Saturday 7 November 2020

आकाश

 आकाश


(1)◆

दूर तक फैला राख का समंदर

आकाश किसी धूणी रमाये अघोरी सा

खड़ा है एक टांग पर

बरसों से...!


(2)◆◆

इन दिनों 

हैरान है आकाश

अपने साँवले अधरों पर/

जैसे पीता हो 

दिन की तीस सिगरेट

सब कुछ धुआँ करने को..!


(3)◆◆◆

आकाश के दामन में हैं

ढेरों पुलिंदे 

शिकायतों के..

कोई धुँधला परदा है बीच में कि

नहीं पहुंचती कोई प्रार्थना ठीक से/

आकाश किससे कहे

उसका दम घुटता है..!!


(4)◆◆◆◆

धुआँ चाहे बारूद का हो या

हो निजी स्वार्थों का..

आकाश झेलता है/

वो जमकर बरसता है

हालातों पर..

उसे भी जिद है

रोज नया सूरज उगाने की..!


(5)◆◆◆◆◆

जब छूटने लगती है

हाथों से डोर/

आकाश सिमट कर

आ जाता है

मन के आँगन में

किसी नीली पतंग सा

हौले हौले..!


(6)◆◆◆◆◆◆

बालकनी भर दुनिया में

आकाश की उपस्थिति

जैसे होना किसी मित्र का

स्थाई रूप से/

मन की टेबल पर

मूक संवाद और

एक निस्सीम भाव

चाय के प्याले में उतरते जाना

किसी हमख़याल सा..!


(7)◆◆◆◆◆◆◆

उसे पता है

शून्य होकर भी

हुआ जा सकता है

निस्सीम..!


(8)◆◆◆◆◆◆◆◆

वो उसकी एक मुस्कान पर

बिछा देता है

खुद को/

जमीं हँसती है

आकाश सजदा करता है..!

क्षितिज पर रचती है

कत्थई मेहंदी..!


-अल्पना नागर



Sunday 1 November 2020

लौट आना

 लौट आना


जाने से पहले

लौट आना 

जैसे लौटती है कविता

कवि के पास

दुनियाभर की घुमक्कड़ी के बाद


वैसे ही जैसे लौटती है

हर जाती हुई सांस

जिस्म के पिंजरे में हर बार

उड़ती हुई राख पे खिलते फूलों से होकर

नदियों की शिराओं तक/

शिराओं में प्रवाहित होते जीवन से लेकर

पुनः राख बन बहने तक

लौट आना..


जाने से पहले 

देखना एक बार मुड़कर

पहली बार स्कूल जाते बच्चे की तरह

कि लौटना हर बार/

बाहों में आकाश लिए

परिंदे की तरह उड़ान भरे


जाने से पहले 

सौंपते जाना अपना सर्वस्व

जैसे सौंप के जाता है दिन

अपनी उमंगे और ऊर्जा

रात की संदूकची को

चाँद तारों से भरकर..

पुनः पुनः लौट आने को !


-अल्पना नागर




कहानी- वेदना

 कहानी

वेदना


"बेटा, एक बार बात तो कर लो।मैं कब से फोन किये जा रही हूँ, सिर्फ एक बार इस अभागिन की बात सुन लो ! फिर चाहे जो सजा देनी हो,दे देना।" फोन के दूसरी ओर एक काँपते पत्ते सी आवाज फड़फड़ा रही थी।

"आपसे कितनी बार कहा है..यहाँ फोन मत किया करो।कितने नम्बर ब्लॉक करूँ,हर बार पता नहीं कहाँ कहाँ से फोन करती रहती हो!"खट्ट से फोन कटने की आवाज आयी।

उंगली का नाखून जब कटकर गिरता है तो दर्द नहीं होता,वो स्वेच्छा से काटा जाता है।सभ्य समाज में रहना है तो नाखून कटे होना पहली शर्त है।एक प्राकृतिक क्रिया बिना किसी दर्द या वेदना के।अपने बच्चों को अलग करना भी कुछ ऐसा ही है।दूर किसी अच्छी जगह अध्ययन के लिए अपनी संतान को भेजना सभ्यता की ओर पहला कदम..समाज की दृष्टि में!

लेकिन नाखून अगर स्वेच्छा से ही जड़ से निकाल कर अलग कर दिया जाए तो..उफ्फ कल्पना मात्र से ही पूरे शरीर में एक झुरझुरी दौड़ पड़ी..है न!असहनीय वेदना !

