कहानी
देहरी
अस्पताल के बैड पर पत्नी की बगल में सोई बेटी रुई का एक टुकड़ा नजर आ रही थी,इतनी नाज़ुक कि उसे छूते हुए भी मन घबरा जाता, कहीं चोट न लग जाए! आहिस्ता से तन्मय नें अपनी एक दिन की बेटी को उठाया।टिमटिमाती आँखों नें नई दुनिया का हल्का मुआयना किया,अपने पिता को नजर भर देखा।तन्मय को पहली बार अपने पिता होने का अहसास हुआ,एक हल्की कंपकंपी उसके पूरे शरीर में बिजली की तरह दौड़ गई।फूल सी कोमल बेटी के माथे पर स्नेह चुम्बन अंकित किया।
तन्मय के लिए यह बेहद मुश्किल समय था।घर पर चलने फिरने में असमर्थ बीमार माँ की देखभाल,ऑफिस की जिम्मेदारियां और अस्पताल में प्रसूता पत्नी और नवजात शिशु की देखरेख, इन सब के बीच तन्मय को साँस लेने भर की भी फुर्सत नहीं मिल पा रही थी।कुछ दिन से रात में भी सिर्फ कुछ क्षण के लिए झपकी ही ले पा रहा था।खुद को इतना अकेला और असहाय इससे पहले उसने कभी महसूस नहीं किया।कई बार उसका मन होता कि इन हालातों में कोई अपना अगर साथ होता तो उसे एक सहारा मिल जाता,लेकिन निकट परिजनों से भी उसे निराशा ही हाथ लगी।तन्मय अपने चाचा को जब मिठाई खिलाने गया तब चाचा नें कहा," तनु बेटा, बहुत परेशान हो इस वक्त पर मेरी भी अपने परिवार के लिए जिम्मेदारियां हैं,तुम्हारी चाची को भी कहाँ फुर्सत है!"
एक चाचा ही थे जहाँ तन्मय को उम्मीद थी बाकि रिश्तेदारों के बारे में तो सोचना भी व्यर्थ था।कमरे की खिड़की से झांकता औंधा पड़ा आसमान आज तन्मय को कुछ झुका हुआ नजर आया,लगा कि अभी उसपर टूटकर गिर पड़ेगा।
"भैया,कैसे हो?भाभी कहाँ हैं?"
शब्द सुनकर तन्मय की तन्द्रा टूटी।सामने छोटी बहन को देखकर उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ,लगा कि अभी भी स्वप्न की दुनिया में है।
"स्नेहा तुम? कैसे...."
इतने वर्षों बाद बहन को सामने देख तन्मय हक्का बक्का हो गया,वह बोलना चाह रहा था लेकिन उसके शब्दों की नदी अंदर ही अंदर कहीं जम गई थी,गला सूख गया था।
"कुछ नहीं,पानी पीजिये आप।क्या हालत बना रखी है खुद की..आँखें देखिये अपनी,यूँ लगता है हफ़्तों से सोये नहीं हो।आपको क्या लगा आप नहीं बताएँगे तो पता नहीं चलेगा,अरे बुआ बन गई हूँ मैं!और अब एक महीने से पहले मैं कहीं नहीं खिसकने वाली,छुट्टियों का इंतज़ाम करके आयी हूँ।"
तन्मय कुछ भी बोल पाने की स्थिति में नहीं था।वो बस ठगा सा अपनी बहन की अपनत्व भरी बातें सुन रहा था।स्नेहा अपनी नवजात भतीजी को गोद में उठा सारा दुलार लुटा रही थी।तन्मय की आँखों के सामने अतीत का कोहरा घिर आया।स्मृतियों के बादल रह रहकर उसे भिगो रहे थे,जिन्हें अनदेखा कर वह पीछा छुड़ाने की हर दिन कोशिश करता वही उसकी परछाइयाँ बन कभी सपने में तो कभी ख़यालों में उसके सामने होती।
"खबरदार स्नेहा जो इस घर की देहरी पर कदम भी रखे तो मेरा मरा हुआ मुँह देखोगी।आज से तुम हमारे लिए और हम तुम्हारे लिए मर चुके हैं।" चार वर्ष पहले कहे तन्मय के अपने शब्द आज उसे तीर की तरह चुभ रहे थे जिनमें आज वह खुद को बुरी तरह लहूलुहान महसूस कर रहा था।
"कोई भला अपनी ही बहन से इस तरह का बर्ताव करता है! क्या कसूर था उसका? क्या अपनी इच्छा से करियर और जीवनसाथी चुनना इतना बड़ा अपराध है कि उम्रभर के लिए खून के रिश्ते को भी तिलांजलि दे डाली ! स्नेहा अपना आसमान ,अपनी उड़ान चाहती थी,और हम लोग सदियों पुरानी जंग लगी कैंची लेकर तैयार बैठे थे!"तन्मय का मन आज बुरी तरह खुद को कचोट रहा था।
