Thursday 14 October 2021

अपडेटेड दशानन

 

अपडेटेड दशानन

हर एक की चाह
बस चाहिए थोड़ा और
'अतिरिक्त' उत्थान
कोई भला मुझसे पूछे
अतिरिक्त होने के नुकसान !

कितना कष्ट होता है
जब बीस आँखों से खंगालनी होती हैं
एकसाथ फेसबुक ट्विटर और इंस्टा की
नित नई अपडेट्स..
बीस हाथों को समझा बुझा
टाइप करनी होती है पोस्ट और टिप्पणियां/

उफ्फ!कितना दुष्कर होता है
जब भेड़ों के झुंड की भाँति
हाँककर लाना होता है
एक ही दिशा में
दसों दिशाओं की तरह विभाजित
दस मस्तिष्क को/
दुःख की तो पराकाष्ठा तब होती है जब
दस जुबान से निकली बात भी
कोई सुनता नहीं..
सिवाय कर्तव्यनिष्ठ स्वयं के
बीस कानों के..!

मुश्किल तो तब है जनाब
जब इतना कुछ अतिरिक्त होने के बावजूद भी
'मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ '
की एक जिद पड़ जाती है भारी
कहलाने लगता हूँ दुराचारी
फिर होता है सामना
अनगिनत कटु शब्द बाणों का/
और सूखता जाता है
अति आत्मविश्वास का
'सीक्रेट' नाभि अमृत..!

इसके बाद भी मैं दशानन
अमर था अमर रहूँगा !
मैनें चढ़ा लिया है अपनी देह पर
ढीठता का मुल्लमा
कानों में ठूँस लिए हैं
निंदा प्रूफ ईयरप्लग
अपनी जुबान को कर लिया है
प्रोफ़ाइल की तरह लॉक..
मैं जान चुका हूँ
मेरे दस के दस सिर हैं
निहायती निकम्मे चापलूस
और एकदम आउटडेटेड/
फिर भी नहीं करूँगा
मरते दम तक उनका परित्याग
आखिर उन्हीं से तो बनती है
मेरी हीरो वाली पहचान!

तो क्या समझे
दशानन का टाइम आउट..!!
न न बिल्कुल नहीं..!
मैं नई तकनीक का
एडवांस फायरप्रूफ रावण हूँ
बिल्कुल हैप्पी बर्थडे वाली
मैजिक मोमबत्ती जैसा..!
बस थोड़ा उकता गया हूँ
पुराने तौर तरीकों से
अब मेरा पसंदीदा कार्यक्षेत्र होगा
तुम्हारा मस्तिष्क!
न लंका जलने की चिंता
और न ही खतरा किसी भेदी विभीषण से/
जनाब मैं एक नहीं अनेक रूप में
पाया जाऊँगा..!

तुम लगाते रहो मेले
जलाते रहो प्रतिवर्ष मेरा पुतला
आखिर मनोरंजन भी तो
आवश्यक है !
लेकिन हाँ,अब भी अगर चाहते हो
अतिरिक्त होना
तो भूल मत जाना
कितना मुश्किल होता है
ज़माने के हिसाब से
अपडेटेड दशानन होना..!

-अल्पना नागर
14-10-2021

Tuesday 3 August 2021

अवसाद : कारण एंव उपाय

 अवसाद: कारण एंव उपाय


आज के इस तेज रफ़्तार दौर में जो शब्द सबसे अधिक सुर्खियों में रहा है वो है 'अवसाद'।

हम आये दिन अखबारों और समाचारों के माध्यम से जानते हैं कि फलां युवा नें आत्महत्या कर अपनी ईहलीला समाप्त कर ली या फिर चौरासी साल के बुजुर्ग अपने घर में सुसाइड नोट के साथ मृत मिले।ये सब घटनाएं पिछले कुछ समय से इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि अब इनके बारे में जानकर कोई आश्चर्य नहीं होता,इसे हमने सामान्य प्रक्रिया मानकर स्वीकार कर लिया है,लेकिन जब हम स्वयं इस तरह के दौर से गुजरते हैं तो घटनाओं की गंभीरता का पता लगता है।

सबसे पहले तो ये जान लें कि अवसाद आखिर है क्या..!कोई घटना या प्रतिकूल परिस्थितिजन्य अनुभव आपके जीवन को इतना अधिक प्रभावित करता है कि मृत्यु जीवन से अधिक सरल और सहज उपाय नजर आता है।पीड़ित व्यक्ति के मन मस्तिष्क का अनवरत शोर अंततः उसे स्थाई चुप्पी की ओर धकेल देता है।यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि चिंता और अवसाद में काफी अंतर है।कोई भी चिंता अवसाद नहीं होती,हर समस्या का कोई न कोई समाधान अवश्य होता है,बशर्ते हम स्वयं उसका समाधान चाहें तो ! लेकिन वही चिंता शनै शनै अवसाद में परिवर्तित होकर कब चिंता को चिता में बदल देती है इसका आभास तक नहीं होता।वर्तमान में यही परिदृश्य चारों ओर नजर आता है।महज चौदह साल का बालक जब मोबाइल न दिलाने के कारण अपनी जिंदगी ख़त्म कर लेता है या कोरोना पीड़ित कोई महिला पड़ोसी के दुर्व्यवहार और तानों से परेशान होकर जीवन लीला समाप्त कर लेती है या फिर घरेलू झगड़ों से परेशान कोई बुजुर्ग बालकनी से कूद कर स्वयं को मानसिक परेशानियों से मुक्त कर लेता है तो इसे क्या कहेंगे..!निश्चित रूप से इन सभी घटनाओं में धैर्य की कमी और साथ ही जीवन के प्रति दिशाहीन दृष्टिकोण परिलक्षित होता है।आज के इस आलेख में हम इन्हीं बिंदुओं पर चिंतन करेंगे।

