सफ़र
'सफ़र' शब्द सुनते ही हमारे दिमाग में उत्साह व रोमांच की एक लहर दौड़ जाती है।किन्हीं स्वास्थ्य कारणों के अपवाद को छोड़कर शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसे सफ़र में आनंद नहीं आता।अभी ग्रीष्मावकाश में भी सभी नें कहीं न कहीं भ्रमण का आनंद अवश्य लिया होगा।सफ़र या यात्रा दृष्टि से अन्तर्दृष्टि तक का सफ़र है।सफ़र के दौरान हम बहुत से नवीन अनुभवों से होकर गुजरते हैं,हमारी अन्तर्दृष्टि उन अनुभवों को आत्मसात कर संपूर्ण यात्रा का विश्लेषण करती है जिसकी अमिट छाप हमारे अंतर्मन पर जीवन पर्यन्त रहती है।
सफर या 'घुमक्कड़ी' का इतिहास बहुत प्राचीन है।प्राचीन भारतीय इतिहास के स्वर्णिम गौरव को संपूर्ण विश्व के कोने कोने तक पहुंचाने का कार्य विदेशी सैलानियों नें किया।प्राचीन इतिहास की तरफ अगर गौर करें तो विदेशी दूत मेगस्थनीज का जिक्र जरूर आता है,जिसने भारत में अपनी यात्रा अनुभव व निवास के आधार पर 'इंडिका' पुस्तक लिखी,जिससे मौर्य वंश के सुनहरे इतिहास की दुर्लभ जानकारी मिली।अगला जिक्र आता है चीनी यात्री फाह्यान का।अनुमानतः वह चीनी यात्री 400 ईस्वी के करीब भारत आया।फाह्यान द्वारा लिखी किताब से हमें गुप्त वंश,बौद्ध धर्म व तत्कालीन समय में भारत चीन संबंधों की जानकारी प्राप्त होती है।फाह्यान की तरह चीनी यात्री ह्वेनसांग नें भी अपनी दुर्लभ पुस्तक 'सी-यू-की' में भारत यात्रा तथा हर्षकालीन भारत के बारे में बहुत सी जानकारियां प्रदान की है।
अरब यात्री अलबरूनी द्वारा रचित 'किताब उल हिन्द' को दक्षिण एशिया के इतिहास का प्रमुख स्रोत माना जाता है।वह वर्षों तक भारत में रुका था।इसी तरह मोरक्को निवासी इब्नबतूता का जिक्र किये बिना सफर पर लेख अधूरा ही रहेगा।उसने अपने जीवनकाल में लगभग 75000 मील की यात्रा की।1333 ईस्वी में सुल्तान मुहम्मद तुगलक के दरबार में आया था।यह उसकी विद्वता का गुण ही था जिससे सुलतान नें प्रभावित होकर काज़ी पद पर नियुक्त किया।इब्नबतूता नें प्रसिद्ध यात्रा वृतांत 'रिहाला' की रचना की,जिससे तत्कालीन भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत ही रोचक जानकारियां हासिल होती हैं।
यह प्राचीन देशी विदेशी यात्रियों की आंतरिक जिज्ञासा ही थी जिसने संपूर्ण विश्व को अमूल्य खोज व जानकारियां प्रदान की तथा विश्व इतिहास के एक नए युग की शुरुआत की।आधुनिक अमेरिका की खोज के पीछे वास्कोडिगामा का जिज्ञासु घुमक्कड़ स्वभाव था।उसने भारत की भी लगभग तीन बार यात्रा की।यहाँ तक कि भारत के एक राज्य गोवा के एक बड़े शहर का नाम वास्कोडिगामा ही है।
हिंदी साहित्य के दिग्गज़ जिन्हें 'महापंडित' की उपाधि से नवाजा गया था,श्री राहुल सांकृत्यायन बहुत बड़े यात्री के रूप में याद किये जाते हैं।वे अनेक भाषाओं के जानकार थे।कहते हैं गतिशीलता उनके लिए वृत्ति नहीं,धर्म था।उनके द्वारा की गई देश विदेश की यात्राओं नें हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान दिया।यात्राएं व यात्रा वृतांत हमें वर्तमान को सुधारकर भविष्य को संवारने की प्रेरणा प्रदान करती हैं।
