अहंकार
महावीर स्वामी के शब्दों में-
"जिसे खुद का अभिमान नहीं,रूप का अभिमान नहीं,लाभ का अभिमान नहीं,ज्ञान का अभिमान नहीं,जो सर्व प्रकार से अभिमान को छोड़ चुका है,वही संत है।"
बिल्कुल सत्य है,संत कहलाने के लिए अभिमान का पूर्णतः परित्याग करना होता है,किंतु ये अभिमान है क्या? स्वयं के प्रति अतिशय लगाव,अपने विचारों प्रति पूर्वाग्रह,दूसरों के व्यक्तित्व को अनदेखा करना अहंकार के ही विभिन्न रूप हैं।'मैं' सबसे बड़ा हूँ,'मैं' सबसे सुंदर हूँ,'मैं' ही सबसे योग्य हूँ, 'मेरी' योग्यता से सबको ईर्ष्या होती है,जैसे भाव अहंकार की उपस्थिति को दर्शाते हैं।यहाँ पर हमने देखा कि हर एक भाव के साथ 'मैं' जुड़ा हुआ है,यही 'मैं' अहम् भाव है,जिससे मुक्ति के लिए सहअस्तित्व के सिद्धान्त को समझना व स्वीकार करना आवश्यक है।अगर हम समझें कि संसार में सभी प्राणियों का अस्तित्व महत्वपूर्ण है एवं हमारे विकास में इन सभी जीवों का महत्वपूर्ण योगदान है,तो कृतज्ञता का भाव स्वतः आएगा, व 'अहम्' या 'मैं' भाव कहीं पीछे छूट जायेगा।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अगर देखें तो विभिन्न शक्तिशाली देशों द्वारा सदियों तक अपनी सुविधा के लिए निःशक्त या राजनीतिक दृष्टि से कमजोर राष्ट्रों को उपनिवेश बनाना,उनका आर्थिक शोषण करना,गुलाम बनाना,नस्लभेद करना आदि भी अहंकार के व्यापक रूप ही हैं।
हमारी दैनिक जिंदगी में भी बहुत से व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके ज्ञान की कोई सीमा नहीं।पीएच.डी और डी.लिट. से लेकर कई महत्वपूर्ण डिग्रियां उनकी झोली में होती हैं,सभी जानते हैं,मानते हैं लेकिन वो स्वयं कभी नही जताते और न ही अपने नाम के आगे डॉक्टर कहलाना पसंद करते हैं।यह उनके व्यक्तित्व की सादगी है।बहुत से व्यक्ति ऐसे भी हैं जो चंद महीनों का योग कोर्स या रेकी कोर्स करके ,एक्यूप्रेशर आदि कोर्स की डिग्रियां लेकर स्वयं को बड़ी ही शान के साथ डॉक्टर कहलाना पसंद करते हैं,यह अभिमान ही तो है! इसी तरह बहुत से लोग ऐसे हैं जो शीत ऋतु में किसी भी सरकारी विद्यालय में पहुंचकर सस्ते या हल्के किस्म के स्वेटर वितरित करते हैं बाकायदा अगले दिन उनकी बच्चों के साथ अखबार में फोटो भी प्रकाशित होती है! कई बार ग्रीष्म ऋतु में पंछियों के लिए परिंडे आदि लगवाते हैं,यहाँ भी उनका काम परिंडों के साथ अख़बार में उनके नाम के साथ प्रकाशित किया जाता है ! अख़बारों की तरह तरह की कटिंग्स अपने सभी परिचितों को दिखाने के लिए मेहमानकक्ष में किसी ट्रॉफी की भाँति रखी जाती है। इस तरह के विभिन्न कार्यों के लिए अंततः उन्हें सामाजिक सम्मान हेतु चयनित किया जाता है।यहाँ मेरा उद्देश्य सामाजिक कार्यों की आलोचना करना कतई नहीं है किंतु इन उदाहरणों के माध्यम से हमारे भीतर छुपे अहंकार का आत्मावलोकन करना है,क्या सचमुच अधिकांशतः हमारा उद्देश्य समाज सेवा ही होता है या स्वयं के अहम् की तुष्टिकरण !!