सबसे पहले अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को चिह्नित करना जरूरी है।इस कार्य में निकट परिजन या बेहतर दोस्त भी मदद कर सकते हैं।अवसाद ग्रस्त व्यक्ति धीरे धीरे स्वयं को समाज व हर व्यक्ति से दूर कर लेता है।कई बार विपरीत परिस्थितियों से उबरने के लिए स्वयं के साथ समय बिताना मददगार भी साबित होता है लेकिन स्थिति जब नियंत्रण से बाहर हो जाती है तो आत्मीय जन का हस्तक्षेप जरूरी हो जाता है।अवसाद का कारण कोई भी हो सकता है।अधिकतर युवाओं की समस्या करियर,आर्थिक विपन्नता या प्रेम में विफलता के इर्द गिर्द ही घूमती है।दोनों ही स्थितियों में विफलता सिर्फ एक मानसिक स्थिति है।अगर हम ये मानकर चलें कि जिस क्षेत्र में हमें विफलता मिली वो इस ब्रह्मांड का एकमात्र विकल्प था तो अवसाद से कोई नहीं बचा सकता।जहाँ तक करियर की बात है इंसान के लिए कुछ भी असंभव नहीं।दृढ़ निश्चय अगर हो तो कोई भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।एक राह बंद होने पर दूसरी राह अवश्य खुलती है।आर्थिक स्थितियां हमेशा एक जैसी नहीं रहती।धैर्य के साथ स्वयं को संतुलित कर विकट परिस्थितियों से निपटा जा सकता है।इसके अतिरिक्त दूसरा महवपूर्ण बिंदु है प्रेम जो अधिकतर युवाओं के लिए अवसाद का मुख्य कारण है।हर वस्तु की तरह युवा प्रेम को भी अंततः पाने का प्रयास करते हैं,ये बात सच है कि प्रेम एक आंतरिक प्रेरणा का कार्य करता है और अगर किसी को सौभाग्य से जीवन में सचमुच हासिल होता है तो हर एक क्षण सही मायनों में दैवीय प्रतीत होता है लेकिन क्या सभी को मनचाहा प्रेम मिलता है!अगर हम आसपास नजर उठाकर देखें तो पाएंगे कि अधिकतर लोग जीवन में 'एडजस्टमेंट' करके चलते हैं।यहाँ इस मसले पर जोर इसलिये डाल रही हूँ कि अधिकांश युवाओं की समस्या बाहरी न होकर आंतरिक मनःस्थिति से सम्बद्ध होती है और धीरे धीरे समस्या इतना गंभीर रूप धारण कर लेती है कि उसका मूल्य प्राणों से हाथ धोकर चुकाना पड़ता है।क्या जीवन इतना अधिक तुच्छ है कि उसे यूँ ही गँवा दिया जाए!प्रेम में विफलता जैसी कोई चीज नहीं होती।सिर्फ हासिल करने का नाम प्रेम नहीं है वो अनवरत एक नई कोशिका की तरह आपको नया जीवन और प्रेरणा देने का कार्य करता है,वो हर तरह के बाह्य बंधनो से मुक्ति का नाम है।यहाँ युवाओं को ध्यान देने की आवश्यकता है,प्रेम अगर आपके जीवन का अभिन्न हिस्सा है तो आप हर कार्य में उसकी सकारात्मक ऊर्जा को महसूस करेंगे,यहाँ तक कि आपसे जुड़े हुए लोग आपकी आंतरिक चमक के कायल होंगे।आप जहाँ से भी गुजरेंगे खुशबू की भाँति अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ते हुए जाएंगे।जरूरत सिर्फ नजरिये को बदलने की है।हम ईश्वर को कितना ही स्मरण कर लें लेकिन उसे भौतिक तौर पर अपनी आँखों से नहीं देख सकते,हाँ उसके अस्तित्व को अपने दैनिक जीवन में ऊर्जा के प्रवाह की तरह अपनी चेतना में अनुभूत अवश्य कर सकते हैं। किसी वस्तु या व्यक्ति को पा लेने की अदम्य चाह में या तो सफलता मिलेगी या फिर एक नया जीवन ! असफलता जैसी कोई चीज अस्तित्व में नहीं होती ये मान लेना आवश्यक है।संसार जिसे असफलता की संज्ञा देता है वो दरअसल एक नए जीवन,एक नए मोड़ की शुरुआत भर होती है।कोई भी राह रुकती नहीं है अपितु दूसरे मार्ग खोल देती है जरूरत सिर्फ अपनी दृष्टि के विस्तार की है।किसी प्रसिद्ध कवि नें कहा है कि जब किसी पेड़ पर बिजली गिरती है तो वो जलकर काला हो जाता है।उस पेड़ पर न तो चिड़िया बैठती है और न ही वसंत उस पर आता है लेकिन वही पेड़ बैलगाड़ी के पहियों में जुतकर अपने अस्तित्व को एक नया आकार देता है।पेड़ हो या जीवन जब बिजली गिरती है तो या तो अस्तित्व राख हो जाता है या फिर उसे नया जीवन मिलता है।मिट्टी जब घड़े का आकार लेती है तो उसका अस्तित्व भी साकार होता है वरना वो मात्र धूल है,उसी तरह जब दीपक का आकार लेती है तो पल भर में ही अंधेरे को दूर भगाने की ताकत रखती है।अवसाद ग्रस्त व्यक्ति अवसाद के क्षणों में स्वयं को अनुपयोगी मिट्टी मान बैठता है,ऐसा अधिकतर परिस्थितियों वश होता है लेकिन जरूरी ये है कि उसे उसकी वास्तविक उपयोगिता स्मरण कराई जाए,उसे महत्व दिया जाए।

अवसाद अप्रत्यक्ष रूप से एक ऐसा संक्रामक रोग है जिसकी चपेट में न केवल संबंधित व्यक्ति ही आता है अपितु उससे जुड़े हुए दूसरे लोग भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होते हैं।ये एक श्रृंखला की तरह है जिसे जितना जल्दी हो सके तोड़ना आवश्यक है।ये एक गंभीर स्थिति है लेकिन हर समस्या की तरह इसका हल भी बेहद आसान है अगर सही दिशा में कार्य किया जाए।कहा जाता है कि अगर आप किसी समस्या में फंसे हैं तो उसका समाधान आपसे अधिक किसी और के पास नहीं है,दूसरे व्यक्ति आपको अच्छी बुरी सलाह अवश्य दे सकते हैं लेकिन उस पर चिंतन कर उस समस्या से बाहर निकलने का रास्ता आपको स्वयं ही खोजना होगा।अवसाद की समस्या अधिकतर स्वभाव से भावुक लोगों के साथ होती है,लेकिन भावुक होना कोई कमजोरी नहीं है,अपितु विचारहीन समाज में ये आपकी अच्छाई और उजले पक्ष को दर्शाता है।अगर हम अपनी अच्छाई को अपनी ताकत बना लें तो शायद ही कोई अवसाद या मानसिक रोग हमारे हृदय पर दस्तक दे।बुद्धि कमोबेश सभी के पास होती है,लेकिन चिंतन का गुण बहुत कम लोगों के पास होता है।बुद्धि एक क्षमता है और चिंतन उस क्षमता का बेहतरीन प्रयोग करने की अवस्था है।चिंतन अभ्यास से और भी ज्यादा निखर सकता है।अगर सही दिशा में चिंतन हो तो व्यक्ति चाहे किसी भी समस्या में स्वयं को फंसा हुआ पाए वो अतिशीघ्र उससे उबरने के रास्ते भी खोज ही लेता है।ये बिल्कुल वैसा ही है कि आप अपने मार्ग पर अग्रसर हैं और भूलवश या भ्रांतिवश आप किसी सूखे कुँए में गिर जाते हैं,अंदर कंटीली झाड़ियां हैं और पीने को एक बूंद भी पानी नहीं,प्यास से आप अधमरे हुए जा रहे हैं और साथ ही चोटिल भी हैं ऐसी स्थिति में आप क्या करेंगे! निश्चित तौर पर हाथ पर हाथ रखकर मौत की प्रतीक्षा नहीं करेंगे अपितु कुँए से बाहर आने के मार्ग खोजेंगे,आपकी तीक्ष्ण दृष्टि कुँए की भीतरी दीवारों पर बने खड्डे या पत्थर खोजेगी ताकि किसी तरह बाहर निकला जा सके,या फिर पूरी क्षमता के साथ आवाज़ लगाएंगे ताकि राहगीर को आपकी आवाज़ सुने और आप बाहर निकल पाएं।आप देखेंगे कि जीवन को बचाने के उस दौर में आपके शरीर पर लगी बाहरी चोटें महत्वहीन हो गई हैं या फिर उनका अहसास तक नहीं हो पा रहा क्योंकि मानसिक रूप से आप अपने अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद में हैं।ये बात बिल्कुल सत्य है हमारी सोच का हमारे जीवन पर बहुत गहरा असर होता है।सोच ही हमें बाकी प्राणियों से भिन्न बनाती है।मनुष्य जीवन उसके मस्तिष्क की अनंत क्षमताओं के कारण बेहद अनमोल है,इसका प्रत्येक क्षण कीमती है।हमारे अंदर की जिजीविषा हमें हर क्षण एक नया जीवन देती है,कुछ सार्थक करने को प्रोत्साहित करती है।यही कारण है कि दुनिया में जितने भी चमत्कारी अविष्कार हुए हैं या असाधारण चीजें हुई हैं उसके पीछे साधारण से इंसान की असाधारण सोच ही है।निराशाओं के गर्भ में ही आशाओं के बीज छिपे होते हैं।अगर संसार आपको हताशा के गहरे कुँए में धकेल रहा है तो परेशान होने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है क्योंकि वो आपको कुछ नया और बेहतरीन करने का द्वार खोल रहा है,आपके अंदर छिपी विलक्षण प्रतिभा और क्षमताओं को अनावृत करने का कार्य कर रहा है।जिन लोगों और समाज के कारण आपने स्वयं को अवसाद के लिए चुना है सबसे पहले तो ये जान लें कि वो लोग क्या स्वयं किसी भी ग़लती या असफलता से विमुक्त हैं!अगर नहीं तो उनके सोचने से आपको इतना अधिक फ़र्क क्यों पड़ रहा है,ये जीवन आपका है,इसे संवारने का जिम्मा भी आपका ही है।अगर आप समाज के बने बनाये बरसों पुराने ढांचे से अलग होकर कुछ नया और सार्थक करने का प्रयास करते हैं तो एक क्षण में आप दूसरों की निगाह में अपराधी सिद्ध हो जाते हैं आपका महत्व हीरे से सीधे कोयले के बराबर हो जाता है।ऐसे में ये आप पर निर्भर करता है कि आप अपने अंदर ऊर्जा प्रज्वलित कर अंगार में परिवर्तित होते हैं या राख बनकर अस्तित्वहीन हो उड़ना पसंद करते हैं!