"क्या हुआ भैया,कहाँ खो गए? अब क्या अस्पताल में ही रहने का इरादा है!घर चलिये मुझे माँ से भी मिलना है।"स्नेहा नें जोर डालते हुए कहा।
"स्नेहा नें कितनी सहजता से सब कुछ भुला दिया जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं,आज मैं इसके बड़प्पन के आगे खुद को बौना महसूस कर रहा हूँ।"तन्मय की अभी तक खुद से जंग जारी थी।शब्द कहीं अटक कर रह जाते थे।
अतीत के कड़वे अनुभव अभी भी घर के दरवाजे के आसपास हवा में तैर रहे थे।
घर पहुंचते ही सभी के कदम देहरी पर अचानक रुक गए।तभी तन्मय नें स्नेहा का हाथ पकड़ा उसकी आँखों से पश्चाताप आंसू बनकर प्रवाहित हो रहा था।देहरी के पार बचपन की स्मृतियां प्रतीक्षा कर रही थी।स्नेहा के आने से बीमार माँ का चेहरा भी खिल उठा।
"छुटकी,ये धागा बांधने में मेरी मदद नहीं करोगी?" तन्मय नें अपनी कलाई आगे करते हुए कहा।
"क्यूँ नहीं भैया,तरस गई हूँ इन कलाइयों के लिए।पिछले चार वर्षों से आपके नाम की राखी लिफाफे में रखती हूं पर पोस्ट करने की हिम्मत नहीं कर पाई।"लाल धागा बांधते हुए स्नेहा नें कहा।
"ये रक्षाबंधन मेरे लिए सबसे अनमोल है,हर बार भाई अपनी बहन को उपहार देता है लेकिन इस बार एक बहन नें अपने भाई को उम्रभर के लिए अनमोल रिश्ते का उपहार दिया।"तन्मय नें स्नेहा को गले लगाते हुए कहा।
"देखो न भैया,ये नन्ही सी परी कैसे खुश होकर देख रही है", स्नेहा नें चहकते हुए कहा।
कोई नाम सोचा आपने?"
"स्नेहा नाम कैसा रहेगा?"तन्मय नें पूछा।उसकी आँखों में आज ख़ुशी की चमक थी।
अल्पना नागर ©
देहरी
अस्पताल के बैड पर पत्नी की बगल में सोई बेटी रुई का एक टुकड़ा नजर आ रही थी,इतनी नाज़ुक कि उसे छूते हुए भी मन घबरा जाता, कहीं चोट न लग जाए! आहिस्ता से तन्मय नें अपनी एक दिन की बेटी को उठाया।टिमटिमाती आँखों नें नई दुनिया का हल्का मुआयना किया,अपने पिता को नजर भर देखा।तन्मय को पहली बार अपने पिता होने का अहसास हुआ,एक हल्की कंपकंपी उसके पूरे शरीर में बिजली की तरह दौड़ गई।फूल सी कोमल बेटी के माथे पर स्नेह चुम्बन अंकित किया।
तन्मय के लिए यह बेहद मुश्किल समय था।घर पर चलने फिरने में असमर्थ बीमार माँ की देखभाल,ऑफिस की जिम्मेदारियां और अस्पताल में प्रसूता पत्नी और नवजात शिशु की देखरेख, इन सब के बीच तन्मय को साँस लेने भर की भी फुर्सत नहीं मिल पा रही थी।कुछ दिन से रात में भी सिर्फ कुछ क्षण के लिए झपकी ही ले पा रहा था।खुद को इतना अकेला और असहाय इससे पहले उसने कभी महसूस नहीं किया।कई बार उसका मन होता कि इन हालातों में कोई अपना अगर साथ होता तो उसे एक सहारा मिल जाता,लेकिन निकट परिजनों से भी उसे निराशा ही हाथ लगी।तन्मय अपने चाचा को जब मिठाई खिलाने गया तब चाचा नें कहा," तनु बेटा, बहुत परेशान हो इस वक्त पर मेरी भी अपने परिवार के लिए जिम्मेदारियां हैं,तुम्हारी चाची को भी कहाँ फुर्सत है!"
एक चाचा ही थे जहाँ तन्मय को उम्मीद थी बाकि रिश्तेदारों के बारे में तो सोचना भी व्यर्थ था।कमरे की खिड़की से झांकता औंधा पड़ा आसमान आज तन्मय को कुछ झुका हुआ नजर आया,लगा कि अभी उसपर टूटकर गिर पड़ेगा।
"भैया,कैसे हो?भाभी कहाँ हैं?"
