Friday 23 July 2021

मिज़ाज

 मिज़ाज


दिन एक उजली रेत का किनारा

चहक़दमी करते लोग

छोड़ते जाते स्मृतियों के निशान..

कोई बनाता घरौंदा

तो कोई करता प्रयास

भुरभुरे दिन को मुट्ठी में भरने का/

मगर दिन को आदत नहीं

एक जगह ठहरने की

वो फिसलता जाता है

रेत-दर-रेत

लम्हा-दर-लम्हा..!


उजली रेत के उस पार

समंदर सी गहरी है स्याह रात

निःशब्द नीरव रहस्यों से भरी रात/


रात की गोद में सर रखकर 

सुकून से लेटती हैं स्वप्न लहरें..

एक मौन संवाद बहता है

दोनों के दरमियां..!

रात खुद नहीं सोती

थपकियां देकर सुलाती है

स्वप्न लहरों को/


लहरें नींद में चलकर

किनारे आती हैं

और छोड़ जाती हैं 

दिन की ड्योढ़ी पर

शंख,सीप और ढेरों कहानियां/

कहानियां जिन्हें

सूरज निकलने पर

चुनता है दिन और

बिखर जाता है शब्द शब्द

झिलमिल किसी चादर सा..!


स्वप्न लहरें खाली हाथ नहीं लौटती

बहा ले आती हैं

सदी की बेचैनियां,आशाएं,अपेक्षाएं

पीछे छूटते स्मृति चिह्न और

स्थाई घरौंदों के भ्रम..!


दोनों प्रतीत होते हैं

एक दूसरे से सर्वथा भिन्न 

मगर मिज़ाज एक ही है/

भुरभुरे दिन की भाँति

समंदर रात भी ठहरती नहीं..

रिसती जाती है अंजुरी से बूँद-बूँद

लम्हा-लम्हा..!


-अल्पना नागर







Saturday 17 July 2021

फिर से

 फिर से


रेल के कोने में गठरी बनी

नई नवेली दुल्हन

कनखियों से देख रही है

खिड़की से बाहर

लम्हों की भाँति छूटती हुई

पेड़ों की कतारें

बिजली के खंभे/

उसे आभास हो रहा है

सब कुछ उसके संग चल रहा है

मगर हक़ीकत में

सब छूटता जा रहा है

आगे प्रतीक्षा में है

नई जगह..नया स्टेशन !


गाँव में ब्याह के आयी है

नई नवेली बहुरिया

अभी घूँघट कलेजे तक ढलका है

मानो कह रहा हो

अब बात कलेजे से बाहर 

नहीं जा पाएगी !


बहुरिया के आलता लगे पाँव

छोड़ते जा रहे हैं

स्थाई चिह्न

उसके मन मस्तिष्क पर

वो जान चुकी है कि

यही है उसकी आजीवन लक्ष्मण रेखा !


सिंदूर और दूध से रंगे बर्तन में

डाल दी गई है अंगूठी और चंद सिक्के

ननद बाई नें हौले से कुछ बुदबुदाया है

बहुरिया के कानों में!

बहुरिया नें छोड़ दिये हैं हर बार

हाथों में आये सिक्के और अंगूठी

वो जानती है

उम्र भर दोहराया जाएगा 

यही पूर्व निर्धारित 'अकी बेकी' खेल

जिसमें हर सूरत में तय है उसकी हार !


पल्लू का सिरा मुँह में दबाए

ठिठोली करती दर्जनों औरतों का हुजूम

अब करेगा मुँह दिखाई

नई नवेली बहुरिया की..

घूँघट के भीतर भी

एक और घूँघट है

हया का घूँघट !

जो बहुरिया की माँ नें 

देहरी पार करती बिटिया के पल्लू बांधा था

सीख देकर कसकर गाँठ लगाते हुए..


अब गाँव भर में घुमाकर

ली जाएगी

देवी देवताओं की अनुमति..

एक भी देवरा छोड़ा नहीं जाएगा

मंगल गीत गाये जाएंगे!


बहुरिया को देख

खिल उठी हैं

घर की दूसरी औरतों की बांछे

अब जवाब देने लगे हैं

सभी के घुटने यकबयक !

बहुरिया के आने से सब खुश हैं

सिवाय रसोईघर के..

वो राजदार है

बहुरिया की दुखती पिंडलियों

और कठोर होते हाथों के स्पर्श की/


रसोई को मालूम है

किस तरह रोज बहुरिया

लड़ती है

परात भर आटे में गुँथे

चुटकी भर नमक जितने सपनों के संग/

वो जितनी मशक्कत करती है

उतनी ही बढ़ती जाती है

गुँथे आटे की लचक..!

फिर आहिस्ता से डालती है

बेली हुई रोटियां

सार्वभौमिक सत्य से गर्म तवे पर..

सेकती है धैर्य को

पूरी तरह पकने तक..!

तब जाकर आता है स्वाद

तब जाकर भरता है कुटुम्ब का उदर !


बहुरिया नें सीख लिया है

बातों को कलेजे के भीतर रखना

मगर छुपा नहीं पाती

खिड़की से पिघलकर आते चाँद से/

बहुरिया पढ़ी लिखी है

उसने लिखी हैं चंद पंक्तियां

छुपते छुपाते

रात के गहराते सायों के बीच..

उसे नहीं पता 

आख़िर वो क्या करे 

कागज़ पर उकेरे अक्षरों के सैलाब का !


आज फिर उतरकर आया है चाँद

खिड़की पर..

बहुरिया व्यस्त है

एक जरूरी काम में !

उसने बनाये हैं

ढेर सारे हवाईजहाज

उन्हीं कागज़ों से 

जिन पर उकेरी थी उसने कविताएं/

एक एक कर वो रोज भेजेगी

उड़ान भरता हवाईजहाज

सीधे चाँद के घर !


बहुरिया हैरान है

ये जानकर कि

चाँद के पास पहले से लगा है ढेर

ऐसे अनगिनत कागजी जहाजों का !


आज फिर से दूर किसी घर से

सुनाई दे रहा है

शहनाई का रुदन..

फिर होगी मुँह दिखाई

देवी देवरा घुमाई

आटे से रोज की लड़ाई

और सपनों की जमकर धुनाई/

फिर होगी चाँद से बातें

फिर से उड़ेगा कोई कागज़ का जहाज

फिर रोयेगा चाँद 

और टूटकर पिघलेगी चाँदनी!

फिर से घुलेंगे काले अक्षर 

गहराती रात के स्याह पन्नों में..!

एक बार फिर से..हाँ फिर से..!!


-अल्पना नागर