जीवन शीशे की तरह पारदर्शी है हम चाहें तो हर दिन स्वयं के अंदर झाँककर इसे सरल और स्पष्ट बना सकते हैं लेकिन हमें जटिलताएं आकर्षित करती हैं।हम सरलता को अनदेखा कर जटिल चीजों को पाने के लिए लालायित होते हैं।जीवन रूपी सरल पारदर्शी शीशे पर इतनी अधिक जटिलताओं की धुंधली परत छा जाती है कि कुछ भी स्पष्ट देख पाना असंभव प्रतीत होता है।अब यहाँ कमी हमारे चुनाव की है।अतः सरलता को चुनें,जीवन इतना भी कठिन नहीं जितना इसे बना दिया जाता है।

अवसाद की स्थिति में आप स्वयं को जितना हो सके व्यस्त रखें।अकर्मण्यता किसी भी परिस्थिति को और अधिक खराब कर सकती है।हमारे विचारों का हमारे शरीर पर गहरा असर होता है।अकर्मण्यता की स्थिति हमारी चेतना पर जंग जैसा आवरण ओढ़ाने का कार्य करती है।और जैसा कि हम सभी जानते हैं कि लोहा चाहे कितना ही मजबूत हो,जंग लगने पर धीरे धीरे क्षीण होकर अंततः नष्ट हो जाता है।आप जब स्वयं को विपरीत परिस्थितियों से घिरा हुआ पाएं तो सर्वप्रथम ऐसे कार्यों में स्वयं को व्यस्त रखने का प्रयास करें जिनसे आपको सचमुच आंतरिक प्रसन्नता मिलती है। व्यवहारिक तौर पर उन परिस्थितियों में इन बातों को अमल कर पाना थोड़ा मुश्किल है लेकिन असम्भव नहीं।आप परिजन या दोस्तों के साथ समय व्यतीत करना पसंद नहीं कर रहे तो कोई बात नहीं खुद के साथ समय बिताएं,किसी पार्क में या घर के अहाते में लगे पेड़ पौधों को समय दें,प्रकृति के साथ स्वयं को जोड़ें,हर वस्तु को इस तरह देखें जैसे कि पहली बार देख रहे हैं चाहे वो पेड़ हो,चिड़िया हो,चाँद तारे, बादल हो या फिर बारिश की हल्की फुहार।यक़ीन मानिए आपको आश्चर्य होगा खुशियां आपके इर्द गिर्द हमेशा से मौजूद थी,बस उन्हें देखने और महसूसने का समय नहीं था।छोटे बच्चों के साथ समय बिताएं,उनका व्यवहार ध्यान से देखें आप बहुत सारी चीजें उनसे सीख सकते हैं।आपको गाना गाकर खुशी मिलती है तो गाइये खुलकर,क्यों परवाह करना कि चार लोग सुनेंगे तो क्या सोचेंगे! किसी के पास इतना समय नहीं है कि सिर्फ आप पर ध्यान केंद्रित करे और अगर कोई सचमुच बहुत फ्री है तो सुनने दीजिए क्या फर्क पड़ता है!अगर नृत्य करना पसंद है तो झूमकर नृत्य कीजिये बिल्कुल इस तरह कि कोई आपको नहीं देख रहा,क्या फर्क पड़ता है कि आप बारातियों वाला नृत्य कर रहे हैं!अगर प्रयास किया तो धीरे धीरे आत्मविश्वास की चमक आपकी अभिरुचियों में भी दिखाई देगी।अगर चित्र और रंगों से जुड़ाव है तो उठाइये तूलिका और उड़ेल दीजिए अपना सारा मन सफेद कैनवास पर!कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी बनाई कृति लियोनार्डो या वोन गोग जैसी नहीं बन पाई!बस इतना ध्यान रखें कि वो आपने बनाई है और आप स्वयं में विशेष हैं,इस पूरे ब्रह्मांड में सबसे अधिक ख़ुशगवार और अनोखे व्यक्ति हैं।

आपको घूमना पसंद है तो सोचने में या सही समय की प्रतीक्षा में समय बर्बाद न करें,उठाइये अपना बैगपैक और बाहरी यात्रा से आंतरिक यात्रा की खुशी को अपने अंदर महसूस कीजिये।ये बिल्कुल आवश्यक नहीं कि यात्रा में आपके साथ कोई संगी मौजूद हो,अगर कोई साथ होता है तो अच्छी बात लेकिन नहीं भी है तो कोई बात नहीं,इससे आपकी यात्रा पर विशेष फ़र्क नहीं पड़ने वाला,बल्कि और अधिक आनंद की अनुभूति आप कर सकते हैं,बशर्ते आपको अपने सानिध्य में जीवन जीने की कला आ गई हो।

किसी को आपकी वजह से खुशी हो कुछ ऐसा कार्य करें।मसलन आपके घर में बहुत सी ऐसी चीजें होंगी जिनका प्रयोग आप वर्तमान में नहीं कर पा रहे लेकिन वो किसी और के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हो सकता है,आप उन सभी चीजों को एकत्रित कर निकल पड़ें यात्रा पर, कोई न कोई जरूरतमंद अवश्य होगा जिसके लिए आपकी चीजें बहुत मायने रखेंगी।यहाँ बात सिर्फ भौतिक चीजों की नहीं है,इसके अलावा भी हम दिन प्रतिदिन अनावश्यक बातों का ढेर अपने मस्तिष्क में इक्कट्ठा करते रहते हैं।अलमारी बुरी तरह ठसाठस भर जाती है,ऐसे में नई बातों के लिए जगह कैसे बनेगी!अनावश्यक चीजें हों या बातें, निकालते रहिए।जीवन के प्रति दृष्टिकोण को बस थोड़ा सा बदलने की आवश्यकता है बाकी कार्य स्वयं प्रकृति आपके लिए करेगी।इस पूरे ब्रह्मांड में अगर कोई वस्तु स्थाई है तो वो सिर्फ आपकी आंतरिक खुशी है जिसे आपसे कोई नहीं छीन सकता।खुशी को पाने के लिए जबरन प्रयास न करें बल्कि अपने कार्यों से उसे अपनी ओर खींचें।बाहरी तौर पर दिखावटी हँसने का अभिनय सिर्फ आपके चेहरे की मांसपेशियों को थकाने का काम करेगा इसके विपरीत अगर खुशी आपकी आंतरिक चेतना से सम्बद्ध हो जाती है तो जीवन के मायने ही बदल देती है,और अवसाद जैसे शब्द बीते जमाने की बातें हो जाती हैं।


-अल्पना नागर


Friday 23 July 2021

मिज़ाज

 मिज़ाज


दिन एक उजली रेत का किनारा

चहक़दमी करते लोग

छोड़ते जाते स्मृतियों के निशान..

