Friday, 28 July 2017

लघुकथा

बस स्टॉप

लड़का बहुत तेज गति से चलता था लेकिन न जाने क्यों उस सांवली सी मोटे चश्मे वाली लड़की को देखकर उसकी गति स्वतः धीमी पड़ जाती थी।घर से बस स्टॉप की दूरी यही कोई दस मिनिट पैदल चलने तक की होगी।लड़की चेहरे से साधारण,कृशकाय,गंभीर प्रवृति की.. लेकिन कुछ अजीब सा आकर्षण था उसकी आँखों में..लड़की का नाम था आशिमा।लड़का दिखने में आकर्षक,सुडौल व ओजस्वी था,नाम था उसका विनीत...दोनों एक ही जगह रसायन विज्ञान विषय का ट्यूशन पढ़ने जाते थे।लड़का आजकल रोज बसस्टॉप पर तीन बसें निकल जाने के बाद तक भी खड़ा रहता,इस दौरान उसकी नजर सामने रास्ते पर ही लगी रहती,फिर अचानक दूर से उस सांवली परछाई को देखकर उसकी आँखों की चमक बढ़ जाती।आँखों के संपर्क से शुरू हुई दास्तान धीरे धीरे मुस्कराहट में तब्दील होने लगी।ये उन दिनों की बात है जब घर घर में टीवी पर मात्र दूरदर्शन के ही दर्शन हो पाते थे,उस वक्त जरा वक्त फुर्सत में था,आज की तरह 'फॉर जी' जमाना नहीं था।हां तो हम बात कर रहे थे 'केमिस्ट्री' की...बस में सीट मिल जाने पर लड़का अपनी सीट लड़की के लिए छोड़ देता था..बदले में हल्की सी मुस्कराहट पाकर वो अपनी 'सीट' भी पक्की कर रहा था।रास्ते भर लड़की अपनी केमिस्ट्री की बुक निकालकर पढ़ती रहती।उन दोनों की निःशब्द 'केमिस्ट्री' में भी एक मीठी सी ताजगी थी।कभी कभी लड़की भी अपनी बगल वाली खाली सीट पर पर्स रख देती थी,जिसे लड़का चुपचाप हटाकर बैठ जाता था..लगभग दो साल तक मुस्कुराहट से लबरेज ये शांत सफर यूँ ही चलता रहा।उस रोज ट्यूशन का आखिरी दिन था..लड़की किसी तरह अपने हाथों की कंपन को छुपा रही थी,बार बार उसका हाथ पर्स में जाता और लौट आता..आख़िरकार बस स्टॉप पर इंतज़ार किया जा रहा था..लेकिन आज बस का नहीं,लड़के का इंतज़ार था..लड़का आज ट्यूशन पर नहीं आया था।तीन बसें जा चुकी थी,ये आखिरी बस थी उसके बाद चार घंटे का लंबा अंतराल।लड़की की आँखें लगातार रास्ते पर थी..तभी उसे लड़का दिखाई दिया ..उसके हाथ में कुछ था,शायद कोई डायरी..उस रोज़ फ्रेंडशिप डे था।लड़के नें हमेशा की तरह मुस्कुराया और लड़की के हाथ में डायरी थमा दी।डायरी के पन्ने खाली लेकिन गुलाब की खुशबू से भरे थे।बहुत कुछ लिखा जाना था उनमें..लड़के के सुनहरे सपनें.. आशाएं..बहुत कुछ..लेकिन तभी लड़की नें हिम्मत कर काँपते हाथों से पर्स में से कुछ निकाला..विवाह निमंत्रण था शायद..लड़के को पत्र थमाकर बिना रुके बिना पीछे मुड़े आखिरी बस से लड़की चली गई।वो बस आखिरी थी,उसके बाद का समय पंख लगाकर उड़ गया।
आज लगभग पांच साल बाद फिर उसी बस स्टॉप पर अचानक किसी नें नाम पुकारा 'विनीत' रुको बेटा! लड़के नें चौंककर पीछे मुड़कर देखा,एक पिता अपने चार साल के शरारती बच्चे को पकड़ने का प्रयास कर रहा था,नन्हे की अठखेलियां देख साथ में खड़ी एक स्त्री धीमे धीमे मुस्कुरा रही थी।लड़के नें एक पल को ठहरकर उस स्त्री की आँखों में देखा..समय जैसे ठहरकर पांच वर्ष पीछे मुड़ गया।आज भी वही मुस्कुराहट..वही आँखों की चमक..वही गंभीरता।
लड़के का हाथ भी नन्ही उंगलियों नें थामा हुआ था।पास ही खड़ी एक बुजुर्ग औरत नें नाम पूछा, बच्ची नें चहककर अपना नाम बताया..आंटी ...'आशी' घर पर और 'आशिमा' स्कूल में।
बस स्टॉप की भीड़ नॉन स्टॉप जारी थी।

अल्पना नागर

6 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 03-08-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2686 में दिया जाएगा
    धन्यवाद सहित

    ReplyDelete
    Replies
    1. सर मैं हृदय से आभारी हूँ

      Delete
  2. सुन्दर प्रेम-कथा।

    ReplyDelete