अहंकार मानवजनित एक मनोविकार है जिसकी उपस्थिति मात्र से हमारी समस्त आंतरिक व बाह्य गतिविधियां प्रभावित होती हैं।अहंकार का आगमन तब होता है जब हम स्वयं को जान पाने में असमर्थ होते हैं अतः यह एक तरह का अज्ञान है।जिस क्षण हमें आत्मानुभूति या आत्मज्ञान होता है, अहंकार भी उसी क्षण विलुप्त हो जाता है जैसे सूर्य की किरण आने पर कोहरा छंट जाता है।हम सभी में न्यून या अधिक मात्रा में अहंकार होता है,आवश्यकता है उसका अवलोकन करने की,मन की अंतर्तम गहराइयों में उतरकर विद्यमान अहंकार रूपी अंधकार को पहचानने की ताकि हम आगामी कार्यों व व्यवहार से प्रकाश का एक दीया जला सकें।समस्त अंधकार को पराजित करने के लिए दीपक की छोटी सी लौ ही पर्याप्त है,इसी तरह अहंकार को पराजित करने के लिए सर्वप्रथम उसके स्त्रोत व पोषक तत्व की पहचान करना आवश्यक है,ताकि ज्ञान के प्रकाश का आगमन हो।हमारे दैनिक जीवन में अनगिनत ऐसे कार्य होते हैं जहाँ हम न चाहते हुए भी अहंकार के घेरे में आ जाते हैं।कई बार हम अपने मित्रों से किन्हीं कारणों को लेकर बातचीत रोक देते हैं,संवादहीनता की स्थिति दीर्घकाल तक चलने से एक ऐसा रिक्त स्थान बन जाता है जिसे भविष्य में भर पाना असंभव प्रतीत होता है,बहुत बार ऐसा होता है जब हमारा आंतरिक मन पुरानी बातों को विस्मृत कर उस व्यक्ति विशेष से संवाद के लिए प्रेरित करता है लेकिन उसी क्षण 'कोई' है जो हमें ऐसा करने से रोकता है,ये अहंकार ही है।यदि हम अपने आसपास नजर दौड़ाये तो पता चलता है कि कई बार छोटे बच्चों के आपसी झगड़े में माता पिता या बड़े लोग भी शामिल हो जाते हैं,आपसी संवाद व व्यवहार रोक दिया जाता है,झगड़ा लंबे समय तक रबर की भांति खिंचता चला जाता है ये अहंकार नहीं तो और क्या है!! जबकि कमाल की बात है बच्चे अगले कुछ क्षण में ही झगड़े की बात को पूर्णतः भूल जाते है व पुनः मित्र बन जाते हैं।यहाँ ध्यान देने वाली बात है बच्चों में अहंकार नहीं होता है,उनका मन निर्मल होता है,तो क्यों नहीं हम भी बच्चों जैसे बनें!हम बार बार क्यूँ विस्मृत कर जाते हैं कि इस अनंत ब्रह्मांड में जहाँ अनगिनत ग्रह, नक्षत्र,तारे उपस्थित हैं,पृथ्वी से कई गुना बड़े ग्रहों की मौजूदगी है,वहाँ हमारा अस्तित्व समंदर में बूँद जितना भी नहीं है,फिर ये अहंकार कैसा!हम अपनी उम्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा सिर्फ आपसी प्रतिस्पर्धा करने,द्वेष व अहंकार के साथ ही व्यतीत कर देते हैं,जो धीरे धीरे न सिर्फ शरीर अपितु हमारी आंतरिक शक्ति को भी खोखला कर देता है,और अंत में हमारे पास पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं बचता।
अहंकार के कुछ लक्षण हैं जिनका अवलोकन हम स्वयं कर सकते हैं-
•क्या हमें किसी के द्वारा की जा रही आलोचना से फर्क पड़ता है? आलोचना या हम पर उठाया कोई प्रश्न बेताल की तरह दिनभर हमसे चिपका हुआ रहता है?
•क्या हम किसी की भी सहायता लेते समय कतराते हैं?
•क्या हम अपने हर विचार,सिद्धांत पर दूसरों की प्रशंसा की मुहर चाहते हैं?
•क्या हम सदैव दूसरों से तुलना करने या बेहतर दिखने के प्रयास में लगे रहते हैं?
•क्या हम सदैव अधिक से अधिक उपभोग का सामान जुटाने को लालायित रहते हैं,दुनिया की कोई भी वस्तु हमें संतुष्ट नहीं कर पाती?
•क्या हम हर क्षेत्र में बढ़ चढ़कर स्वयं के ज्ञान का प्रदर्शन करने की कोशिश में लगे रहते हैं चाहे वो कला,विज्ञान, संस्कृति,राजनीति या इतिहास कोई भी क्षेत्र हो?
•क्या हम अपने से कम सामाजिक प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति से ज्यादा संपर्क रखना जरुरी नहीं समझते और अपने से अधिक प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक महत्व प्रदान करते हैं?
•किसी भी अप्रिय बात को लेकर हम लंबे समय तक व्यक्ति विशेष को क्षमा नहीं कर पाते?
अगर हां,तो हम निश्चित रूप से अहंकार के दायरे में आ चुके हैं।
कुछ ध्यान देने योग्य बातें हैं जिनसे हम अंहकार को अपने से दूर कर सकते हैं।हमारी आलोचना होने पर विचलित होने की बजाय उस व्यक्ति को धन्यवाद ज्ञापित करें,कमियों की तरफ संकेत करके उस व्यक्ति नें भलाई का ही कार्य किया है,अब हम स्वयं में अपेक्षित सुधार कर सकते हैं।
कभी भी किसी की सहायता लेने से हमारी प्रतिष्ठा धूमिल नहीं होती,या हमारा कद लघु नहीं हो जाता अपितु सहायता लेने से हम कृतज्ञ बनते हैं।हम कोई मशीन तो हैं नहीं जिसे कभी किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं होगी!