कोई बनाता घरौंदा

तो कोई करता प्रयास

भुरभुरे दिन को मुट्ठी में भरने का/

मगर दिन को आदत नहीं

एक जगह ठहरने की

वो फिसलता जाता है

रेत-दर-रेत

लम्हा-दर-लम्हा..!


उजली रेत के उस पार

समंदर सी गहरी है स्याह रात

निःशब्द नीरव रहस्यों से भरी रात/


रात की गोद में सर रखकर 

सुकून से लेटती हैं स्वप्न लहरें..

एक मौन संवाद बहता है

दोनों के दरमियां..!

रात खुद नहीं सोती

थपकियां देकर सुलाती है

स्वप्न लहरों को/


लहरें नींद में चलकर

किनारे आती हैं

और छोड़ जाती हैं 

दिन की ड्योढ़ी पर

शंख,सीप और ढेरों कहानियां/

कहानियां जिन्हें

सूरज निकलने पर

चुनता है दिन और

बिखर जाता है शब्द शब्द

झिलमिल किसी चादर सा..!


स्वप्न लहरें खाली हाथ नहीं लौटती

बहा ले आती हैं

सदी की बेचैनियां,आशाएं,अपेक्षाएं

पीछे छूटते स्मृति चिह्न और

स्थाई घरौंदों के भ्रम..!


दोनों प्रतीत होते हैं

एक दूसरे से सर्वथा भिन्न 

मगर मिज़ाज एक ही है/

भुरभुरे दिन की भाँति

समंदर रात भी ठहरती नहीं..

रिसती जाती है अंजुरी से बूँद-बूँद

लम्हा-लम्हा..!


-अल्पना नागर







Saturday 17 July 2021

फिर से

 फिर से


रेल के कोने में गठरी बनी

नई नवेली दुल्हन

कनखियों से देख रही है

खिड़की से बाहर

लम्हों की भाँति छूटती हुई

पेड़ों की कतारें

बिजली के खंभे/

उसे आभास हो रहा है

सब कुछ उसके संग चल रहा है

मगर हक़ीकत में

सब छूटता जा रहा है

आगे प्रतीक्षा में है

नई जगह..नया स्टेशन !


गाँव में ब्याह के आयी है

नई नवेली बहुरिया

अभी घूँघट कलेजे तक ढलका है

मानो कह रहा हो

अब बात कलेजे से बाहर 

नहीं जा पाएगी !


बहुरिया के आलता लगे पाँव

छोड़ते जा रहे हैं

स्थाई चिह्न

उसके मन मस्तिष्क पर

वो जान चुकी है कि

यही है उसकी आजीवन लक्ष्मण रेखा !


सिंदूर और दूध से रंगे बर्तन में

डाल दी गई है अंगूठी और चंद सिक्के

ननद बाई नें हौले से कुछ बुदबुदाया है

बहुरिया के कानों में!

बहुरिया नें छोड़ दिये हैं हर बार

हाथों में आये सिक्के और अंगूठी

वो जानती है

उम्र भर दोहराया जाएगा 

यही पूर्व निर्धारित 'अकी बेकी' खेल

जिसमें हर सूरत में तय है उसकी हार !


पल्लू का सिरा मुँह में दबाए

ठिठोली करती दर्जनों औरतों का हुजूम

अब करेगा मुँह दिखाई

नई नवेली बहुरिया की..

घूँघट के भीतर भी

एक और घूँघट है

हया का घूँघट !

जो बहुरिया की माँ नें 

देहरी पार करती बिटिया के पल्लू बांधा था

सीख देकर कसकर गाँठ लगाते हुए..


अब गाँव भर में घुमाकर

ली जाएगी

देवी देवताओं की अनुमति..

एक भी देवरा छोड़ा नहीं जाएगा

मंगल गीत गाये जाएंगे!


बहुरिया को देख

खिल उठी हैं

घर की दूसरी औरतों की बांछे

अब जवाब देने लगे हैं

सभी के घुटने यकबयक !

बहुरिया के आने से सब खुश हैं

सिवाय रसोईघर के..

वो राजदार है

बहुरिया की दुखती पिंडलियों

और कठोर होते हाथों के स्पर्श की/


रसोई को मालूम है

किस तरह रोज बहुरिया

लड़ती है

परात भर आटे में गुँथे

चुटकी भर नमक जितने सपनों के संग/

वो जितनी मशक्कत करती है

उतनी ही बढ़ती जाती है

गुँथे आटे की लचक..!

फिर आहिस्ता से डालती है

बेली हुई रोटियां

सार्वभौमिक सत्य से गर्म तवे पर..

सेकती है धैर्य को

पूरी तरह पकने तक..!

तब जाकर आता है स्वाद

तब जाकर भरता है कुटुम्ब का उदर !


बहुरिया नें सीख लिया है

बातों को कलेजे के भीतर रखना

मगर छुपा नहीं पाती

खिड़की से पिघलकर आते चाँद से/

बहुरिया पढ़ी लिखी है

उसने लिखी हैं चंद पंक्तियां

छुपते छुपाते

रात के गहराते सायों के बीच..

उसे नहीं पता 

आख़िर वो क्या करे 

कागज़ पर उकेरे अक्षरों के सैलाब का !


आज फिर उतरकर आया है चाँद

खिड़की पर..

बहुरिया व्यस्त है

एक जरूरी काम में !

उसने बनाये हैं

ढेर सारे हवाईजहाज

उन्हीं कागज़ों से 

जिन पर उकेरी थी उसने कविताएं/

एक एक कर वो रोज भेजेगी

उड़ान भरता हवाईजहाज

सीधे चाँद के घर !


बहुरिया हैरान है

ये जानकर कि

चाँद के पास पहले से लगा है ढेर

ऐसे अनगिनत कागजी जहाजों का !


आज फिर से दूर किसी घर से

सुनाई दे रहा है

शहनाई का रुदन..

फिर होगी मुँह दिखाई

देवी देवरा घुमाई

आटे से रोज की लड़ाई

और सपनों की जमकर धुनाई/

फिर होगी चाँद से बातें

फिर से उड़ेगा कोई कागज़ का जहाज

फिर रोयेगा चाँद 

और टूटकर पिघलेगी चाँदनी!

फिर से घुलेंगे काले अक्षर 

गहराती रात के स्याह पन्नों में..!

एक बार फिर से..हाँ फिर से..!!


-अल्पना नागर

Sunday 2 May 2021

कहीं कोई गतिरोध नहीं

 कहीं कोई गतिरोध नहीं!


सामान्य है सब

हालात से लेकर जज़्बात

कहीं कोई गतिरोध नहीं !

वही मटमैला आसमान

वही सूरज का रोज का संघर्ष

कि निकल आये किसी दिन

गहरी चुप्पी से पसरे घुप्प धुएँ को चीरकर/

देखे अपना प्रतिबिम्ब 

चमकते बेफ़िक्र चेहरों में..

मगर वो जान चुका है

ये मात्र दिवास्वप्न है..!!


धुआँ आखिर धुआँ है

क्या फर्क पड़ता है

कहीं से भी उठे..!!

चाहे दंगों से उठे या उठे

हमारी निष्क्रियता से/

हम सुरक्षित हैं

अपने 'एयर प्यूरीफाइड' घरों में

हम सुरक्षित हैं

दोहरे आवृत चेहरों को 

'डबल मास्क' से ओढे..!

मगर फिर भी जाने क्यूँ

इस बार ये धुआँ कुछ अलग है

तमाम सुरक्षा चक्रों को भेदता हुआ

भर गया है नथुनों में

फेंफड़ों में..!

