Sunday, 23 July 2017

एक नदी की शल्य चिकित्सा -कविता

एक नदी की शल्यचिकित्सा

हटो हटो
यहाँ की जा रही है
शल्यचिकित्सा !
बड़े ही धीर गंभीर
चिकित्सकों द्वारा
कागजों पर
शल्यचिकित्सा!
मर्ज भी तो खास है
हुआ इक नदी को
हृदयाघात है !
नदी को हृदयाघात !!
ये क्या नया बवाल है?
भई ये कैसा गोलमाल है!
देह में क्या फैला हुआ
धमनियों का जाल है?
सांस तो 'हम' लेते हैं,
चलते हैं फिरते हैं गाते हैं,
दमखम को अपने
दुनिया को दिखलाते हैं,
नदी क्या कोई इंसान है!
सुन न पाई नदी और कुछ,
आखिर में वो
बोल पड़ी-
"भारत माँ की हथेली पर
मैं इक जीवनरेखा हूँ
मुझमे भी हैं प्राण तत्व,
किये गए सारे पापों का
मैं तो बस एक लेखा हूँ!
तुम मानों या न मानों
मैं नदी नहीं इंसान हूँ
सहन करूँ कुकर्म तुम्हारे
और भला अपमान क्यूँ?
मैं भी गाती सबको सुनाती
सदियों पुरानी अपनी गाथा
नदी नहीं कहते थे मुझको
तब मैं थी तुम सबकी माता
बढ़ता गया तुम्हारा लालच
बांध बनाकर बाँध दिया
खून की हर बूँद निकाली
मरणासन्न कर छोड़ दिया !
मचा हुआ कोहराम है
मुँह में छुरी और बगल में
बैठे हुए ज्यों राम है,
ड्रामे में आया है बंधु
नया नया इक मोड़
फूंक दिए भई देखो कैसे
बीस हजार करोड़ !!
निकाल न पाए फिर भी अपने
कुकर्मों का कूड़ा !
कर न पाए मेरी चिकित्सा
किया तनिक भी नहीं विचार
फलतः 'ब्लॉकेज' हुए हजार!
मेरी सारी छोटी बहनें
हुई आज हैं स्वर्गवासिनी
मैं भी हो जाऊंगी इक दिन
सरस्वती निजलोक गामिनी !
मेरा यही सवाल है
अब क्यों तुम्हें मलाल है
मानों या न मानों तुम
है मेरा अपना अस्तित्व,
भारत माँ की वृहत देह में
धमनियों का जाल है !
मुझसे प्राण प्रवाहित होकर
तुम तक श्वास है आता,
नदी नहीं हूँ महज एक मैं
सबकी हूँ भई माता !
चाहते हो गर अपनी रक्षा
करो चिकित्सा अपनी तुम
निज मस्तिष्क की कर लो बेटा
अब तो जरा सफाई तुम !!


स्वरचित
अल्पना नागर©


ज्ञातव्य है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नदियों को जीवित व्यक्ति की संज्ञा दी गई है।बहरहाल संपूर्ण देश में नदियों का जलस्तर तेजी के साथ घट रहा है। 'देवभूमि' उत्तराखंड जहाँ सैंकड़ों नदियां कलकल करती थी,आज लगभग 300 नदियां लुप्त हो चुकी हैं।रचना में मनुष्य द्वारा बेहिसाब जल दोहन,दूषित राजनीति,प्रदूषण आदि को इंगित किया गया है।प्रस्तुत रचना का कोई राजनितिक उद्देश्य नहीं है।

4 comments:

  1. आदरणीया मैम, बहुत ही सुंदर व अतीक रचना। सच है हम ने अपनी अभी नदियों पर बहुत अत्याचार किये हैं। हम उन्हें माता कहते तो हैं पर शायद मानते नहीं हैं।
    उनकी आरती गा कर और उनमें फूल बहा कर खहूब ढोंग रचाते हैं पर उन्हें स्वच्छ रख कर अपना कर्तव्य नहीं निभाते।सुंदर व अत्यंत सटीक रचना के लिए हृदय से आभार।

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  2. सुन्दर रचना

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  3. आह ! आर्तनाद एक जलधारा का ! काश स्वार्थी मानव इसे सुन पाता ?

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