हमेशा अपने कार्यों के लिए दूसरों से प्रशंसा सुनने को आतुर रहना भी अहंकार की निशानी है।ऐसा करके हम स्वयं का नुकसान करते है, हमारी सीखने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है व हम सर्वथा अज्ञानी ही बने रहते हैं।
दूसरों से तुलना करना या बेहतर दिखने का प्रयास आत्मघाती ही साबित होता है,हमारे अंदर शनैः शनैः नकारात्मक विचारों व प्रतिस्पर्धा का भाव विद्यमान रहने लगता है।हमारा महत्वपूर्ण समय,संसाधन व ऊर्जा का नाश होने लगता है।
जीवन पर्यन्त हम भौतिक सुख सुविधा को अधिक से अधिक जुटाने का प्रयास करने में लगे रहते हैं,इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में हम जीवन का असली आनंद तो भूल ही जाते हैं,संतुष्टि का भाव कभी आ ही नहीं पाता।जबकि जीवन में सब कुछ अस्थाई है।
ज्ञानी व्यक्ति कभी भी अकारण अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन नहीं करते।प्रदर्शन लघुता की निशानी है।इसका मतलब यह नहीं है कि हम कभी स्वयं के उज्ज्वल पक्ष को उजागर करने का प्रयास ही न करें,बल्कि अपने विचारों को विभिन्न तर्कों के माध्यम से दूसरों पर थोपने से बचें।
व्यक्ति पद में छोटा है या बड़ा इस बात से उसके व्यक्तित्व का आंकलन या उसे अनदेखा करना गलत है।पद प्रतिष्ठा मानसिक स्थिति से अधिक कुछ नहीं है।
इसी तरह कई बार हम किसी अप्रिय बात को लेकर किसी व्यक्ति को क्षमा नहीं कर पाते।क्षमा करना उदारता का कार्य है,किसी को क्षमा करके हम स्वयं का ही भला करते हैं,हमारे मन पर रखा हुआ एक बड़ा बोझ हमसे उतर जाता है।हम जानते हैं कि समस्त ब्रह्मांड कार्य,कारण व प्रतिक्रिया के सिद्धान्त पर चलता है।कोई भी घटना अकारण नहीं होती,चाहे वह अप्रिय ही क्यों न हो! आनंदमयी माँ के शब्दों में "जो कुछ भी होता है,दिव्य की इच्छा के रूप में होता है।ईश्वर इस ब्रह्मांड के प्रत्येक अंश का अदृश्य नियंत्रक है।" इसका मतलब अगर हम अपने अहंकारवश किसी को क्षमा नहीं कर पा रहे हैं तो हम साफ़ तौर पर ईश्वर को क्षमा नहीं कर पा रहे क्योंकि सब कुछ उसी की इच्छा से व हमारे शुद्धिकरण के लिए घटित हुआ है।
इसके अतिरिक्त हम किसी की गलती के बारे में शिकायत करने से अच्छा उसे ठीक करने का सुझाव दें व अच्छा कार्य करने पर प्रशंसा से कभी न चूकें।आदतें परिवर्तित होने पर अहंकार का भाव स्वतः विसर्जित हो जाएगा।
अंत में रस्किन जी की एक उक्ति याद आ रही है
"सभी महान भूलों की नींव में अहंकार ही होता है।"
किसी भी तरह की भूल से बचा जा सकता है अगर अहंकार का भाव मन में लाया ही न जाये।ये महान भूलें ही हैं जिन्होंने संपूर्ण विश्व का नक्शा बदल दिया।विश्व युद्धों का जन्म,विभिन्न राष्ट्रों द्वारा अपनी नस्ल व जाति को ही श्रेष्ठ बताना अहंकार ही है जिसने पतन की ओर अग्रसर किया।हिटलर द्वारा यहूदियों पर किये रूह को कँपा देने वाले अत्याचार कौन भूल सकता है! इस तरह की सनक भरी भूलों से हमारा इतिहास भरा हुआ है।वर्तमान में भी इस्लामिक देशों द्वारा गैर इस्लामिक देशों पर हमले,अपने धर्म को श्रेष्ठ मानकर आतंक आदि को बढ़ावा देना सर्वश्रेष्ठ होने का मिथ्या अभिमान है,जिसका नुकसान समस्त मानव प्रजाति को उठाना पड़ रहा है।अहंकार एक व्याधि है जिससे शीघ्रातिशीघ्र मुक्त होना ही मानवता के लिए औषधि है।
अल्पना नागर ©
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