जल रहे हैं जिस्म

जल रही हैं उम्मीदें/

मगर आँखों को अब नहीं होती जलन

न ही ये बरसती हैं पहले की तरह

चाहे कितना ही धुआँ पसरा हो आसपास!


एक अदृश्य चक्रवात से

उड़ गई है एक ही झटके में

जाने कितने भरोसों की

'आभासी' छत..!

अब जो भी करना है

खुद को करना है

खुद को सहना है..!!


धुएँ से टपक रही है

अवसरवादिता

जिसे लपकने को दौड़ रहे हैं

जाने कितने ही हाथ..

खोखले सिलेंडर थामे

अजीब सी मैराथन का हिस्सा बनने

भाग रहे हैं एकसाथ कई नीरो

माहौल में घुल गया है

बाँसुरी का रुदन..

धू धू कर जल रहा है रोम/

और वेंटिलेटर पर दम तोड़ रही हैं

भीड़तंत्र की उम्मीदें..!

हम देख रहे हैं

अब तक

सब कुछ सामान्य है

हालात से लेकर जज़्बात

कहीं कोई गतिरोध नहीं..!!


-अल्पना नागर

2/5/2021









Sunday 14 March 2021

पलाश

 ये पलाश के खिलने का समय है


साजिशन धरती की पीठ पर

उभर आये हैं नीले निशां

आदतन पेड़ों नें गिरा दिया है

जर्द पत्तों का पीला कम्बल..!


किसी नें खोल दिया है

सुराहियों में कैद हवा का ढक्कन

बौराई हवा मुक्त हो गई

मानो कुलांचे भरती 

दूर जंगल में हिरनी कोई..!


दूर कहीं सूनी पड़ी है शाख

ये गुलमोहर के आराम का समय है..!

उसी के नज़दीक

बस चंद पेड़ों की दूरी पर

कोई है जो टिका हुआ है शाख से अब भी/


मेरी हैरानगी को भांपते हुए

हौले से हवा बुदबुदाई..

"ये दहकते अंगार

रात की डाली पर

टिमटिमाते तारों का झुरमुट हैं

जो दिन के उजाले में

पलाश बन इठलाते हैं..!!"

जी हाँ, यही हैं वो

जो वक़्त की साजिशों को 

हर बार झुठलाते हैं..!


देखना,अभी और चटख होगी

धूप की हल्दी/

अभी और निखरेगा रंग धरा का

ये पलाश के खिलने का समय है..!!


-अल्पना नागर

12 मार्च 2021


Monday 8 March 2021

पतझड़

 पतझड़


न जाने क्यों मगर

लुभाता है मुझे

पतझड़ का यूँ चले आना

चुपके से वसंत के अधरों पर

अपनी उँगली रख देना..

कुछ क्षण का ठहराव और

नेह का हवा में

किसी चिर परिचित गंध सा घुल जाना..!


शाखों से गिरे 

लाल,पीले,भूरे पत्ते

जैसे होली खेलते

एकसाथ कई नटखट बच्चे!

मानो बिखेर दी हो किसी नें

पूरी ताकत से

गुलाल भरी थाली

धरती के सीने पर..!


बेतरतीब रंग

बेसाख़्ता पतझड़

और कुछ नहीं..

आधार हैं

आकार लेते

हरित वसंत का...!


कभी गौर से सुना है?

कदमों तले आये

सूखे पत्तों का संगीत !

मानो मना रहे हों जश्न

स्वयं के बेहद करीब होने का..!


अजीब है मगर सच है

जीवन में आया हर पतझड़

स्वयं के उतना ही करीब ले आता है..!

झड़ते हुए हर पत्ते के नीचे

स्थान शेष है

नई कोंपल के लिए

नई शुरुआत के लिए !


विलग हुए जीर्ण पत्ते

किसी अबोध शिशु से

दुबक जाते हैं

धरती के आंचल में गहरे कहीं..

क्या देखी है अन्य कोई जगह

इससे अधिक आरामदायक

इससे अधिक सुरक्षित..?


पत्तों का गिरना मात्र एक लघु विराम है

मृत्यु के गर्भ में जैसे जीवन का विधान है..!


-अल्पना नागर

8 मार्च 2021


Monday 8 February 2021

ग़नीमत है

 ग़नीमत है


पेड़ समाए होते हैं

मिट्टी की आत्मा में 

गहरे तक..!

और बने रहते हैं आजीवन

मिट्टी सम शून्य/

पेड़ जानते हैं 

प्रेम का सही अर्थ..


हमने होना चाहा पेड़

सीखना चाहा प्रेम

मगर हो न सके 

स्थिर..निःस्वार्थ और समर्पित !

हम कभी नहीं जान पाए

आखिर क्यों है

मिट्टी की संरचना में

रिक्त स्थान !

नहीं भेद पाए अब तक

घने पेड़ों से छनकर आती 

धूप का रहस्य !

पत्तियों संग खिलखिलाती

हवा का रहस्य !!


अपनी देह पर लपेट लिया हमने

स्वार्थ का स्थाई उबटन/

प्रेम आता है

अंतरतम गहरे रमने

किन्तु सतह से लौट जाता है

वो भेद नहीं पाता

कंक्रीट की मोटी दीवार/


हम कभी भी कहीं भी 

कुछ भी बन सकते हैं !

बन सकते हैं

गाड़ी-मोटर,मकान-दुकान

ऐसी-कूलर,रोड़े-पत्थर और दीवार!!

मगर हाँ, ये सत्य है

हम पेड़ नहीं बन सकते..

गनीमत है

हम पेड़ नहीं बन सकते..!!


-अल्पना नागर








 

Sunday 7 February 2021

कविता- आग

 आग


आग जानती है

जब तक चिंगारियां हैं

वजूद जिंदा है/

चिंगारी ख़त्म.. वजूद ख़त्म !

आग संघर्ष करती है

संपूर्ण रूप परिवर्तित हुए जाने तक/

राख में बदलकर 

पुनः पुनः आग बन फैल जाने तक..

वो संघर्ष करती है !


आग को बेसिरपैर कहने वाले

दरअसल अंजान है

उसकी तासीर औ मिज़ाज से/

कौन करेगा यक़ीन !

माचिस के घर में

चुपचाप सोई पड़ी

एक मामूली तीली

भरी होगी 

अनगिनत क्रांति स्वप्नों से..!


कौन करेगा यक़ीन !

अब तक

धान सेकने वाली 

जीवन उत्सव की जननी आग

अपने ही अस्तित्व को देगी चुनौती!!


बदहवास आग ढूंढ रही है आज

उन दो चकमक पत्थरों को

जिनकी रगड़ से 

शुरू हुआ था कभी

तथाकथित सभ्य मानव जीवन..!!

वो पत्थर जो आज व्यस्त हैं

बेवज़ह उछलने में/

टकराने में..

निशाना साधने और

सभ्यता को

लहूलुहान करने में..!!


-अल्पना नागर

7-2-2021



आलेख - बेहतर की तलाश

 बेहतर दुनिया की तलाश में


हम सभी किसी न किसी बेहतर की तलाश में रहते हैं।किसी एक अभीष्ट की प्राप्ति होने पर उससे बेहतर अन्य की तलाश..मन के किसी कोने में सदैव जारी रहती है।चाहे वो कोई भौतिक वस्तु हो या चलते फिरते इंसान या बौद्धिक संपत्ति अर्जित करने की लालसा !