यात्रा का जिक्र आते ही बचपन की रेल यात्राओं की स्मृतियां हरी हो जाती हैं।यात्रा स्वयं में रोचक होती है किंतु अगर यात्रा रेल द्वारा हो तो सफ़र का आनंद दुगुना हो जाता है।रेल से दादी ,नानी के घर तक का सफ़र और रास्ते में अचार परांठे की महक का डिब्बे भर में फ़ैल जाना,खिड़की वाली सीट पर बैठकर रास्ते का मुआयना और एक एक कर पेड़ों,बिजली के खम्बों, गांव,स्टेशन और रास्ते का छूटते जाना,किसे याद नहीं होगा!यादों के शहर होते ही ऐसे हैं,हम जीवन भर पता नहीं कितनी यात्राएं करते हैं,फिर भी बरसों बाद भी अगर हम यादों के शहर की खुदाई करते हैं तो पुरानी सभ्यताओं की तरह क़ीमती वस्तुएं निकलकर आती हैं,वो पुरानी गालियां जिनमें कभी बचपन दौड़ा करता था, फिरकी,पीपल का पेड़,पुराना बाजार,मोहल्ले,चोर सिपाही की पर्चियां,भूतों की कहानियां,चाय की थड़ियां,बीसियों चाचा,ताऊ ,हिचकोले खाती साइकिल सब कुछ एकदम ताज़ा रहता है,बस हमें उन यादों पर जमी हल्की सी धूल झाड़नी होती है।
जीवन भी एक यात्रा ही है।हम सभी एक ही रेल से जुड़े भिन्न भिन्न डिब्बों में सवार यात्री हैं।स्टेशन आते हैं,ट्रेन रूकती है,यात्री उतरते व चढ़ते हैं लेकिन यात्राएं अनवरत जारी रहती हैं।
ऐसा भी होता है,कई बार सफ़र ही इतना रोचक व ऊर्जा से भरपूर होता है कि मंज़िल आ जाने पर सारी ख़ुशी काफ़ूर हो जाती है,लगता है जैसे सफ़र को अभी और जारी रहना था,क्यों इतनी जल्दी मंज़िल आ गई !जीवन में रिश्ते भी कुछ इसी तरह बुने होते हैं।प्रेम जब तक होता है तब तक सब कुछ नया और उत्साह से भरपूर नजर आता है किन्तु जैसे ही प्रेम यात्रा की परिणीति विवाह में होती है,वही प्रेम बंधन लगने लगता है।वर्तमान में मुक्त विवाह,लिव इन रिलेशनशिप ,तलाक के बढ़ते हुए मुद्दे इस तरह की प्रवृतियों के उदाहरण हैं।वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति यात्रा का आनंद तो लेना चाहती है लेकिन मंज़िल पर पहुँच कर स्थिर नहीं होना चाहती।अगर विवाह को मंज़िल या ठहराव न समझकर एक खूबसूरत पड़ाव माना जाये तो यात्रा और भी सुखद हो सकती है।अक्सर हम विवाह के बाद शिथिल पड़ जाते हैं,एक उदासीनता हमारे जेहन पर हावी होने लगती है,वो पहले वाला 'चार्म' कहीं गायब होता नजर आता है।ये बात भी सत्य है कि स्थिरता मानव स्वभाव के विपरीत है अतः आवश्यक है कि विवाह के उपरान्त भी दोनों सहयात्री चलते रहें, एक दूसरे की भावनाओं को ध्यान में रखकर,स्व का विकास होने के लिए उचित 'स्पेस' देकर निरंतर चलते रहें ताकि शरीर और आत्मा बिना किसी अवरोध के विकसित होते रहें।
