पड़ी।झरने पर गिरती सूर्य की किरणें न जाने एकसाथ कितने इंद्रधनुष बना रही हैं।उस पल को सिर्फ़ अनुभव किया जा सकता है,मुझे समझ नहीं आया कि किस तरह मैं इस खूबसूरत क्षण को हमेशा के लिए सहेज कर रखूं,मैं जानती हूँ इस वक़्त मोबाईल को बीच में लाना एक तरह का दख़ल होगा लेकिन उंगलियाँ स्वतः मोबाईल की ओर बढ़ रही है।एक वीडियो के रूप में इस विशालकाय झरने को समेटने का प्रयास किया है।ये झरना गोवा के दूधसागर प्रपात से भी ज्यादा मनमोहक है।जिंदगी में एक बार सभी को अवश्य यहाँ आना चाहिए।
पांचवा दिन
तवांग में एक रात रूककर हम अगले दिन तवांग बौद्ध मठ के दर्शन की ओर जा रहे हैं,मठ विशालकाय और बहुत खूबसूरत है,लगभग 400 वर्ष पुराना मठ छठे दलाई लामा का जन्म स्थान है।यह मठ तिब्बत की राजधानी ल्हासा के बाद एशिया का सबसे बड़ा मठ है।अंदर महात्मा बुद्ध की 8 फीट ऊँची स्वर्ण प्रतिमा दर्शकों को विस्मय में डालने के लिए काफी है।बौद्ध मठ में लाल पीले,नीले, हरे और सफ़ेद रंगों की अधिकता है,जो देखने में काफ़ी आकर्षक लगता है।मठ में ही एक संग्रहालय है जहाँ बौद्ध धर्म से सम्बंधित वस्तुएं रखी हैं,यहाँ गैलरी में विभिन्न नेताओं व महत्वपूर्ण लोगों की तस्वीरें लगी हैं,जो तवांग बौद्ध मठ में आये थे,जिनमें राजीव गांधी,सोनिया गांधी,इंदिरा गांधी, भूतपूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी,पंडित नेहरू मुख्य है।लगभग 33 किलोमीटर आगे बूमला पास की ओर बढ़ रहे हैं,यहीं चाइना बॉर्डर है।रास्ते में बहुत सी खूबसूरत झीलें हैं जो ठंड के कारण जम चुकी हैं,इन्हीं में से एक नाकुला झील पर हम रुके हैं,यह बेइंतिहा खूबसूरत झील है।एक और झील है जो सिने तारिका माधुरी दीक्षित की कोयला फिल्म पर फिल्माए गाने की वजह से लोकप्रिय हो गई है।झील का वास्तविक नाम संगेत्सर झील है,लेकिन इसे माधुरी झील के नाम से जाना जाता है।झील के बीचोंबीच लगे चीड़ के पेड़ खुशनुमा दृश्य बना रहे हैं।आगे बढ़ते हुए हम भारत चीन सीमा पर पहुँच चुके हैं।हम लगभग 15200 फीट की ऊँचाई पर खड़े हैं।बर्फीली हवा है जिसकी रफ़्तार बहुत तेज है।सड़क के दोनों ओर छोटे बड़े कई पहाड़ हैं आसपास की जमीं बंजर और पथरीली है,जो एक पल को यक़ीनन किसी दूसरे ग्रह का भ्रम दिलाने के लिए काफी है।दूर बर्फ से ढके चीनी पहाड़ दिखाई दे रहे हैं।भारत चीन सीमा पर खड़े हैं।हमारे जैसे कई और पर्यटक हैं जो भारत चीन सीमा के दूसरी तरफ चीनी क्षेत्र में अपने पाँव रखकर रोमांचित महसूस कर रहे हैं,और विदेश यात्रा का 'फील' ले रहे हैं।सीमा क्षेत्र पर ही एक पत्थरों का ढेर लगा है जिसके एक तरफ भारत के ध्वज का निशान है और दूसरी तरफ चीनी ध्वज का निशान है।