इसे मानव का मूल स्वभाव कहें तो कुछ अनुचित नहीं होगा।देखा जाए तो इस लालसा के सकारात्मक व नकारात्मक दोनों पहलू हैं।सकारात्मक पहलू के अंतर्गत बेहतर तलाश की इच्छा हमें मनचाही वस्तु या सफलता अर्जित करने में बेहद कारगर सिद्ध होती है साथ ही इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में स्वयं हमारा एक बेहतर मनुष्य बनने की दिशा में 'अपग्रेडेशन' होता रहता है।बेहतर तलाशना यानी स्वयं अपनी विद्यमान इंद्रियों का बेहतर विस्तार..अगर प्रेम की तलाश में हैं तो निश्चित रूप से यह आपके हृदय का ही विस्तार है..दुनिया को एक नए नजरिये से देखने का..स्वयं को पहचानने का एक नवीन विस्तार जो कि अब तक स्वयं आपसे अज्ञात था ! इसी तरह अगर बेहतर ज्ञान की तलाश में हैं तो यह भी आपमें पहले से विद्यमान जिज्ञासा व ज्ञानेंद्रियों का ही अनन्य रूप या विस्तार होगा जिसे समय के साथ पहचानकर आत्मसात करना ही बेहतरी की ओर कदम बढ़ाना है।

किन्तु उपर्युक्त सभी पहलू तभी तक सहायक हैं जब तक एक निश्चित दायरे में इनका परिपालन हो।दायरा टूटते ही जिस बेहतर की तलाश होती है वह एक अनंत अगम्य खोज के अतिरिक्त कुछ नहीं!ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे नित्य घर की बनी दाल भात को छोड़कर बाज़ार की चटपटी बिरयानी के लिए ललचाना!धीरे धीरे इच्छाएं अपनी सीमाओं को त्यागकर लालच की श्रेणी में आ खड़ी होती हैं जिसका परिणाम कभी भी सुखद नहीं होता।

बेहतर दुनिया की तलाश स्वयं को बेहतर किये बगैर लगभग असंभव कार्य है।दुनिया का कोई भी कोना कोई भी वस्तु तब तक बेहतर नहीं हो सकती जब तक स्वयं का मन स्वच्छ न हो..मन के दर्पण पर जब तक असंतोष की धुंध छाई है प्रतिबिम्ब भी धुंधला ही नज़र आएगा चाहे कितना ही प्रयास कर लीजिए !

कई बार परिस्थितियों वश मन खिन्न होकर ख़याल आता है कि किसी अन्य जगह जाया जाए जहाँ इस तरह के लोग या समाज न हो जहाँ हर चीज एक नए सिरे से शुरू की जाए नई बेहतर दुनिया तलाश की जाए..एक बार के लिए हिम्मत करके आप ऐसा कदम उठा भी लेते हैं..नितांत नवीन अलग दुनिया में प्रवेश करते हैं नया समाज नए लोग नई बातें सब कुछ आपकी नज़र में नया या 'बेहतर' ! लेकिन ये क्या.. तलाश की गई दूसरी दुनिया पहली वाली से भी ज्यादा प्रतिकूल और विचित्र साबित हुई !! ऐसा क्यों हुआ..कैसे हुआ..अब क्या किया जाए ! जो कुछ भी किया सिर्फ और सिर्फ बेहतर की तलाश में किन्तु विवेक के द्वार बंद कर पूर्णतः भावावेश में किया जिसका परिणाम भी वही होना था जो अब तक होता आया है।

तभी कुछ दिनों बाद आपको ज्ञात होता है कि आप ही का कोई परिचित मित्र उसी तथाकथित समाज में बेहतर मित्र और बेहतर माहौल बनाने में सफल होता है जिसके बारे में आपने धारणा बना ली थी कि नहीं...ये क्षेत्र या समाज सिर्फ नकारात्मक लोगों से भरा है या रहने योग्य तो बिल्कुल नहीं है !! किंतु आपकी हैरानगी की हद तक वही सब कुछ एक अलग ही दुनिया साबित होती है।ये कोई जादू तो नहीं हो सकता ! 

हक़ीकत यही है,बेहतर दुनिया कहीं अन्यत्र नहीं अपितु हमारे ही मन मस्तिष्क में जीवंत है..सदैव चलायमान है जरूरत सिर्फ उस दुनिया की ओर अपने विवेक चक्षुओं को जाग्रत करने की है।जो समाज हमें अब तक रहने योग्य नहीं लग रहा था..जो परिचित हमें अब तक ईर्ष्यालु या प्रतिद्वंद्वी नज़र आ रहे थे वो हमारा अपना नजरिया या पूर्वाग्रह का ही विस्तार था।एक चिर परिचित साफ मुस्कुराहट के साथ आपने नई शुरुआत के लिए क़दम बढ़ाया और समस्त दुराग्रह यकायक गायब हो गए..वही परिचित अज़ीज बन गए वही दुनिया एक बेहतर दुनिया बन गई ! ये सब कुछ कितना सरल व सहज है बशर्ते इसे ठीक से समझा जाये !


-अल्पना नागर



Thursday 14 January 2021

उड़ी पतंग

 उड़ी पतंग


वो चाहें तो उड़ा सकती हैं पतंग

ब्रह्मांड के उस पार तक..

बांध सकती हैं अपनी डोर के सिरे पर

समस्त ग्रह नक्षत्रों को

एक पंक्ति में/

बशर्ते उन्हें थमाई न जाये

सिर्फ चरखी हर बार !


जब थामती हैं लड़कियां डोर को

अपनी उँगलियों में

वो खुद बन जाती हैं पतंग/

वो लहराती हैं..

गोते खाती हैं..

लड़ाती है उल्टी हवाओं से पंजा

ये लड़ाका लड़कियां

नहीं थामना चाहती

हाथों में सिर्फ चरखी !

वो होना चाहती हैं आसमान

पतंग के बहाने से/


वो रश्क़ नहीं करती आसमान में 

बराबर उड़ती दूसरी पतंगों से

न ही वो रखती हैं कोई तमन्ना

उन्हें काटने की/

आगे निकलने की..!


वो खुश हैं तो बस

आसमान की खुली सैर पर

शरद की ठंडी हवाओं में घुली

हसरतों की चटख धूप संग/

वो नहीं चाहती कि

ताउम्र उसके मन के आंगन में

लगा रहे एक ढेर

कटी हुई पतंगों का..

जब बुलाये उसे आसमान

अपना हिस्सा होने को/

वो व्यस्त रहे

उलझी हुई डोरियों का ढेर 

सुलझाने में..

वो बिल्कुल नहीं चाहती..!


- अल्पना नागर

Wednesday 6 January 2021

समय चक्र

 


आलेख- समय चक्र


आज के समय की सबसे बड़ी विडंबना है-समय का न होना ! बहुत से लोगों को कहते हुए सुना होगा कि समय का अभाव है,एक सैकेंड का समय भी नहीं है।एक अजीब सी मैराथन में सभी नें हिस्सा लिया हुआ है,लेकिन किधर जा रहे हैं क्यों जा रहे हैं किसी को कुछ ज्ञात नहीं!

