Monday 8 February 2021

ग़नीमत है

 ग़नीमत है


पेड़ समाए होते हैं

मिट्टी की आत्मा में 

गहरे तक..!

और बने रहते हैं आजीवन

मिट्टी सम शून्य/

पेड़ जानते हैं 

प्रेम का सही अर्थ..


हमने होना चाहा पेड़

सीखना चाहा प्रेम

मगर हो न सके 

स्थिर..निःस्वार्थ और समर्पित !

हम कभी नहीं जान पाए

आखिर क्यों है

मिट्टी की संरचना में

रिक्त स्थान !

नहीं भेद पाए अब तक

घने पेड़ों से छनकर आती 

धूप का रहस्य !

पत्तियों संग खिलखिलाती

हवा का रहस्य !!


अपनी देह पर लपेट लिया हमने

स्वार्थ का स्थाई उबटन/

प्रेम आता है

अंतरतम गहरे रमने

किन्तु सतह से लौट जाता है

वो भेद नहीं पाता

कंक्रीट की मोटी दीवार/


हम कभी भी कहीं भी 

कुछ भी बन सकते हैं !

बन सकते हैं

गाड़ी-मोटर,मकान-दुकान

ऐसी-कूलर,रोड़े-पत्थर और दीवार!!

मगर हाँ, ये सत्य है

हम पेड़ नहीं बन सकते..

गनीमत है

हम पेड़ नहीं बन सकते..!!


-अल्पना नागर








 

Sunday 7 February 2021

कविता- आग

 आग


आग जानती है

जब तक चिंगारियां हैं

वजूद जिंदा है/

चिंगारी ख़त्म.. वजूद ख़त्म !

आग संघर्ष करती है

संपूर्ण रूप परिवर्तित हुए जाने तक/

राख में बदलकर 

पुनः पुनः आग बन फैल जाने तक..

वो संघर्ष करती है !


आग को बेसिरपैर कहने वाले

दरअसल अंजान है

उसकी तासीर औ मिज़ाज से/

कौन करेगा यक़ीन !

माचिस के घर में

चुपचाप सोई पड़ी

एक मामूली तीली

भरी होगी 

अनगिनत क्रांति स्वप्नों से..!


कौन करेगा यक़ीन !

अब तक

धान सेकने वाली 

जीवन उत्सव की जननी आग

अपने ही अस्तित्व को देगी चुनौती!!


बदहवास आग ढूंढ रही है आज

उन दो चकमक पत्थरों को

जिनकी रगड़ से 

शुरू हुआ था कभी

तथाकथित सभ्य मानव जीवन..!!

वो पत्थर जो आज व्यस्त हैं

बेवज़ह उछलने में/

टकराने में..

निशाना साधने और

सभ्यता को

लहूलुहान करने में..!!


-अल्पना नागर

7-2-2021



आलेख - बेहतर की तलाश

 बेहतर दुनिया की तलाश में


हम सभी किसी न किसी बेहतर की तलाश में रहते हैं।किसी एक अभीष्ट की प्राप्ति होने पर उससे बेहतर अन्य की तलाश..मन के किसी कोने में सदैव जारी रहती है।चाहे वो कोई भौतिक वस्तु हो या चलते फिरते इंसान या बौद्धिक संपत्ति अर्जित करने की लालसा !

इसे मानव का मूल स्वभाव कहें तो कुछ अनुचित नहीं होगा।देखा जाए तो इस लालसा के सकारात्मक व नकारात्मक दोनों पहलू हैं।सकारात्मक पहलू के अंतर्गत बेहतर तलाश की इच्छा हमें मनचाही वस्तु या सफलता अर्जित करने में बेहद कारगर सिद्ध होती है साथ ही इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में स्वयं हमारा एक बेहतर मनुष्य बनने की दिशा में 'अपग्रेडेशन' होता रहता है।बेहतर तलाशना यानी स्वयं अपनी विद्यमान इंद्रियों का बेहतर विस्तार..अगर प्रेम की तलाश में हैं तो निश्चित रूप से यह आपके हृदय का ही विस्तार है..दुनिया को एक नए नजरिये से देखने का..स्वयं को पहचानने का एक नवीन विस्तार जो कि अब तक स्वयं आपसे अज्ञात था ! इसी तरह अगर बेहतर ज्ञान की तलाश में हैं तो यह भी आपमें पहले से विद्यमान जिज्ञासा व ज्ञानेंद्रियों का ही अनन्य रूप या विस्तार होगा जिसे समय के साथ पहचानकर आत्मसात करना ही बेहतरी की ओर कदम बढ़ाना है।