जीवन के अंतिम पड़ाव का सफ़र भी बहुत महत्वपूर्ण होता है।ये वो पड़ाव है जहाँ अधिकतर साथी एक एक कर हमारा साथ छोड़ते जाते हैं,तब सफ़र में हम नितांत अकेले पड़ जाते हैं किन्तु अगर इसे सकारात्मक तरीके से सोचा जाये तो उस अकेले सफ़र का भी अलग आनंद है,अब तक जीवन में हमें परिजनों व भीड़ से घिरे रहने की आदत थी,इन सब में खुद का साथ तो छूट ही जाता था,जीवन का अंतिम पड़ाव एक तरह का आशीर्वाद है स्वयं को जानने व स्वयं के साथ समय बिताने का।यह सफ़र दूसरों की सहानुभूति लेकर समय बर्बाद करने का नहीं है।जब कभी उम्र के इस पड़ाव पर खुद से दोस्ती होगी तो अपनी सोहबत का मर्म समझ आएगा।अकेला सफ़र कोई बीमारी या अवसाद का कारण नहीं अपितु आनंद की सुंदरतम स्थिति है,अध्यात्म की उच्चतम अवस्था।इसलिए अगर हम अंतिम सफ़र में आकर अकेले हो जाएं तो इसे खालीपन से बिल्कुल न भरें बल्कि खुद के साथ ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत करें,पंछियों का कलरव सुनें,खुद को साथ लें और निकल पड़ें सुबह शाम की सैर पर,किताबों से दोस्ती करें तो अंतिम सफ़र कभी भी बोझिल समय नहीं लगेगा,जीवन का हर लम्हा एक यादगार उत्सव बन जायेगा।
यहाँ राहुल सांकृत्यायन जी की एक उक्ति याद आ रही है "यायावर बनना है तो चलते रहो.....चरैवेति -चरैवेति...।" क्योंकि जीवन बहुत विशाल है,एक जगह अगर ठहर गए तो दूसरी बहुत सी जगहें छूट जाएंगी।
स्वरचित
अल्पना नागर ©
'सफ़र' शब्द सुनते ही हमारे दिमाग में उत्साह व रोमांच की एक लहर दौड़ जाती है।किन्हीं स्वास्थ्य कारणों के अपवाद को छोड़कर शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसे सफ़र में आनंद नहीं आता।अभी ग्रीष्मावकाश में भी सभी नें कहीं न कहीं भ्रमण का आनंद अवश्य लिया होगा।सफ़र या यात्रा दृष्टि से अन्तर्दृष्टि तक का सफ़र है।सफ़र के दौरान हम बहुत से नवीन अनुभवों से होकर गुजरते हैं,हमारी अन्तर्दृष्टि उन अनुभवों को आत्मसात कर संपूर्ण यात्रा का विश्लेषण करती है जिसकी अमिट छाप हमारे अंतर्मन पर जीवन पर्यन्त रहती है।
सफर या 'घुमक्कड़ी' का इतिहास बहुत प्राचीन है।प्राचीन भारतीय इतिहास के स्वर्णिम गौरव को संपूर्ण विश्व के कोने कोने तक पहुंचाने का कार्य विदेशी सैलानियों नें किया।प्राचीन इतिहास की तरफ अगर गौर करें तो विदेशी दूत मेगस्थनीज का जिक्र जरूर आता है,जिसने भारत में अपनी यात्रा अनुभव व निवास के आधार पर 'इंडिका' पुस्तक लिखी,जिससे मौर्य वंश के सुनहरे इतिहास की दुर्लभ जानकारी मिली।अगला जिक्र आता है चीनी यात्री फाह्यान का।अनुमानतः वह चीनी यात्री 400 ईस्वी के करीब भारत आया।फाह्यान द्वारा लिखी किताब से हमें गुप्त वंश,बौद्ध धर्म व तत्कालीन समय में भारत चीन संबंधों की जानकारी प्राप्त होती है।फाह्यान की तरह चीनी यात्री ह्वेनसांग नें भी अपनी दुर्लभ पुस्तक 'सी-यू-की' में भारत यात्रा तथा हर्षकालीन भारत के बारे में बहुत सी जानकारियां प्रदान की है।