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के जिन्न की मदद से हमने स्वर्गीय सुख को प्राप्त करने की सभी सुविधाएं जुटा ली हैं।हमारे आसपास भौतिक सुख का ज़खीरा पड़ा है इतना कि शायद अब स्वर्ग के सुखों की कल्पना हास्यास्पद लगने लगी है,ऐसा कोई सुख नहीं जो हमारी पहुँच में न हो ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे हम प्राप्त न कर सकें।सुनकर बड़ा सुकून महसूस होता है कि इंसानी सभ्यता इतना आगे आ गई है कि पलक झपकते ही हर चीज हाज़िर! लेकिन कभी गौर किया है कि इक्कट्ठा किये उन सुखों को भोगने का समय तक हमारे पास नहीं होता।यही तो प्रौद्योगिकी के जिन्न नें हमसे बदले में चाहा है..हमारा समय ! जो हमने बिना सोचे समझे उसके सुपुर्द कर दिया।अब रोशनी इतनी है कि हर तरफ अजीब सा अंधेरा दिखाई पड़ता है..अंधेरा जिसमें जीवन घुलता जा रहा है।हर जगह वही समय को लीन जाने वाली दौड़ नजर आती है,मेट्रो में ,बस में मोबाइल या लैपटॉप में घुसे सर,एअरपोर्ट पर हवाई जहाज में वही दृश्य।बार बार बेवजह अपने मोबाइल को इतनी बार देखना चेक करना जैसे कि वो मोबाइल नहीं हमारी नई नवेली संतान है!दरअसल मोबाइल नें धीरे धीरे व्यक्ति की समस्त ऊर्जा और चेतना को अपनी ओर खींच लिया है,अब जो शेष है वो उर्जाविहीन अचेतन शरीर मात्र है जो सिर्फ समय को किसी तरह काट रहा है।वो जागते हुए भी नींद में होते हैं..दिन में सपने देखते हैं और जब किसी तरह नींद आती है तो अनेक स्वप्नों से घिरे होते हैं।

आज किसी के पास समय नहीं कि खिड़की के पास बैठकर बाहर की दुनिया का आनंद लिया जाए चाहे वो बस हो ट्रेन हो या हवाईजहाज।जीवन से संपर्क छूटता जा रहा है और मशीनों से जुड़ता जा रहा है।वस्तुतः भावनाएं भी मशीनी हो गई।

आपने अपने परिजनों से सुना होगा कि किस तरह बिना किसी घड़ी या अलार्म की मदद के वो रोज सुबह बिल्कुल सही समय पर स्वतः उठ जाते थे।या फिर सिर्फ धूप की परछाई देखकर अंदाजे से सटीक समय बता दिया करते थे।ये कोई जादू नहीं है।अपितु हमारे शरीर में मौजूद जैविक घड़ी की बदौलत है।ये बिल्कुल सत्य है हर व्यक्ति के पास अपनी एक जैविक घड़ी है जो दिन और रात के चौबीस घंटो पर आधारित है,जिसमें सूर्य का प्रकाश महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।ये वैज्ञानिक तौर पर साबित भी हो चुका है।यही वजह है कि आपने कई बार महसूस भी किया होगा जब भी कहीं जाना होता है तो अलार्म से ठीक पहले आपकी नींद खुल जाती है।ऐसा जैविक घड़ी की मौजूदगी से ही होता है।सिर्फ मानव शरीर ही नहीं बल्कि सभी जीव जंतु व पेड़ पौधे भी इसी घड़ी के आधार पर समय का प्रबंधन करते हैं।घड़ी के संचालन के लिए आवश्यक तत्व प्रकाश व तापमान ,आंतरिक मनोदशा होती है।

यही वजह है कि सर्दी के मौसम में कभी कभी सूरज की अनुपस्थिति से शारीरिक आलस्य की अनुभूति होती है।

हमारे शरीर में मौजूद जैविक घड़ी का सही समय पर होने का मतलब है शरीर और मन दोनों दुरुस्त हैं किंतु इसके ठीक विपरीत अगर दैनिक जीवन में परिवर्तन आ रहे हैं या किसी मानसिक तनाव से गुजर रहे हैं तो घड़ी का गड़बड़ाना तय है साथ ही स्वास्थ्य का गिरना भी तय है।आज के भौतिक समय में जहाँ देर तक जागना और देर से उठना नित्य प्रक्रिया का हिस्सा बन चुका है जैविक घड़ी का चक्र भी गड़बड़ा गया है,यही वजह है अनिद्रा,थकान उच्च रक्तचाप जैसी समस्याओं के बारे में आये दिन सुनने को मिलता है।

बेहतर यही है कि अपने शरीर की सुने,जैविक घड़ी की मरम्मत करें।थोड़ी देर के लिए ही सही प्रातः सूरज की किरणों का आस्वादन लें।समय को समय के हिसाब से चलने दें तो अन्य सभी चीजें स्वतः ही दुरुस्त रहेंगी।हमारे भीतर चैतन्य का कभी न खत्म होने वाला विशाल समुद्र है जो कि समय से भी पार है जिसने उसमें डूबना सीख लिया उसे समय का कभी अभाव हो ही नहीं सकता उसके लिए हर क्षण आनंदमय होगा।


-अल्पना नागर

Sunday 3 January 2021

हृदय का धड़कना

 मेरा हृदय धड़कता है


मेरा हृदय धड़कता है

समय के फ़लक पर

पूरे खिले चाँद की मानिंद/

जीवन अम्बुधि पर

उठती गिरती लहरों के सीने पर..


कोई आता है

नींद को स्वप्न की नदी में डुबोकर

रात के कैनवास पर 

हौले से पोंछता है गहरा रंग

उजाले की आड़ी टेढ़ी रेखाओं में

स्पंदन करती कलाकृति सा

मेरा हृदय धड़कता है..


जब ऊँघने लगती है पृथ्वी,

बेसुध होने लगता है समुद्र और

धीमी पड़ने लगती है नक्षत्रों की चाल

तुम जागे रहते हो

वक़्त के पीले जर्द पत्तों पर

संगीत सी सुनाई देती है

तुम्हारे कदमों की आहट/

जैसे ठहरा हुआ हो रास्ता

और गुजर रहा हो कोई प्रेमी

किसी अगम की तलाश में

जो लगभग भूल गया है थकना !


घोर शीत होती दुनिया में

जहाँ हृदय को सीने से निकाल

लटका दिया है बीच चौराहे पर/

जहाँ फसलों नें किया है फैसला

कभी न फलने का फैसला..

कदमों तले छूटती जा रही है पृथ्वी,

अंधी हवाएं गुर्रा रही हैं 

जैसे चला रही हो हर दिशा में हंसिया/

ऐसे में मेरे हृदय!

मुझे विस्मित करता है

तुम्हारा लगातार धड़कते रहना..!


- अल्पना नागर




भाषा और भूमंडलीकरण

 *भाषा और भूमंडलीकरण*


भाषा यानी संवाद का एक माध्यम,किन्हीं शब्दों का एक व्यवस्थित प्रस्तुतिकरण जो विचारों और मनोभावों को कूटबद्ध कर सूचनाएं साझा करने की सुविधा प्रदान करता है।किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी अस्मिता भाषा के माध्यम से ही पहचानी जाती है।

संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर जी द्वारा सरल सुबोध भाषा व शब्दों के चयन पर जो बात कही गई है वह विचारणीय है।"कोई भी शब्द केवल इसलिए ग्राह्य नहीं होता कि वह संस्कृत- भंडार का है,न शब्दों का अनादर केवल इसलिए उचित है कि वे अरबी या फ़ारसी भंडार से आए हैं।जो भी शब्द प्रचलित भाषा में चले आ रहे हैं,जो भी शब्द सुगम,सुंदर,और अर्थपूर्ण हैं,साहित्यिक भाषा भी उन्हीं शब्दों को लेकर काम करती है,यह विचार आज भी समीचीन माना जाता है।"

अगर हम भारतीय भाषा की जड़ें टटोलें तो सीधे तौर पर हिंदी भाषा ही नजर आती है लेकिन विडंबना है कि हिंदी भाषी राष्ट्र में हिंदी को अपने पैर पसारने के लिए अंग्रेजी से रजाई उधार लेनी पड़ती है!आज हालत ये है कि हिंदी काँपती हुई,अपने ही अस्तित्व से जूझती नजर आती है।क्या इसके मूल में विष बुझे अंग्रेजी राज के प्रशिक्षित टीके है जो आज भी इतने वर्षों के अन्तराल के बाद भी भारतीय नौकरशाही के खून में दौड़ रहे हैं,इतना कि जहाँ भी नजर दौड़ाओ सिर्फ अंग्रेजी भाषा की प्रधानता नजर आती है।दफ़्तर में,दुकानों के बाहर,अस्पतालों में,विद्यालयों में,रसोई में इस्तेमाल होने वाली चीजों पर,हर जगह सिर्फ अंग्रेजी की बहुलता नजर आएगी।कई बार तो ये आभास होता है कि कहीं किसी दूसरे देश में तो नहीं आ गए!यहाँ तक कि बड़े स्तर पर आयोजित होने वाले सरकारी या गैर सरकारी बैठकों की भाषा में भी अंग्रेजी ठाठ के साथ किसी घुसपैठिये सी घुसी हुई दिखाई देती है।ऐसा क्यों हो रहा है आखिर अपनी ही भाषा के प्रयोग में हीनता का बोध क्यों!ये विचारणीय बिंदु है।