किन्तु उपर्युक्त सभी पहलू तभी तक सहायक हैं जब तक एक निश्चित दायरे में इनका परिपालन हो।दायरा टूटते ही जिस बेहतर की तलाश होती है वह एक अनंत अगम्य खोज के अतिरिक्त कुछ नहीं!ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे नित्य घर की बनी दाल भात को छोड़कर बाज़ार की चटपटी बिरयानी के लिए ललचाना!धीरे धीरे इच्छाएं अपनी सीमाओं को त्यागकर लालच की श्रेणी में आ खड़ी होती हैं जिसका परिणाम कभी भी सुखद नहीं होता।

बेहतर दुनिया की तलाश स्वयं को बेहतर किये बगैर लगभग असंभव कार्य है।दुनिया का कोई भी कोना कोई भी वस्तु तब तक बेहतर नहीं हो सकती जब तक स्वयं का मन स्वच्छ न हो..मन के दर्पण पर जब तक असंतोष की धुंध छाई है प्रतिबिम्ब भी धुंधला ही नज़र आएगा चाहे कितना ही प्रयास कर लीजिए !

कई बार परिस्थितियों वश मन खिन्न होकर ख़याल आता है कि किसी अन्य जगह जाया जाए जहाँ इस तरह के लोग या समाज न हो जहाँ हर चीज एक नए सिरे से शुरू की जाए नई बेहतर दुनिया तलाश की जाए..एक बार के लिए हिम्मत करके आप ऐसा कदम उठा भी लेते हैं..नितांत नवीन अलग दुनिया में प्रवेश करते हैं नया समाज नए लोग नई बातें सब कुछ आपकी नज़र में नया या 'बेहतर' ! लेकिन ये क्या.. तलाश की गई दूसरी दुनिया पहली वाली से भी ज्यादा प्रतिकूल और विचित्र साबित हुई !! ऐसा क्यों हुआ..कैसे हुआ..अब क्या किया जाए ! जो कुछ भी किया सिर्फ और सिर्फ बेहतर की तलाश में किन्तु विवेक के द्वार बंद कर पूर्णतः भावावेश में किया जिसका परिणाम भी वही होना था जो अब तक होता आया है।

तभी कुछ दिनों बाद आपको ज्ञात होता है कि आप ही का कोई परिचित मित्र उसी तथाकथित समाज में बेहतर मित्र और बेहतर माहौल बनाने में सफल होता है जिसके बारे में आपने धारणा बना ली थी कि नहीं...ये क्षेत्र या समाज सिर्फ नकारात्मक लोगों से भरा है या रहने योग्य तो बिल्कुल नहीं है !! किंतु आपकी हैरानगी की हद तक वही सब कुछ एक अलग ही दुनिया साबित होती है।ये कोई जादू तो नहीं हो सकता ! 

हक़ीकत यही है,बेहतर दुनिया कहीं अन्यत्र नहीं अपितु हमारे ही मन मस्तिष्क में जीवंत है..सदैव चलायमान है जरूरत सिर्फ उस दुनिया की ओर अपने विवेक चक्षुओं को जाग्रत करने की है।जो समाज हमें अब तक रहने योग्य नहीं लग रहा था..जो परिचित हमें अब तक ईर्ष्यालु या प्रतिद्वंद्वी नज़र आ रहे थे वो हमारा अपना नजरिया या पूर्वाग्रह का ही विस्तार था।एक चिर परिचित साफ मुस्कुराहट के साथ आपने नई शुरुआत के लिए क़दम बढ़ाया और समस्त दुराग्रह यकायक गायब हो गए..वही परिचित अज़ीज बन गए वही दुनिया एक बेहतर दुनिया बन गई ! ये सब कुछ कितना सरल व सहज है बशर्ते इसे ठीक से समझा जाये !


-अल्पना नागर