हाँ.. मैनें अपने ही हाथों अपनी उंगलियों के नाखून नोच डाले।अब आप सोच रहे होंगे कि भला कोई अपने आप से ऐसा क्यों करेगा!इस तरह की यातना स्वयं को क्यों देगा!

आज से बीस वर्ष पूर्व मेरी गोद में वो आयी।रुई के गोले सी सफेद झक्क मुलायम मेरी बच्ची..देखते ही मैं अपनी सारी प्रसव वेदना भूल बैठी।बस मातृत्व की धारा पूरे बदन में हिलोरें मार रही थी।मैं सोते जागते हर वक्त बस उसे निहारती रहती।रात सोते वक्त उसका मासूम चेहरा दैवीय जान पड़ता था,मैं हर क्षण सतर्क रहती कहीं मेरी वजह से नन्हीं जान को कोई तकलीफ न हो।उसे जन्म देकर मैं पूर्ण हो गई थी।एक नया जन्म..स्वयं मेरा !

"ये इतनी प्यारी है..इसे तो मैं ही रखूँगी अपने पास..।"हसरत से निहारती दीदी नें गोद में उसे दुलारते हुए कहा।

"अरे दीदी..मेरे कलेजे का टुकड़ा है ये..इसे तो मैं नहीं दूँगी।मेरे पास ही रहेगी मेरी राजकुमारी।" बात को गंभीरता से लेते हुए मैनें कहा।

दीदी पंद्रह वर्ष के विवाह पश्चात भी निःसंतान के दंश को झेल रही थी।मैं उनकी भावना समझ रही थी लेकिन मेरी भावना का क्या..! एक नई नवेली माँ को उसका पहला बच्चा कितना प्यारा होता है ये बताने की जरूरत नहीं।एक माँ अपने ही अंदर के एक टुकड़े को नया जीवन देती है।वो टुकड़े के जरिये स्वयं का विस्तार कर रही होती है।और संतान अगर लड़की है तो एक माँ हमेशा के लिए 'जीवित' हो जाती है।उसकी आदतें,गुण,संवेदनशीलता और स्त्रीत्व सब उसमें स्थानांतरित हो जाते हैं।एक माँ के लिए इससे बढ़कर सुकून और क्या हो सकता है।सच कहूँ तो मैं उस वक्त बहुत ज्यादा स्वार्थी हो गई थी।मैनें ये भी नहीं देखा कि दीदी का खिला हुआ चेहरा मेरे जरा से वक्तव्य से कितना आहत हुआ..एकदम से मुरझा गई थी वो।पर मैं क्या करती मुझ पर उस वक्त एक माँ हावी थी जिसके लिए उसकी संतान ही सब कुछ थी।

वक्त नें शायद मेरी बेरुखी को पहचानकर मुझे जोरदार चांटा जड़ा।उसे मंजूर ही नहीं था कि मैं मातृत्व के उस अलौकिक सुख को ज्यादा देर अनुभूत कर सकूं।उसे देख देखकर दिन जैसे पंख लगाकर उड़ रहे थे।वो मुश्किल से साल भर की हुई कि एक खबर नें मुझे हिला कर रख दिया।काली खांसी का दौरा मेरे जीवन को किस कदर काला स्याह कर देगा मैनें सोचा तक न था।दिन रात मेरे कलेजे से उठती असहनीय वेदना और निरन्तर खांसी के दौरे नें घर की नींव हिला दी।बहुत तरह के वैद्य हक़ीम और डॉक्टर से परामर्श लिया किन्तु कोई फायदा नहीं..खांसी जैसे मेरे अंतस में डेरा डाल के बैठ गई।वो जैसे कीमत मांग रही थी अपनी सबसे बेशकीमती चीज़ से खुद को जुदा करने की!मैं किसी दीमक लगे विशाल पेड़ की तरह किसी भी क्षण गिरने वाली अवस्था में स्वयं को महसूस कर रही थी।मेरे सपने में अक्सर एक काला साया उठता हुआ दिखता वो जब भी आता मेरी फूल सी कोमल बच्ची को अपनी मजबूत भुजाओं में उठाकर धुआँ बन अदृश्य हो जाता, सुबह उठकर मैं पसीने पसीने हो उठती।पास लेटी बच्ची को सुकून से सोया देखकर भी मन में उस काले साये की दस्तक सुनाई देती थी।