भारत चीन सीमा समझौते के अंतर्गत अभी सिर्फ लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल है,यही वजह है कि पड़ोसी देश चीन नें सैंकड़ों बार समझौते की अवहेलना कर भारत अधिकृत क्षेत्र को हथियाने की गुस्ताखी की।हालांकि हमारे यहाँ जब तक जसवंत सिंह जैसे देशभक्ति से लबरेज सैनिक हैं तब तक कोई भी देश भारत का बाल भी बांका नहीं कर सकता।सच,इतनी ऊँचाई पर आकर भारत चीन सीमा के इतने नजदीक खड़े होने पर जो भावना मन में आ रही है उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है।यहाँ एक सैनिक गाइड की तरह विस्तार से भारत चीन सीमा के बारे में समझा रहा है,उन्हीं से बात करते हुए ज्ञात हुआ कि हमारे सैनिक ठंड की चरम सीमा को भी पार करते हुए लगभग माइनस पच्चीस डिग्री सेल्सियस तापमान में रहकर हमारी रक्षा करते हैं।भारत का ध्वज शान से हवा में लहरा रहा है।भारतीय सैनिकों को कोटिशः नमन,मुझे गर्व है कि मैं भारतीय हूँ।
दिनभर की थकान के बाद शाम 4 बजे हम तवांग स्थित युद्ध स्मारक पहुंचे।वहाँ पहुँचकर महसूस हुआ कि हम भारतीय किस वजह से अपने अपने घरों में आराम से बैठे हैं।स्मारक पर ही एक सैनिक विस्तार से हमें युद्ध का विवरण दे रहे हैं।यह स्मारक 1962 के भारत चीन युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में स्थापित किया गया है,स्मारक को बौद्ध धर्म के साथ मिश्रित करके बनाया गया है ताकि स्थानीय लोग अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर सकें।युद्ध में 2420 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे।अलग अलग रेजीमेंट्स के सैनिकों के नाम काले रंग की शिलालेखों पर अंकित किये गए हैं।स्मारक में जैसे जैसे आगे बढ़ती गई,एक अलग ही तरह का अनुभव हुआ,आँखों के कोरों में नमी महसूस कर रही हूँ।शहीद सैनिकों के इतने सारे नाम देखकर दिमाग एक बार के लिए सुन्न हो चुका है।अंदर एक छोटा कमरा है जहाँ 1962 के युद्ध से सम्बंधित हथियार,सैनिकों की गोलियों से छलनी हुए हेलमेट रखे हुए हैं।कुछ जापानी राइफल भी रखे हुए हैं।एक जगह मॉडल के रूप में अरुणाचल का नक्शा बनाया हुआ है जहाँ एक सैनिक गाइड युद्ध के समय की परिस्थितियों को विस्तार से समझा रहे हैं,उनके अनुसार चीनी सैनिक भारतीय सीमा को पार कर असम के भालुकपोंग तक आ पहुंचे थे।
छठा दिन
तवांग से दिरांग यात्रा के दौरान रास्ते में अचानक ही मौसम बदल गया है।आँखों को यकीन नहीं हो रहा कि चटख धूप वाला मौसम अचानक से घने बादलों वाला हो जायेगा।रुई जैसे बादल घुमावदार सड़कों पर आकर ठहर गए हैं और देखते ही देखते चारों ओर घना कोहरा छा गया है।स्वर्ग सा नजारा बेहद खूबसूरत और रोमांचित करने वाला है।दिरांग आ पहुंचे हैं।दिरांग घाटी समुद्र तल से लगभग 4910 की ऊंचाई पर स्थित है।नदियों से घिरे पहाड़ी क्षेत्र दिरांग की खूबसूरती देखते ही बनती है।यहाँ झूम कृषि मुख्य आजीविका का स्त्रोत है।नकदी फसलों में सेब,संतरा,अनन्नास की खेती प्रमुखता से होती है।लॉज काफी ऊंचाई पर स्थित है,यहाँ से पूरा दिरांग देख सकते हैं।दिरांग में ही एक गर्म पानी का स्त्रोत है जो कि दर्शनीय है।