ब्रिटेन जैसे मामूली राष्ट्र नें जिस विश्वास के साथ सम्पूर्ण विश्व में अपनी भाषा की जड़ें जमाई उसे देखकर यही लगता है कि क्षेत्रीय आधिपत्य से पूर्व मानसिक आधिपत्य कितना कारगर सिद्ध होता है।आज अंग्रेजी भाषा की जड़ें इतनी अधिक गहरी हो चुकी हैं कि उसे समूल उखाड़ना लगभग असंभव कार्य है।अंग्रेजी भाषा में पला बढ़ा तथाकथित एक तबका स्वयं को शिष्टाचार से लेकर बौद्धिक स्तर तक सामान्य वर्ग से श्रेष्ठ समझता है।

इससे ज्यादा दुःखद स्थिति और क्या होगी कि भारत जैसे विशाल जनसमूह की भाषा हिंदी आज भी राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने को संघर्ष कर रही है।इस देश का अपना राष्ट्रध्वज है,राष्ट्रगान है,राष्ट्रीय पशु,पक्षी,पुष्प फल फूल नदी आदि सब कुछ है किंतु यदि कुछ नहीं है तो वो है राष्ट्र भाषा! ये सत्य है कि अंग्रेजी नें सम्पूर्ण विश्व में अपने पांव पसारे हुए है,आज वैश्विक संवाद की लिए माध्यम के रूप में अगर कोई भाषा है तो वो सिर्फ अंग्रेजी।ये चमत्कार या एक दिन का परिवर्तन नहीं है अपितु इसके पीछे एक राष्ट्र का अदम्य प्रयास है जिसने मानसिक रूप से न जाने कितने ही देशों को घुटने टेकने पर मजबूर किया।किन्तु गौर करने वाली बात है कि आज वो स्थिति नहीं है।समय के साथ सभी देशों नें मानसिक गुलामी से छुटकारा पाया और अपने दम पर एक राष्ट्र जिसमें शुद्ध रूप से सिर्फ उस राष्ट्र विशेष की भावनाएं व संस्कृति सम्मिलित थी उसे प्रमुखता से न केवल स्थान दिया अपितु गौरवान्वित भी महसूस किया।आज जितने भी विकसित राष्ट्र हैं उनकी अपनी राष्ट्रभाषा है चाहे वो रूस हो फ्रांस हो इटली हो या जापान।

अब हम बात करते हैं हिंदी भाषा की वैश्विक स्तर पर पहचान की।भूमंडलीकरण के इस दौर में हिंदी नें सम्पूर्ण विश्व में अपनी अलग पहचान बनाई है और इसमें योगदान दिया है ब्लॉग लेखन,ई पत्रिकाओं व ई बुक्स नें।आज घर बैठे महज एक क्लिक पर हिंदी भाषा राष्ट्र की सीमाएं तोड़ अन्य देशों तक अपनी पहुँच बनाने में कामयाब रही है।विज्ञापन जगत और सिनेमा नें भी हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में महती भूमिका निभाई है।अब भाषा महज एक राष्ट्र तक सीमित नहीं है ये तमाम बंदिशें तोड़कर पूरे वेग के साथ आगे बढ़ रही है।प्रिंट मीडिया नें छोटे छोटे गांवों तक अपनी पहुँच बना ली है।आज मोबाइल पर सर्व सुलभ इंटरनेट की सुविधा के कारण क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं।एक लघु आकर के स्मार्ट फोन की स्क्रीन पर उपलब्ध दुनिया भर के ज्ञान को प्राप्त करना अब बहुत आसान हो गया है।भूमंडलीकरण,संचार क्रांति,और नवीनतम प्रौद्योगिकी नें सम्पूर्ण विश्व को इक्कट्ठा कर दिया है।अब पहले की तरह खबरों के लिए किसी निश्चित समय का इंतज़ार नहीं करना पड़ता।इंटरनेट भंडार पर भाषागत जानकारियां रोज अपडेट होती हैं,जहाँ सीधे तौर पर किसी व्यक्ति विशेष से जुड़ा जा सकता है।बिना किसी रोक टोक के सूचनाएं व अनुभूतियां साझा की जा सकती हैं,खुला संवाद लाइव वीडियो के माध्यम से किया जा सकता है।इंटरनेट एक सशक्त ग्लोबल मंच के रूप में उभरकर आया है जहाँ न सिर्फ सूचनाएं अपितु तात्कालिक संवाद, टिप्पणी और अभिव्यक्ति भी बड़ी ही आसानी से उपलब्ध होती हैं।आज हिंदी नें वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अपना स्वरूप बदला है,इसने संकोच का चोला उतार दिया है और खुलकर अपने वास्तविक स्वरूप में दुनिया के सामने आ रही है।गूगल पर हिंदी में भी तमाम तरह की जानकारियां उपलब्ध हैं।सी डेक पुणे नें 'स्पीच टू टेक्स्ट' यानी 'श्रुतलेखन' के लिए हाल ही में हिंदी बोलकर स्वतः टाइप करने का महत्वपूर्ण सॉफ्टवेयर विकसित किया है।इससे हिंदी भाषा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आएंगे।

ब्लॉगिंग में भी भाषागत वर्जनाएं बड़ी तेजी के साथ टूट रही हैं।जनसमूह की लोकप्रिय भाषा होने के नाते हिंदी देश विदेश में अपना परचम लहरा रही है।

बदलते वैश्विक परिदृश्य में हिंदी पत्रकारिता नें अपनी अलग पहचान बनाई है जो कि सर्वग्राही व सर्व सुलभ है।विकासशील देशों जैसे मॉरीशस,इंडोनेशिया,त्रिनिनाद आदि में लगभग सत्तर प्रतिशत हिंदी भाषी लोग हैं।विकसित यूरोपीय देशों में भी आज हिंदी अप्रवासी फैले हुए हैं व हिंदी के प्रचार प्रसार से सम्बद्ध भी हैं।बिल गेट्स नें हिंदी माइक्रोसॉफ्ट का प्रचलन करके इस भाषा पर स्वतः वैश्वीकरण की मुहर लगा दी है।आज संचार के साधन बढ़े हैं।विश्व सिमट कर एक गांव जैसी अनुभूति करा रहा है।किन्तु फिर भी हिंदी को अपने ही राष्ट्र में अंग्रेजी के साथ मशक्कत करनी पड़ रही है।हिंदी का इतना व्यापक फलक होते हुए भी यह संयुक्त राष्ट्र की मान्य भाषा अभी तक नहीं है।और शायद इसीलिए यह अभी तक भारत की भी मुख्य संपर्क भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है।

किन्तु फिर भी उम्मीद है वो दिन जल्द ही आएगा जब सम्पूर्ण विश्व में हिंदी भाषा को यथोचित सम्मान और दर्जा मिलेगा।निश्चित रूप से भूमंडलीकरण के इस दौर में आधुनिक संचार माध्यमों नें भाषा और साहित्य को समृद्ध करने के लिए सर्वसुलभ मंच मुहैया कराया है,जिसके लिए विश्व हमेशा संचार क्रांति का ऋणी रहेगा।


-अल्पना नागर