काली खांसी का उस वक्त कोई पुख्ता इलाज न था।मुझे संक्रमण की चिंता सताने लगी।मुझे काला साया अब मेरे बेहद नजदीक बैठा दिखाई देने लगा।मुझे लगा मैं शायद अपना दिमागी संतुलन खोने लगी हूँ।मैं हवा में ही अदृश्य रूप से उस हावी होते साये पर अपने हाथ पांव मारने लगती।मेरा परिवार ये सब देखकर सकते में आ जाता।कोई भी अगर मेरी स्थिति देखता तो शायद यही प्रतिक्रिया देता।

बिगड़े दिमागी संतुलन में भी मुझे ख़याल आया कि मुझे अपनी बच्ची की उस काले साये से हिफाजत करनी है किसी भी हाल में।मैं अपने आप से लड़ रही थी,समय की सख्त नुकीली सुइयां जो भाला बनकर मेरी बच्ची की ओर निशाना साधे थी,मैं स्वयं को उनके आगे देख पा रही थी।सुइयों की चुभन मुझे इतना परेशान नहीं करती थी जितना ये ख़याल कि मेरे न होने पर यही नश्तर मेरी बच्ची को चुभे तो !

आनन फानन में मैं एक फैसला ले चुकी थी।एक बहुत बड़ा पत्थर मुझे अपने कलेजे पर महसूस हो रहा था।टेलीफोन पर नम्बर डायल करते मेरे हाथ बुरी तरह काँप रहे थे।

"दीदी आप प्लीज जल्दी आ जाओ..।"

बोलते हुए मेरे शब्द मुझसे ही टकरा रहे थे।

दीदी के हाथों में मेरी बच्ची खिलखिलाते किसी झरने सी दिखाई दे रही थी।मुझे संतुष्टि थी कि मेरा फैसला गलत हाथों में नहीं है।मैं अपनी जान उसे सुपुर्द करने वाली थी जो इसकी हिफाज़त जान से भी बढ़कर करना जानती हो।दीदी पर मुझे भरोसा था।

मैं अपनी बच्ची को दूर ले जाते हुए देख रही थी।जाते हुए दीदी की पीठ पर चिपकी उसकी मासूम आँखें आज भी मेरा पीछा करती हैं।उन मासूम आँखों में भरे तात्कालिक आँसू स्थानांतरित होकर मेरी आँखों में हमेशा के लिए ठहर गए।दीदी नें उसका पालन पोषण बहुत अच्छे से किया।वो नाजों से पली बढ़ी।मेरी गोद भरकर भी सूनी ही रही,ये कैसी नियति थी!

क्रूर वक्त नें करवट ली।मेरे असाध्य रोग नें जैसे कीमत चुकता होते ही अपनी जकड़ ढीली कर दी।वो काला साया सचमुच मेरी बच्ची को हमेशा के लिए लेकर चला गया।समय के साथ मैं स्वस्थ होती गई।बच्ची परिपक्व सुंदर युवती में तब्दील हो गई।उसे पुनः पाने के समस्त प्रयास वैसे ही विफल हो गए थे जैसे आत्मा गिरवी रखने के बाद बचा हुआ शरीर! 

बीस वर्ष पूर्व जिस स्वार्थमयी माँ का किरदार मैं निभा रही थी उसी किरदार में आज दीदी को देख रही थी।उन्होंने बेटी को हमेशा हमेशा के लिए पाने के लिए मेरे विषय में जो कुछ भी कहा उससे उन दोनों के बीच का संबंध तो प्रगाढ़ हुआ किन्तु मेरे और बिटिया के बीच गहरी खाई जितनी दूरियां पैदा हो गई जहाँ से दूर रहकर किनारे से लाख आवाज दो किसी प्रत्युत्तर की कोई संभावना न थी,खाई को पारकर नजदीक जाना तो बहुत दूर की बात थी।उसे कहा गया कि मैनें उसे बेटे की चाहत में जानबूझ कर त्याग दिया।दीदी की आँखों में झाँककर देखा,उनमें 'पश्चाताप' की भावना के साथ एक असहाय माँ भी झलक रही थी।सच है जन्म के एक वर्ष बाद से ही वो उसपर अपना सर्वस्व वारकर जी जान से उसका ख़याल रख रही थी।सही मायनों में वही उसकी 'यशोदा' माँ थी।किन्तु जिसे जन्म दिया उसकी आँखों में मेरे लिए नफरत के अंगार नहीं देख पा रही थी।लग रहा था कि एक दिन ये उपेक्षित अंगारे मुझे भस्म कर देंगे।मेरी आत्मा को रोज उनमें स्वाहा होते देखना कितना दुष्कर कार्य था ये बात शायद मेरे अलावा कोई नहीं समझ सकता।