अरब यात्री अलबरूनी द्वारा रचित 'किताब उल हिन्द' को दक्षिण एशिया के इतिहास का प्रमुख स्रोत माना जाता है।वह वर्षों तक भारत में रुका था।इसी तरह मोरक्को निवासी इब्नबतूता का जिक्र किये बिना सफर पर लेख अधूरा ही रहेगा।उसने अपने जीवनकाल में लगभग 75000 मील की यात्रा की।1333 ईस्वी में सुल्तान मुहम्मद तुगलक के दरबार में आया था।यह उसकी विद्वता का गुण ही था जिससे सुलतान नें प्रभावित होकर काज़ी पद पर नियुक्त किया।इब्नबतूता नें प्रसिद्ध यात्रा वृतांत 'रिहाला' की रचना की,जिससे तत्कालीन भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत ही रोचक जानकारियां हासिल होती हैं।
यह प्राचीन देशी विदेशी यात्रियों की आंतरिक जिज्ञासा ही थी जिसने संपूर्ण विश्व को अमूल्य खोज व जानकारियां प्रदान की तथा विश्व इतिहास के एक नए युग की शुरुआत की।आधुनिक अमेरिका की खोज के पीछे वास्कोडिगामा का जिज्ञासु घुमक्कड़ स्वभाव था।उसने भारत की भी लगभग तीन बार यात्रा की।यहाँ तक कि भारत के एक राज्य गोवा के एक बड़े शहर का नाम वास्कोडिगामा ही है।
हिंदी साहित्य के दिग्गज़ जिन्हें 'महापंडित' की उपाधि से नवाजा गया था,श्री राहुल सांकृत्यायन बहुत बड़े यात्री के रूप में याद किये जाते हैं।वे अनेक भाषाओं के जानकार थे।कहते हैं गतिशीलता उनके लिए वृत्ति नहीं,धर्म था।उनके द्वारा की गई देश विदेश की यात्राओं नें हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान दिया।यात्राएं व यात्रा वृतांत हमें वर्तमान को सुधारकर भविष्य को संवारने की प्रेरणा प्रदान करती हैं।
यात्रा का जिक्र आते ही बचपन की रेल यात्राओं की स्मृतियां हरी हो जाती हैं।यात्रा स्वयं में रोचक होती है किंतु अगर यात्रा रेल द्वारा हो तो सफ़र का आनंद दुगुना हो जाता है।रेल से दादी ,नानी के घर तक का सफ़र और रास्ते में अचार परांठे की महक का डिब्बे भर में फ़ैल जाना,खिड़की वाली सीट पर बैठकर रास्ते का मुआयना और एक एक कर पेड़ों,बिजली के खम्बों, गांव,स्टेशन और रास्ते का छूटते जाना,किसे याद नहीं होगा!यादों के शहर होते ही ऐसे हैं,हम जीवन भर पता नहीं कितनी यात्राएं करते हैं,फिर भी बरसों बाद भी अगर हम यादों के शहर की खुदाई करते हैं तो पुरानी सभ्यताओं की तरह क़ीमती वस्तुएं निकलकर आती हैं,वो पुरानी गालियां जिनमें कभी बचपन दौड़ा करता था, फिरकी,पीपल का पेड़,पुराना बाजार,मोहल्ले,चोर सिपाही की पर्चियां,भूतों की कहानियां,चाय की थड़ियां,बीसियों चाचा,ताऊ ,हिचकोले खाती साइकिल सब कुछ एकदम ताज़ा रहता है,बस हमें उन यादों पर जमी हल्की सी धूल झाड़नी होती है।
जीवन भी एक यात्रा ही है।हम सभी एक ही रेल से जुड़े भिन्न भिन्न डिब्बों में सवार यात्री हैं।स्टेशन आते हैं,ट्रेन रूकती है,यात्री उतरते व चढ़ते हैं लेकिन यात्राएं अनवरत जारी रहती हैं।