सातवां दिन-
यह यात्रा का अंतिम पड़ाव है।तेजपुर से लगभग 35 किलोमीटर दूर नामेरी नेशनल पार्क है।अरुणाचल से गुवाहाटी वापसी के दौरान मार्ग में ब्रह्मपुत्र नदी की ही एक शाखा नदी जिसका नाम 'जिया भरेली' पड़ती है।इसे अरणाचल प्रदेश में कामिंग नदी के नाम से जाना जाता है।नदी बेहद खूबसूरत,सुरम्य है।आसाम घूमने आए पर्यटक इस नदी में राफ्टिंग का आनंद जरूर उठाते हैं।हम भी स्वयं को रोक नहीं पाए।राफ्टिंग के लिए लगभग 2-3 घंटे का समय और धैर्य होना चाहिए।नदी का बहाव फ़िलहाल शांत है।लाइफ जैकेट पहनकर हम राफ्टिंग बोट में सवार हो गए हैं।नदी का क्षेत्र काफी दूर तक फैला हुआ है।लगभग 18 किलोमीटर तक के दायरे में कुशल नाविकों की देखरेख में राफ्टिंग कराई जाती है।नदी यात्रा के बीच बीच में दर्जनों पक्षी दिखाई देते हैं,जिनके बारे में नाविक जानकारी देते रहते हैं,अगर आप एक पक्षी प्रेमी हैं तो निस्संदेह यह यात्रा आपके लिए अविस्मरणीय रहेगी।नदी का बहाव कुछ जगहों पर काफी तेज हो जाता है जिससे राफ्टिंग का आनंद दुगुना हो जाता है।
राफ्टिंग के तरोताजा करने वाले अनुभव के बाद हम तेजपुर शहर घूमने निकले हैं।यहाँ का मुख्य आकर्षण ब्रह्मपुत्र नदी है जो संपूर्ण आसाम की जीवन रेखा मानी जाती है।शिव भक्त यहाँ काफी हैं उसी के अनुसार यहाँ शिव मंदिरों की बहुतायत है,अत्यंत प्राचीन मंदिर यहाँ देखे जा सकते हैं।भैरवी मंदिर,नाग शंकर मंदिर,केटकेश्वर,महाभैरव मंदिर मुख्य हैं।शहर में अग्निगढ़ नामक दर्शनीय स्थल है जहाँ से पूरा तेजपुर देखा जा सकता है।शाम के समय सूर्यास्त का नजारा मन को सुकून देने वाला है।अग्निगढ़ में भगवन कृष्ण के पोते अनिरुद्ध और बाणासुर की पुत्री के बीच का प्रेम भी दिखाया है।कहते हैं जब बाणासुर को इनके बारे में ज्ञात हुआ तो उन्होंने अनिरुद्ध को बंदी बना लिया।इससे क्रुद्ध होकर श्री कृष्ण नें आक्रमण कर दिया।काफी रक्तपात हुआ।उसी वजह से इस शहर का नाम तेजपुर पड़ा।हर शहर के नाम के पीछे कोई न कोई कहानी अवश्य होती है जो पूरे शहर के आत्मा या तासीर को,वहाँ की संस्कृति विशेष तक को बयां कर सकती है।
खैर हफ़्ते भर की अविस्मरणीय यात्रा के बाद घर भी लौटना है।भारी मन से आसाम की विविधता भरी संस्कृति और अरुणाचल की सुनहरी पहाड़ियों को अलविदा कह अंततः अपने घरौंदे लौटना है।फिर मिलेंगे....

अल्पना नागर






















No comments:

Post a Comment