शब्द सुनकर तन्मय की तन्द्रा टूटी।सामने छोटी बहन को देखकर उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ,लगा कि अभी भी स्वप्न की दुनिया में है।
"स्नेहा तुम? कैसे...."
इतने वर्षों बाद बहन को सामने देख तन्मय हक्का बक्का हो गया,वह बोलना चाह रहा था लेकिन उसके शब्दों की नदी अंदर ही अंदर कहीं जम गई थी,गला सूख गया था।
"कुछ नहीं,पानी पीजिये आप।क्या हालत बना रखी है खुद की..आँखें देखिये अपनी,यूँ लगता है हफ़्तों से सोये नहीं हो।आपको क्या लगा आप नहीं बताएँगे तो पता नहीं चलेगा,अरे बुआ बन गई हूँ मैं!और अब एक महीने से पहले मैं कहीं नहीं खिसकने वाली,छुट्टियों का इंतज़ाम करके आयी हूँ।"
तन्मय कुछ भी बोल पाने की स्थिति में नहीं था।वो बस ठगा सा अपनी बहन की अपनत्व भरी बातें सुन रहा था।स्नेहा अपनी नवजात भतीजी को गोद में उठा सारा दुलार लुटा रही थी।तन्मय की आँखों के सामने अतीत का कोहरा घिर आया।स्मृतियों के बादल रह रहकर उसे भिगो रहे थे,जिन्हें अनदेखा कर वह पीछा छुड़ाने की हर दिन कोशिश करता वही उसकी परछाइयाँ बन कभी सपने में तो कभी ख़यालों में उसके सामने होती।
"खबरदार स्नेहा जो इस घर की देहरी पर कदम भी रखे तो मेरा मरा हुआ मुँह देखोगी।आज से तुम हमारे लिए और हम तुम्हारे लिए मर चुके हैं।" चार वर्ष पहले कहे तन्मय के अपने शब्द आज उसे तीर की तरह चुभ रहे थे जिनमें आज वह खुद को बुरी तरह लहूलुहान महसूस कर रहा था।
"कोई भला अपनी ही बहन से इस तरह का बर्ताव करता है! क्या कसूर था उसका? क्या अपनी इच्छा से करियर और जीवनसाथी चुनना इतना बड़ा अपराध है कि उम्रभर के लिए खून के रिश्ते को भी तिलांजलि दे डाली ! स्नेहा अपना आसमान ,अपनी उड़ान चाहती थी,और हम लोग सदियों पुरानी जंग लगी कैंची लेकर तैयार बैठे थे!"तन्मय का मन आज बुरी तरह खुद को कचोट रहा था।
"क्या हुआ भैया,कहाँ खो गए? अब क्या अस्पताल में ही रहने का इरादा है!घर चलिये मुझे माँ से भी मिलना है।"स्नेहा नें जोर डालते हुए कहा।
"स्नेहा नें कितनी सहजता से सब कुछ भुला दिया जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं,आज मैं इसके बड़प्पन के आगे खुद को बौना महसूस कर रहा हूँ।"तन्मय की अभी तक खुद से जंग जारी थी।शब्द कहीं अटक कर रह जाते थे।
अतीत के कड़वे अनुभव अभी भी घर के दरवाजे के आसपास हवा में तैर रहे थे।
घर पहुंचते ही सभी के कदम देहरी पर अचानक रुक गए।तभी तन्मय नें स्नेहा का हाथ पकड़ा उसकी आँखों से पश्चाताप आंसू बनकर प्रवाहित हो रहा था।देहरी के पार बचपन की स्मृतियां प्रतीक्षा कर रही थी।स्नेहा के आने से बीमार माँ का चेहरा भी खिल उठा।
"छुटकी,ये धागा बांधने में मेरी मदद नहीं करोगी?" तन्मय नें अपनी कलाई आगे करते हुए कहा।
"क्यूँ नहीं भैया,तरस गई हूँ इन कलाइयों के लिए।पिछले चार वर्षों से आपके नाम की राखी लिफाफे में रखती हूं पर पोस्ट करने की हिम्मत नहीं कर पाई।"लाल धागा बांधते हुए स्नेहा नें कहा।
"ये रक्षाबंधन मेरे लिए सबसे अनमोल है,हर बार भाई अपनी बहन को उपहार देता है लेकिन इस बार एक बहन नें अपने भाई को उम्रभर के लिए अनमोल रिश्ते का उपहार दिया।"तन्मय नें स्नेहा को गले लगाते हुए कहा।
"देखो न भैया,ये नन्ही सी परी कैसे खुश होकर देख रही है", स्नेहा नें चहकते हुए कहा।
कोई नाम सोचा आपने?"
"स्नेहा नाम कैसा रहेगा?"तन्मय नें पूछा।उसकी आँखों में आज ख़ुशी की चमक थी।
अल्पना नागर ©
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