ऐसा भी होता है,कई बार सफ़र ही इतना रोचक व ऊर्जा से भरपूर होता है कि मंज़िल आ जाने पर सारी ख़ुशी काफ़ूर हो जाती है,लगता है जैसे सफ़र को अभी और जारी रहना था,क्यों इतनी जल्दी मंज़िल आ गई !जीवन में रिश्ते भी कुछ इसी तरह बुने होते हैं।प्रेम जब तक होता है तब तक सब कुछ नया और उत्साह से भरपूर नजर आता है किन्तु जैसे ही प्रेम यात्रा की परिणीति विवाह में होती है,वही प्रेम बंधन लगने लगता है।वर्तमान में मुक्त विवाह,लिव इन रिलेशनशिप ,तलाक के बढ़ते हुए मुद्दे इस तरह की प्रवृतियों के उदाहरण हैं।वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति यात्रा का आनंद तो लेना चाहती है लेकिन मंज़िल पर पहुँच कर स्थिर नहीं होना चाहती।अगर विवाह को मंज़िल या ठहराव न समझकर एक खूबसूरत पड़ाव माना जाये तो यात्रा और भी सुखद हो सकती है।अक्सर हम विवाह के बाद शिथिल पड़ जाते हैं,एक उदासीनता हमारे जेहन पर हावी होने लगती है,वो पहले वाला 'चार्म' कहीं गायब होता नजर आता है।ये बात भी सत्य है कि स्थिरता मानव स्वभाव के विपरीत है अतः आवश्यक है कि विवाह के उपरान्त भी दोनों सहयात्री चलते रहें, एक दूसरे की भावनाओं को ध्यान में रखकर,स्व का विकास होने के लिए उचित 'स्पेस' देकर निरंतर चलते रहें ताकि शरीर और आत्मा बिना किसी अवरोध के विकसित होते रहें।
जीवन के अंतिम पड़ाव का सफ़र भी बहुत महत्वपूर्ण होता है।ये वो पड़ाव है जहाँ अधिकतर साथी एक एक कर हमारा साथ छोड़ते जाते हैं,तब सफ़र में हम नितांत अकेले पड़ जाते हैं किन्तु अगर इसे सकारात्मक तरीके से सोचा जाये तो उस अकेले सफ़र का भी अलग आनंद है,अब तक जीवन में हमें परिजनों व भीड़ से घिरे रहने की आदत थी,इन सब में खुद का साथ तो छूट ही जाता था,जीवन का अंतिम पड़ाव एक तरह का आशीर्वाद है स्वयं को जानने व स्वयं के साथ समय बिताने का।यह सफ़र दूसरों की सहानुभूति लेकर समय बर्बाद करने का नहीं है।जब कभी उम्र के इस पड़ाव पर खुद से दोस्ती होगी तो अपनी सोहबत का मर्म समझ आएगा।अकेला सफ़र कोई बीमारी या अवसाद का कारण नहीं अपितु आनंद की सुंदरतम स्थिति है,अध्यात्म की उच्चतम अवस्था।इसलिए अगर हम अंतिम सफ़र में आकर अकेले हो जाएं तो इसे खालीपन से बिल्कुल न भरें बल्कि खुद के साथ ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत करें,पंछियों का कलरव सुनें,खुद को साथ लें और निकल पड़ें सुबह शाम की सैर पर,किताबों से दोस्ती करें तो अंतिम सफ़र कभी भी बोझिल समय नहीं लगेगा,जीवन का हर लम्हा एक यादगार उत्सव बन जायेगा।
यहाँ राहुल सांकृत्यायन जी की एक उक्ति याद आ रही है "यायावर बनना है तो चलते रहो.....चरैवेति -चरैवेति...।" क्योंकि जीवन बहुत विशाल है,एक जगह अगर ठहर गए तो दूसरी बहुत सी जगहें छूट जाएंगी।
स्वरचित
अल्पना नागर ©
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