मुझे आज भी याद है वो दिन जब दीदी नें एक कार्यक्रम का आयोजन किया था,मुझे बेमन से ही सही उसमें उपस्थित होने के लिए औपचारिक निमंत्रण दिया था।मैं बेटी की एक झलक देखने की ललक में किसी अदृश्य डोर के सहारे खींची चली आयी।मुझे देखकर दीदी के चेहरे पर उड़ती हवाइयां उनके अंदरूनी हाल बयां कर रहे थे।खैर मुझे उनसे कोई गिला नहीं था।मेरी नजरें उसी मासूम पौधे को ढूंढ रही थी,जो मेरे अंदर हर रोज पनप रहा था,जिसे अपने आत्मीय वात्सल्य के जल से मैनें हर रोज सिंचित किया था,उसकी सलामती और खैर की दुआएं पढ़ी थी।लेकिन मैं इतना भी जानती थी कि पौधा अब खूबसूरत वृक्ष में तब्दील हो चुका होगा,जिसे सिर्फ देखभाल करने वाले दृश्यमान माली की ही परवाह होगी न कि प्रार्थना से सींचने वाले अदृश्य जल की!

अपने बीसवें जन्मदिन पर वो जब तैयार होकर सबके सामने आयी, किसी स्वप्निल राजकुमारी सी लग रही थी,सब अपलक बस उसे निहारते रह गए।वो हूबहू अपने पिता की तरह तेजस्विनी थी।मैं मेहमानों की भीड़ में पीछे से उसे निहार रही थी।ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रही थी कि इस दिन से मुझे नवाजा।मेरी बेटी को कुशल हाथों नें संवारा।

सहसा उसकी निगाह मुझपर पड़ी।वो शायद किसी पुरानी तस्वीर से मुझे पहचान गई थी।अपना खून था,कैसे नहीं पहचानता!मेहमानों की भीड़ को चीरते हुए वो मेरे पास पहुँची।उसके और मेरे बीच की दूरी तय होने तक न जाने कितने जन्मदिन जो मैंने उसकी अनुपस्थिति में अकेले मनाए,किसी फ्लैशबैक की तरह एक एक कर मेरी नजरों के सामने आये।मैनें अपने हाथ फैला लिए ताकि उसे गले लगा सकूँ।वो अब मेरे ठीक सामने थी किसी प्रतिबिम्ब की तरह।भावनाओं के उमड़ते वेग को मैनें किसी तरह अपनी आँखों की देहरी पर रोका।उसकी नजरों में मेरे लिए नफरत का समंदर तैर रहा था,मेरी फैली हुई बाहें पुनः अपनी हद में आकर सिमट गई।बहुत देर तक हम दोनों के बीच मूक वार्तालाप हुआ।वो बहुत से प्रश्नों का ढेर मुझपर उड़ेल देना चाहती थी लेकिन सजा के तौर पर उसने चुना चुप्पी जो मुझे नश्तर की तरह हर जगह चुभने लगी।

"बेटी.."।मेरे मुँह से उस वक्त सिर्फ इतना ही निकल पाया।

"मैं नहीं हूँ आपकी बेटी..नफरत है मुझे आपसे..! बहुत बहुत नफरत..क्यों आयी हैं आप आज यहाँ..!"आक्रोश का ज्वालामुखी यकायक उसके अंदर से फूट पड़ा।उसकी सुर्ख आँखें बहुत कुछ बयां कर रही थी।

मेरी आँखों में रुकी हुई निर्झरिणी बह निकली।उसे देने के नाम पर दुआ से भरा हाथ उसके सर पर फेरती इससे पहले ही भीड़ को चीरते हुए वो मेरी नजरों से ओझल हो गई।एक काला साया उसकी परछाई बन दूर से मुझे दिखाई दे रहा था।वातावरण में अजीब सा अट्टहास सुनाई दिया।मेरी सभी इंद्रियां मुझे हेय दृष्टि से देख रही थी।मेरी आँखों पर छाई नम धुंध मिटने का नाम नहीं ले रही थी।मैं उसे और ज्यादा दुःखी नहीं देख सकती थी।अपने कलेजे के टुकड़े से कभी न मिलने के खुद से किये वादे के साथ मैं भरे मन से लौट आयी।

मुझे अपने नाखूनों में असहनीय वेदना महसूस हो रही थी।


-अल्पना नागर