Tuesday, 18 July 2017

डायरी -कविता

डायरी

बिखरे पड़े शब्द
और चाय की प्याली सी
उड़ेली गई भावनाएं,
बरसों तक महकती रही
उसकी रूह के भीतर तक,
वो संभालकर रखती गई
तारीख़ें और शब्द
एक एक कर
तह करके
किसी समझदार गृहिणी की तरह,
तुम भी,कहाँ छुपा पाए
स्याह गहरे राज़!
देर रात जब नींद के शहर में
होता था जमाना,
तुम हौले से खटखटाते थे
उसका द्वार,
फ़िर होती थी लंबी गुफ़्तगू
कभी तुम्हारे दर्द से भीग जाते थे
उसके पन्ने,
और फिर एक रोज़..
छोड़ आये तुम उसे
अँधेरे किसी कोने में
नितांत अकेले!
तुम्हें आगे बढ़ना था
तुम आगे बढ़े,
डिजिटल स्क्रीन पर दौड़ती हैं अब
तुम्हारी उंगलियां,
लेकिन सच बताना
क्या स्क्रीन का हर अक्षर
आँखों में उतर पाता है?
क्या स्क्रीन के पन्नों की आवाज़
कानों में फड़फड़ाती है?
क्या उसके पन्नों की महक
तुम्हारे फेंफडों को
आत्मीय गंध से भरती है?
नहीं न!
वो जानती है
स्क्रीन पर शब्द नाचते हैं
तुम्हारी आँखों के सामने,
एक पंक्ति से दूसरी तक आते आते
शब्द फिसल कर गिरने लगते हैं
दिमाग की नसें करने लगती हैं
बगावत !
डेस्क पर लगी
कॉफ़ी मग की कतार
बयां करती है तुम्हारी बेचैनी को,
लेकिन,
डिजिटल स्क्रीन और उसका
क्या मुकाबला!!
कहाँ वो एकदम साधारण,
और कहाँ वो तेज तर्रार
डिजिटल युग की अल्ट्रा मॉडर्न !!
लेकिन फिर भी
वो इंतज़ार करती है,
उसे सरोकार है तुम्हारी
तमाम खुशियों और उदासियों से
डायरी है वो
सब जानती है...

अल्पना नागर








No comments:

Post a Comment